लघुकथा

जन्नत

मधुर, पन्द्रह दिन बाद मैं तुम्हारी हो रही हूँ। अपने जन्नत के साथ मुझे कश्मीर जन्नत ले जाने के टिकट तुम बुक करा चुके हो। पर, मेरे प्यार ! कश्मीर की जन्नत का सुख भोगने जाने से पूर्व हम दोनों उस आश्रम में जाएंगे, जहां पर मेरी होने वाली सासुमा , जो मा होने के कारण तुम्हारी
जन्नत हैं, को तुम्हारे भाई भाभी ने रख   रखा है। हम दोनों ससम्मान उन्हें तुम्हें मिले दो कमरों के सरकारी क्वार्टर में रखेंगे। अब तुम अकेले नहीं हो। तुम्हारी मधु भी साथ है। इसलिए सात फेरो के समय आठवां वचन हम उनकी सेवा का लेगे । उनके आशीर्वाद के साथ ही हम दोनों कश्मीर की जन्नत के लिए प्रस्थान करेंगे। स्कूल की पुस्तक में पढ़े पाठ के अन्श “मा के कदमों में ही जन्नत होती है ” को हम तुम साकार कर मम्मी जी के शेष जीवन में निस्वार्थ सेवा कर पुण्य चाहे नहीं ले, पर एक पुराने पाप का प्रायश्चित तो कर ही सकते हैं ना। प्यार मेरे जन्नत !  बस तुम्हारी ही — मधु ।                                                     

 — दिलीप भाटिया 

*दिलीप भाटिया

जन्म 26 दिसम्बर 1947 इंजीनियरिंग में डिप्लोमा और डिग्री, 38 वर्ष परमाणु ऊर्जा विभाग में सेवा, अवकाश प्राप्त वैज्ञानिक अधिकारी