कविता

चीख़ती हुई रात

वो तूफ़ानी और सर्द भरी रात,
सर्द हवाओं में चीख़ती हुई आवाज़।
किसी ने ना सुनी उस अबला की पुकार,
जिसको हम ने नाम दिया “दामिनी” अवतार।
कितने हैवान बन गये थे वो दरिन्दे,
नोच रहे थे उसके जिस्म को वो दरिन्दे।
ऐसे दरिन्दों को ‘जन’ कर हर माँ रो पड़ी थी
उनकी ख़्वाहिशों की डोर जो टूट पड़ी थी।
पीड़ा थी उस “दोस्त” को जो बेबस पड़ा था,
उन दरिन्दों की जकड़ में वो पड़ा था।
हर अख़बार की सुर्ख़ियों में उसे परोसा गया,
हर इन्सान की ज़ुबाँ पे उसको रखा गया।
इधर सरकार मौन थी बस आश्वासन दे रही थी,
इस से आगे वो कर भी क्या रही थी।
मचा शोर, चारों ओर तो सरकार जागी,
अपने देश से विदेश “दामिनी”को ले कर भागी।
मगर वो कैसे बचती, उसकी आत्मा को नोचा गया था,
दिया उसको इंसाफ़ क़ानून ने नाम “दामिनी” दिया था।
उसकी आत्मा की बस यही पुकार थी,
ना हो ऐसी दरिन्दगी जो मेरे साथ थी।
आज भी अबलायें बहुत सी खड़ी हैं,
नहीं है उनकी कोई सुनने वाला वो मजबूर पड़ी हैं।
हर दिन वैसे ही दरिन्दे जन्म ले रहे हैं,
ना जाने कितनी दामनियों को नोच रहे हैं।

— सीमा राठी, श्री डूंगरगढ़ (राज.)

सीमा राठी

सीमा राठी द्वारा श्री रामचंद्र राठी श्री डूंगरगढ़ (राज.) दिल्ली (निवासी)