कहानी

राम का मंदिर

अयोध्या नगरी के पास फैजाबाद में एक गरीब परिवार रहता था । दशरथ प्रसाद दिहाड़ी मजदूर था । वह एक छोटी से झोंपड़ी में अपने इकलौते पुत्र बजरंग और पत्नी के साथ रहता था । जो भी कमाता उसी में परिवार संतुष्ट था । बजरंग जब छोटा ही था, माँ से रामायण महाभारत की कथा बड़े चाव से सुना करता । बड़ा होते होते वह अपने नाम के बजरंग के अनुरूप राम का परम भक्त बन गया  ।

1984 में विश्व हिन्दू परिषद् ने बाबरी मस्जिद और अन्य हिन्दू मंदिरों पर कथित रूप से निर्मित अन्य ढांचों पर हिन्दुओं की पहुँच के लिये सावर्जनिक समर्थन इकठ्ठा करना शुरू किया। परिषद् के नेताओं ने बाबरी मस्जिद के बारे धुंआ धार भाषण दिए । 6 दिसंबर 1992 को, बीजेपी, वीएचपी और आरएसएस नेता कर सेवा करने के लिए स्थल पर एकत्र हुए। भीड़ में भाषणों से उत्तेजना फ़ैल गयी और शाम होते होते तक भीड़ ने बाबरी मस्जिद ध्वस्त कर दी ।

बजरंग भी उसी भीड़ का इक हिस्सा था। उसके बाद जब हिन्दू मुस्लिम दंगें हुए तो बजरंग के दो मित्र भी उसमें मारे गए, बजरंग सौभाग्य से बच गया । बजरंग ने मस्जिद की जगह पर मंदिर ना बन सकने तक मंदिर बनाने केहर काम में तन मन धन से योगदान देने का निश्चय कर लिया । उसने प्रण कर लिया क़ी राममंदिर बनने तक वह भी चैन से नहीं बैठेगा और से राम मंदिर के लिए काम करेगा ।

बजरंग कुछ समय तक तो सरकारी स्कूल गया पर उसकी रूचि पढ़ने में नहीं राम मंदिर में ज्यादा थी।  फैजाबाद में रहने के कारण मंदिर बनवाने के भाषण वो अक्सर सुनता रहता था ।

बजरंग युवा हो चुका था । अपने माँ-बाप की गरीबी देखकर कम उम्र में ही पैसे कमाने की चिंता में लग गया जिससे माता पिता की मदद कर सके । कुछ दिन पिता की तरह दिहाड़ी मजदूर की नौकरी की फिर कुछ पैसे जमा हो जाने पर एक ठेला ले लिया । ठेले पर सब्जियां लेकर वो घर घर जाकर सब्जियां बेचने लगा। मन राम और राम मंदिर की ओर ही लगा रहता । प्रतिदिन की आय से वो कुछ रुपये बचा कर एक गुल्लक में रख लेता और बाकी के अपने पिता को घर का खर्च चलाने के लिए दे देता ।

उसने प्रण कर लिया था की कुछ भी हो जाए, गुल्लक के पैसे राम मंदिर के अतिरिक्त कहीं और खर्च नहीं करेगा । कभी कभार गुल्लक खोलकर गिन लेता कि कितने रुपये हो गए ।

“बजरंग बेटा”, एक दिन पिता ने उसे आवाज  दी । 

“जी पिताजी”  बजरंग दौड़ा दौड़ा चला आया ।

“आज तक मैंने तुझे कभी पैसों के किये नहीं कहा”  पिताजी ने सकुचाते हुए कहा  ।

“पिताजी, मैंने भी कभी आपको किसी बात से मना नहीं किया आप मुझे बेहिचक जो भी आपके मन में हो कह सकते हो ” बजरंग ने भी आदरपूर्वक जवाब दिया ।

“आज मुझे लगभग पांच हजार रुपयों की सख्त जरूरत है” पिताजी ने हिम्मत जुटाते हुए कहा ।

“इतने पैसे तो मेरे पास मेरी गुल्लक के सिवा मेरे पास हैं नहीं ” बजरंग ने कहा। 

“तो गुल्लक किस दिन के लिए हैउसी से निकालकर दे दे” पिताजी ने तर्क देते हुए कहा ।

 “मैं कई बार आप से कह चूका हूँ गुल्लक के पैसे राम मंदिर के अतिरिक्त मैं कहीं खर्च नहीं करूंगा चाहे कुछ भी हो जाए”, दृढ़तापूर्वक बजरंग ने कहा । 

पिता ने दुबारा उससे कभी गुल्लक से पैसे निकालने की हिम्मत नहीं की ।

किसी मित्र ने उसे परामर्श दिया कि शाम के समय यदि वो बाजार की मुख्य सड़क के किनारे ठेला लेकर बैठ जाए तो उसे कुछ अतिरिक्तआमदनी हो जायेगी । बजरंग ने ऐसा ही किया और इससे उसकी आमदनी बढ़ गयी । गुल्लक में रामजी के लिए उसने और अधिक राशि जोड़नी शुरू कर दी क्योंकि हुआ तो सब कुछ राम जी की कृपासे ही था ।

बजरंग जिस जगह ठेला लेकर बैठता उसके पास वाली जगह में एक मुस्लिम युवती फल की टोकरी लेकर बैठती थी । बजरंग को बातों बातों में पता चला कि उसका नाम शमशाद बेगम था और वो एक तलाकशुदा महिला थी ।

वहां बैठते बजरंग को कुछ ही सप्ताह हुए थे । एक दिन शाम को बजरंग अपने ठेले पर बैठा था । बाजार में त्यौहार के कारण बहुत भीड़ भाड़ थी ।  तभी अचानक एक तेज रफ़्तार से चलती एक कार वहां से गुजरी, कार का चालक कार पर से अपने नियंत्रण खो बैठा । पल भर में वहकार सड़क की सीमा तोड़ती हुई बजरंग के ठेले को टक्कर मारती हुई फल वाली महिला के ऊपर चढ़ गयी । कार चालाक किसी तरह से कार लेकर भाग खड़ा हुआ । बजरंग के ठेले को तो नुक्सान हुआ पर वो बच गया ।

वह महिला बुरी तरह से घायल हो गयी। बाजार से गुजरने वाले असंवेदनशील लोगों ने देखकर भी अनदेखी कर दी ।

बजरंग तेजी से उठा, महिला को उठाया, वह बेहोश हो चुकी थी और उसका खून बहते जा रहा था । बजरंग ने गुजरती कारों से रुकने का इशारा किया पर कोई भी इस पचड़े में पड़ना नहीं चाहता था । बजरंग भागकर गया, एक टेक्सी लेकर आया । अपने ठेले को पास वाले ठेले के हवाले कर महिला को लेकर अस्पताल पहुंचा ।

वहां पहुँचने पर अस्पताल ने उसे पुलिस को सूचित करने की सलाह दी और कहा की एडवांस के तौर पर उसे दो हजार रुपये जमा करवाने होंगें ।

इतना सब करने के बाद उसे चिंता सताने लगी कि अभी तो दो हजार दे दूंगा उसके बाद के खर्चे का क्या होगा ?

वह घर आया । बिस्तर पर तो लेट गया पर रात भर सोचता रहा “कुछ भी हो जाए राम मंदिर का पैसा तो मैं किसी भी हालत में इस मुस्लिम महिला को नहीं दूंगा ।

सुबह होते ही वह अस्पताल की ओर चल पड़ा । उसने शमशाद को देखा, शरीर पर जगह जगह पट्टियां बंधी हुई, जख्म, चेहरा दर्द, लाचारी से भरा हुआ, फटे कपडे, देखते ही बजरंग को ग्लानि सी महसूस हुई । शमशाद को होश आ चूका था  । एक नर्स से पूछने पर पता चला कि महिला को रात को खून  दे दिया गया है, अन्यथा उसकी जान को खतरा  था । उसे ठीक  होने में अभी लगभग एक हफ्ते का समय लगेगा । अस्पताल में रहने का खर्च, मलहम, दर्द निवारक दवाईंयां, थोड़ी बहुत सर्जरी, एंटी बायोटिक दवाईयां, खून की बोतलों का खर्च कुल मिलाकर सात हजार रुपये के लगभग खर्चा होगा ।

” आप जो भी हो मेरे लिए फरिश्ता साबित हुए हो ” बजरंग को देखते ही वह महिला बोली  । “अस्पताल वालों ने मेरे इलाज के लिए जो रुपये मांगें हैं मैं वह तो नहीं दे पाऊंगी इसलिए मैंने उन्हें घर जाने देने के लिए कहा  है” शमशाद बेगम ने रोते रोते उसे बताया ।” मुझे पता है इतने रुपये देना आपके बस की भी बात नहीं है”, ” मैं तोअल्लाह से यही दुआ करूंगी की मुझे बस इस लायक बना दे जिससे मैं बैठकर फिर से रोजी-रोटी कमा सकूं”  ।

बजरंग ने सोचा भगवान् राम ने भी तो जंगल में तपस्या करते साधुओं की सहायता क़ी थी, कभी वानर सुग्रीव क़ी, कभी दानव विभीषण क़ी, फिर यदि मैंने इस लाचार की सहायता कर दी तो राम जी मुझसे क्यों नाराज होंगें ?

बहन आप कहीं नहीं जाओगी । पूरी तरह ठीक होने तक आप यहीं रहोगी । मेरे राम मेरी आवाज जरूर सुनेंगें और मेरी बहन की मदद जरूर करेंगें ।

“एक मुस्लिम महिला के लिए आप इतने पैसे का इंतजाम  करोगे?” हैरान होते हुए शमशाद ने सवाल किया  ।

“बहन आप मुस्लिम बाद में हो पहले एक इंसान हो”, बजरंग ने अपनत्व से कहा । एक इंसान ही यदि इंसान के काम नहीं आया तो मैं राम जी को क्या जवाब दूंगा ? “मेरे पास इतने रुपये हैं आप चिंता न करें” बजरंग ने बड़े आत्मविश्वास से शमशाद से कहा  ।

घर आकर उसने गुल्लक खोली, आठ हजारके लगभग रुपये थे । उसने चैन की सांस ली । अब शमशाद बहन पूरी तरह ठीक होकर ही अस्पताल से जाएगी,  मेरे राम ने उसकी सहायता कर ही दी।

उस रात वह बड़े आराम से सोया उसके सर से जैसे मंदिर बनवाने की जिम्मेवारी पूरी हो चुकी थी ।

अचानक जहां वह सो रहा था, कमरा प्रकाश से जगमगा उठा उसकी आँखे चुंधिया गयी । प्रकाश के अंदर से एक आकृति प्रगट हुई । आकृतिने एक दिव्य रूप धारण कर लिया । हाथ में धनुष बाण लिए दिव्य पुरुष की आकृति बिलकुल राम जी की तरह थी । आकृति में से ध्वनि आई : तो आखिर  तुमने मेरे लिए रखा पैसा उस मुस्लिम महिला को दे ही दिया ।

” प्रभु मुझे माफ़ कर दीजिये, मैं अपनी पूरी संपत्ति अपना घर बार बेचकर मंदिर के लिए पैसे दे दूंगा”  बजरंग उनके पैरों पर गिर पड़ा ।

लेकिन माफी किस बात क़ी ? आवाज आई ।” तुमने तो मंदिर बना दिया है” दिव्य पुरुष ने कहा  । “मुझे मंदिर की जरूरत नहीं, पूरा विश्व ही मेरा घर है” मंदिर क़ी जरूरत तो मेरे नाम पर राजनीति की रोटियां सेकने वालों को है” “मैं जानता हूँ कि  कौन मेरे लिए और कौन स्वार्थ के लिए, सत्ता की कुर्सी के लिए मेरे नाम पर भोली भाली जनता को मूर्ख बना रहे हैं ” दिव्य पुरुष की आवाजआई ।  

तुमने इंसानियत का फर्ज निभाया है, एक महिला की जान के लिए अपने राम की दौलत न्योछावर कर दी, वह महिला मेरी ही संतान है। कोई हिन्दू, कोई मुसलमान, तुम्हारे  बनाये हुए हैं मैंने तो सिर्फ इंसान बनाये थे । जब कोई अल्लाह अल्लाह करता है या राम राम करता है तो मुझे ही बुलाता है ।  तुमने एक ईश्वर की संतान की सहायता करके इंसानियत का फर्ज निभाया है, यही एक सच्चे भक्त की राम भक्ति है । तुमने अपने दिल को मंदिर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, अब मैं उस मंदिर में नहीं तुम्हारे दिल के मंदिर में रहूंगा, तुम्हें उस मंदिर की नाहक चिंता करने की जरूरत नहीं  ।

बजरंग उनके क़दमों में झुक गया, पर देखा तो सूर्य देव उदय हो चुके थे, उसकी आँख खुल गयी ।

आज उसके चेहरे पर एक अनोखा तेज था । वह नहा धोकर अस्पताल के लिए निकल पड़ा ।

रविन्दर सूदन

शिक्षा : जबलपुर विश्वविद्यालय से एम् एस-सी । रक्षा मंत्रालय संस्थान जबलपुर में २८ वर्षों तक विभिन्न पदों पर कार्य किया । वर्तमान में रिटायर्ड जीवन जी रहा हूँ ।

One thought on “राम का मंदिर

  • राजकुमार कांदु

    वाह ! आदरणीय रविंदर भाई जी ! इस कहानी की जितनी भी तारीफ की जाय थोड़ी ही होगी । इंसानियत का पाठ पढ़ाती अति सुंदर रचना के लिए आपका दिल से आभार !

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