धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

ऋषि दयानन्द की स्वदेश सहित विश्व के सभी मनुष्यों को देन

महाभारत काल के बाद से लेकर वर्तमान समय तक यदि हम संसार के महापुरुषों पर दृष्टि डालें तो हमें ऋषि दयानन्द सबसे महान महापुरुष दिखाई देते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण उनके द्वारा संसार के सबसे प्राचीन धर्म वेद और संस्कृति का पुनरुत्थान करना था। क्या इसकी आवश्यकता थी? इसका उत्तर है कि संसार के प्रत्येक मनुष्य अर्थात् स्त्री व पुरुष के लिये इसकी आवश्यकता तब भी थी व अब भी है और प्रलय काल तक रहेगी। सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक लगभग 1.96 अरब वर्षों तक एक मत वैदिक मत ही समस्त संसार में प्रचलित था। इसका कारण वैदिक धर्म का सत्य व ज्ञान-विज्ञान पर आधारित होना था। देश में बड़ी संख्या में ऋषि-मुनि व विद्वानों सहित ऋषियों के शिष्य होते थे जो अज्ञान को प्रशय नहीं लेने देते थे। महाभारत युद्ध के दुष्परिणामों में एक परिणाम यह हुआ कि ऋषि मुनियों की कमी अथवा अभाव सहित राज्य व्यवस्था क्षीणता को प्राप्त हुई। गुरुकुलों सहित विद्या के अध्ययन व अध्यापन के केन्द्र ध्वस्त हो गये। अज्ञान व अविद्या में वृद्धि होने लगी। वेद के मन्त्रों के शब्दों के पारमार्थिक अर्थ त्याग कर लौकिक व प्रकरण विरुद्ध अर्थ लिये जाने लगे जिससे अर्थ का अनर्थ होने लगा। अहिंसक यज्ञों में पशुओं की हत्या कर उनके मांस से आहुतियां दी जाने लगी। इसी प्रकार से नाना प्रकार के अन्धविश्वास एवं सामाजिक विकृतियां उत्पन्न होने लगीं जो समय के साथ वृद्धि को प्राप्त होती गयीं। कालान्तर में देश व समाज से ज्ञान व विद्या लुप्त हो गई जिसका परिणाम सामाजिक विघटन हुआ। वेदों के यथार्थ अर्थ विस्मृत व विलुप्त हो गये और उनके गलत अर्थों व किन्हीं लोगों के स्वार्थ के कारण समाज में अवतारवाद, मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, जन्मना जातिवाद आदि अनेक विकृतियां व अन्धविश्वास उत्पन्न हो गये। देश पहले छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हुआ और बाद में यवनों का और उसके बाद अंग्रेजों का गुलाम हो गया। भारत ही नहीं महाभारत काल के बाद पूरे विश्व में भी अज्ञान का अन्धकार छा गया। इस अज्ञान की विद्यमानता में सर्वत्र अविद्या पर आधारित मत-मतान्तर उत्पन्न हुए जिन्होंने अपना प्रभाव बढ़ाने व जमाने के लिये लोगों पर अत्याचार किये जिससे संसार में अशन्ति छा गई और लोग शुभ कर्मों से वंचित होकर क्लेश व दुःखों से युक्त होते गये।

मनुष्य जाति के सौभाग्य से 12 फरवरी, सन् 1825 को गुजरात प्रान्त के मोरवी नगर के टंकारा नामक कस्बे में श्री कर्षनजी तिवारी के घर पर एक बालक का जन्म हुआ जिसका नाम मूलशंकर रखा गया। आगे चलकर यही बालक ऋषि दयानन्द के नाम से विख्यात हुए। 21 वर्ष पूर्ण करके 22वें वर्ष में इन्होंनें सच्चे ईश्वर तथा मृत्यु की ओषधि की खोज के लिये अपने पितृ घर का त्याग कर देश के योगियों व विद्वानों की शरण ली। यह देश भर में स्थान-स्थान पर घूमें और ज्ञानी व योगीजनों से विद्या एवं योग के रहस्यों को जाना व समझा। वह एक सच्चे योगी बने जो 18 घंटे तक की लगातार समाधि लगाकर ईश्वर का साक्षात्कार कर उसके आनन्द में निमग्न रह सकते थे व रहे थे। योग की इस उपलब्धि से भी वह सन्तुष्ट नहीं हुए और विद्या वृद्धि के लिये देश भर में विचरण करते रहे। अनेक विद्वान संन्यासियों की संगति से इनको संस्कृत की आर्ष व्याकरण व विद्या के सूर्य स्वामी विरजानन्द सरस्वती का पता मिला और इन्होंने उनकी शरण में जाकर शिष्यत्व को प्राप्त किया। ढाई वर्षों में इन्होंने स्वामी विरजानन्द जी से आर्ष व्याकरण का अध्ययन पूरा किया और शास्त्रों के सभी सिद्धान्तों व मान्यताओं को भी जाना। सन् 1863 में विद्या पूरी कर स्वामी दयानन्द जी ने गुरु विरजानन्द जी से विदाई ली। गुरु दक्षिणा पर गुरु और शिष्य में संवाद हुआ जिसमें गुरु विरजानन्द जी ने स्वामी दयानन्द को अपना पूरा जीवन देश से अविद्या को दूर कर विद्या के आर्ष ग्रन्थों वेद व वेदानुकूल ऋषि ग्रन्थों को स्थापित व व्यवहारिक बनाने में लगाने की प्रेरणा की। स्वामी दयानन्द जी ने गुरु की आज्ञा व प्रेरणा को स्वीकार उसके अनुरूप कार्य करना आरम्भ किया जिसका परिणाम देश के सभी क्षेत्रों से सभी प्रकार की अविद्या को दूर करने के प्रयत्न के रूप में सम्मुख आया और इसका प्रभाव भी हुआ।

स्वामी जी ने वेद और समस्त ऋषिकृत वैदिक ग्रन्थों का अध्ययन कर पाया कि इनमें निराकार, सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वान्तर्यामी, अनादि, नित्य, अमर ईश्वर की उपासना का विधान है। मूर्तिपूजा का वेद, किसी आर्ष ग्रन्थ व प्राचीन ग्रन्थों में विधान नहीं है। मूर्तिपूजा का आरम्भ भी बौद्धमत के कई वर्षों बाद आरम्भ हुआ। अतः स्वामी जी ने वेद और वैदिक सिद्धान्तों के विरुद्ध देश व विश्व में प्रचलित सभी मतों की मान्यताओं व धार्मिक अनुष्ठानों पर दृष्टि डाली। उन्होंने वेद विरुद्ध मान्यताओं का तर्क, युक्ति तथा वेद प्रमाणों के आधार पर समीक्षा की और असत्य का खण्डन तथा सत्य का मण्डन किया। मूर्तिपूजा अज्ञान व अन्धविश्वास का प्रमुख आधार है। यह मनुष्य को ईश्वर के सत्यस्वरूप की उपासना से विमुख कर उसे ईश्वर के चेतनस्वरूप से सर्वथा विपरीत जड़ व निर्जीव पदार्थ की उपासना व पूजार्चना आदि मिथ्या कर्तव्यों में प्रविष्ट कराती है जिससे मनुष्य के जीवन की उन्नति न होकर उसे वेद विरुद्ध आचरण के कारण अनेक प्रकार के आध्यात्मिक लाभों से वंचित होना पड़ता है। अतः स्वामी जी ने वेद के प्रमाणों तथा युक्तियों से मूर्तिपूजा तथा सभी अवैदिक मिथ्या विश्वासों का खण्डन किया और मत-मतान्तरों के आचार्यों को शास्त्रार्थ करने की चुनौती दी। इसी के अर्न्तत 16 नवम्बर, सन् 1869 को उनका काशी के 30 से अधिक शीर्ष विद्वानों से शास्त्रार्थ भी हुआ था। इस शास्त्रार्थ में ऋषि दयानन्द को सफलता प्राप्त हुई थी। पौराणिक विद्वान जो वेदों का प्रमाण स्वीकार करते थे, वेदों से मूर्तिपूजा का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं करा सके थे। उन्होंने अपने पक्ष को निर्बल जानकर छल व वितण्डा का सहारा लिया परन्तु शास्त्रार्थ में उपस्थित 50 हजार की श्रोतृ-मण्डली के निष्पक्ष लोगों पर यह बात अंकित हो गई कि ऋषि दयानन्द की मूर्ति पूजा के विरोध में मान्यतायें व सिद्धान्त ही सत्य हैं। इस प्रकार स्वामी जी ने ईश्वर की मिथ्या जड़ पूजा का खण्डन कर लोगों पर इसके सत्य स्वरूप को प्रकट करके इसे दूर करने का सफल प्रयास किया।

स्वामी दयानन्द जी के समय में लोग वेद विरुद्ध और तर्क युक्ति से भी असिद्ध अवतारवाद, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, जन्मना जातिवाद, छुआछूत, ऊंच-नीच आदि अनेकों अन्धविश्वासों व कुप्रथाओं में फंसे हुए थे। स्वामी दयानन्द जी ने इन सब सामाजिक कुप्रथाओं का खण्डन कर इन विषयों के सत्य पक्ष को प्रस्तुत कर विद्वानों व बुद्धिजीवियों को अपनी ओर आकर्षित व प्रभावित किया। स्वामी जी के प्रवचनों, शास्त्रार्थों तथा वातालापों से सुधीजन उनके विचारों व मान्यताओं से आकर्षित होते रहे और वह अपने मत-सम्प्रदाय की पद्धतियों को त्याग कर अपने विचारों व आचरणों में परिवर्तन करते रहे। स्वामी जी ने देश के उत्तर, पश्चिम, पूर्वी भागों में वेद व धर्म का धुआंधार प्रचार किया। इससे सारे देश में हलचल मच गई। स्वामी जी ने पहले राजकोट में आर्यसमाज स्थापित किया था। उनके वहां से चले जाने के बाद वह सक्रिय नहीं रह सका। मुम्बई के लोगों ने स्वामी जी को एक संगठन व संस्था बनाने का अनुरोध किया। स्वामी जी ने उनके अनुरोध को स्वीकार कर मुम्बई में 10 अप्रैल, 1875 को आर्यसमाज की स्थापना की जिसका उद्देश्य देश देशान्तर में वेद और वैदिक विचारधारा का प्रचार करना तथा सभी अन्धविश्वासों, कुरीतियों व मिथ्या पराम्पराओं को दूर करना था। स्वामी जी ने इसके बाद देश के अनेक भागों में आर्यसमाज की स्थापना की प्रेरणा की। देहरादून का आर्यसमाज भी उनके द्वारा स्थापित आर्यसमाज है। उनके जीवनकाल में ही देश भर में लगभग 100 आर्यसमाजें स्थापित हो चुकी थीं।

अन्धविश्वास, अज्ञान, कुरीतियों को दूर कर सत्य वेद मत के प्रचार व प्रसार के लिये स्वामी दयानन्द जी ने वेद व समस्त वैदिक साहित्य की मान्यताओं को अपने विश्व प्रसिद्ध संसार के सर्वोत्तम ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश” में प्रस्तुत किया है। यह ग्रन्थ चौदह समुल्लासों में है। प्रथम दस समुल्लास में समस्त वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों को मण्डनात्मक रूप में प्रस्तुत किया गया है और बाद के चार सम्मुल्लासों में देश व विदेश में उत्पन्न अवैदिक व अविद्यायुक्त मतों की मिथ्या मान्यताओं की समीक्षा की है जिससे प्रबुद्ध व निष्पक्ष विद्वान सत्यासत्य का निर्णय कर सत्य को ग्रहण तथा असत्य का त्याग कर सकें। महाभारत काल के बाद संसार के सभी लोगों को सत्य व असत्य को जानने व सत्य को अपनाने का स्वामी दयानन्द का इस जैसा कार्य विश्व में पूर्व समय में कभी देखने में नहीं आया जब किसी धर्म प्रचारक ने सत्य व असत्य की चर्चा कर सत्य को अपनाने का आग्रह किया हो। स्वामी दयानन्द जी की सबसे बड़ी देनों में से एक देन यह भी है कि उन्होंने सृष्टि के आरम्भ में सृष्टिकर्ता ईश्वर द्वारा प्रदत्त वेदों के ज्ञान से ही परिचित नहीं कराया अपितु वेदों के संस्कृत व हिन्दी में सत्य अर्थ व भावार्थ भी हमें प्रदान किये हैं। वेद ईश्वरीय ज्ञान है, इसे उन्होंने परम्परागत विचारों तथा तर्क व युक्ति से भी सिद्ध किया है। वेदों का ज्ञान ही मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त कराता है। वेदेतर मतों में फंस कर मनुष्य अविद्या से ग्रस्त होता है। उसे भक्ष्य व अभक्ष्य तथा ईश्वर की सही उपासना का ज्ञान नहीं होता और उसका मानव अनमोल अमृत तुल्य जीवन नष्ट हो जाता है।

स्वामी दयानन्द जी की प्रमुख देनों में एक देन पंचमहायज्ञ विधि भी है जिसके अन्तर्गत ही सन्ध्या आती है। सन्ध्या ईश्वर का ध्यान व उपासना को कहते हैं। यह सन्ध्या की विधि भी वेद तथा बुद्धि संगत है जिसके परिणाम से आत्मा व मनुष्य जीवन की उन्नति होने सहित हमारा परजन्म भी सुखदायक व श्रेष्ठ मनुष्य योनि में जन्म धारण कराने वाला बनता है। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में ईश्वर के एक सौ से अधिक नामों की व्याख्या कर हिन्दू जगत में फैले अनेक देवता व ईश्वर एवं देवता शब्दों की एकता के सिद्धान्त को भी निर्मूल कर सभी देवताओं को एक ईश्वर के उसके गुण-कर्मानुसार नाम बताकर प्रतिपक्षियों व सभी विरोधियों की आलोचनाओं को समाप्त कर दिया। वर्णव्यवस्था का सत्यस्वरूप भी सत्यार्थ प्रकाश में दृष्टिगोचर होता है। देश की स्वतन्त्रता का सूत्र व सिद्धान्त भी स्वामी दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश के आठवें समुल्लास में बताया है। उन्होंने किसी भी अच्छे से अच्छे विदेशी राज्य से स्वदेशी वैदिक विद्वानों के राज्य को सर्वोत्तम व देशवासियों के लिये पूर्ण सुखदायक व उन्नति कराने वाला कहा है। सम्भवतः उनके यही विचार देश की स्वतन्तत्रता के आधार बने हैं। स्वामी जी ने सत्याचरण को ही धर्म बताया है। देश व संसार में जितने भी मत-पन्थ-सम्प्रदाय हैं, जिन्हें लोग धर्म के नाम से सम्बोधित करते हैं, वह धर्म नहीं अपितु मत व पन्थ ही हैं, ऐसी उनकी तर्कपूर्ण धारणा थी।

धर्म तो संसार में केवल एक है और वह ईश्वरीय ज्ञान वेद की शिक्षा व आज्ञाओं का अनुसरण व पालन करना ही है। स्वामी दयानन्द ने स्त्री पुरुषों के प्रति भेदभाव का भी विरोध किया और बताया कि सुसंस्कृतज्ञ नारी का स्थान समाज व देश में पुरुषों से भी ऊंचा है। वेदों सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन करने यह भी ज्ञात होता है कि जहां कौशल्या देवकी जैसी नारियां तथा दशरथ, वसुदेव तथा कर्षनजी तिवारी जैसे पिता होते हैं वहीं राम, कृष्ण और दयानन्द जैसी सन्तानें होती हैं जिनसे देश, धर्म संस्कृति गौरवान्वित होती है। स्वामी दयानन्द जी शिक्षा व वेदाध्ययन का विधान करने सहित वैदिक शिक्षा को सबके लिये अनिवार्य भी करते हैं। वेद पढ़कर ही मनुष्य मननशील व ज्ञानशील होता है। वेद का अर्थ ही ज्ञान है। वेद ज्ञान रहित मनुष्य अज्ञानी ही कहा जा सकता है। किताबी ज्ञान से कोई विद्वान नहीं होता अपितु वेदों का अध्ययन कर वैदिक शिक्षाओं के अनुसार जीवन धारण कर ही मनुष्य सही अर्थों में मनुष्य व विद्वान होता है। वेद और ऋषि दयानन्द की विचारधारा को अपनाकर ही देश, समाज व विश्व में सुख व शान्ति हो सकती है। स्वामी जी से एक बार किसी व्यक्ति ने पूछा कि समाज व देश में पूर्ण सुख, शान्ति व उन्नति कैसे हो सकती है? इसका उत्तर उन्होंने यह कहकर दिया था कि जब सब लोगों का एक भाव, एक मत, एक सुख-दुःख होगा, सभी लोग ज्ञानी, पक्षपात रहित, स्वार्थरहित, वेदों में विश्वास रखने वाले आस्तिक होंगे तभी यह समाज, देश व विश्व सुख व शान्ति का धाम बन सकता है। स्वामी दयानन्द जी की यदि देनों पर समग्रता से विचार किया जाये तो एक पूरा ग्रन्थ बन सकता है। मनुष्य जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जिस पर स्वामी दयानन्द जी ने विचार कर उसका वेदों के अनुसार समाधान न किया हो और जो मनुष्य व प्राणीमात्र के लाभप्रद न हो। आईये, सत्यार्थप्रकाश और वेद सहित वैदिक साहित्य दर्शन, उपनिषद, प्रक्षेप रहित मनुस्मृति, रामायण एवं महाभारत आदि का अध्ययन कर हम अपनी आध्यात्मिक एवं सांसारिक उन्नति करें। इस संसार में सुख भोंगे, परजन्म में भी उन्नति कर श्रेष्ठ मनुष्य योनि व सुखों को प्राप्त हों और कर्मानुसार मोक्ष की प्राप्ति व मोक्ष के निकट पहुंच सकें। महर्षि दयानन्द ने संसार को इतना कुछ दिया है कि उतना उनके पूर्व व बाद के किसी मनुष्य या महापुरुष ने नहीं दिया है। सारा संसार उनका ऋणी है। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य