लघुकथा

लघुकथा – खज़ाना

“पाँच सौ और हजार की नोटें बंद हो गयीं माँ, दो दिन बाद ही बैंक खुलेगा | तब इन्हें बदलवा पाऊँगा।” फोन पर बेटे से यह सुनते ही दीप्ती का चेहरा पीला पड़ गया |
दो दिन कैसे करेगा ! यह पूछने के बजाय वह जल्दी से फोन रख बदहवास सी अलमारी की सारी साड़ियाँ निकालकर पलंग पर फेंकने लगी | पुरानी रखी साड़ियों की तहों में से हरी-लाल नोटों को मुस्करातें देखते ही सूरजमुखी-सा खिलने वाला दीप्ती का चेहरा मुरझाए फूल-सा हो जाता था |
फिर अचानक कुछ याद आते ही रसोई में जा पहुँची | दाल-चावल के सारे ड्रम उसने पलट दिए | चावल के ढ़ेर से झांकते कड़क नोट उसको मुँह चिढ़ा रहे थे। ड्रम और मसालों के डिब्बों से निकले नोट इक्कट्ठा करके फिर से कमरे में आ गयी |
अलमारी में बिछे अख़बारों के नीचे भी उसने नजर दौड़ाई | अखबार हल्का-सा उठाते ही लम्बवत लेटे नोट खिल उठते | पूरा अखबार उठाते ही बिछे सारे नोट हौले से अखबार के साथ अठखेलियाँ करने लगे |
कल तक जिन्हें देखकर वह ठंडक पाती थी आज सरकार पर उबल पड़ी | रसोई और अलमारी से सारे नोट इक्कट्ठे होते ही आश्चर्य कर वह बुदबुदा उठी – “इतना रुपया था मेरे पास |”
चार दिन पहले ही तो पतिदेव से यह कहकर पैसे मांगे थे कि पैसे नहीं हैं | पति जब-तब ओवरटाइम करके उसके हाथ में रुपयें धर देता था |
“ये सारी कड़क नोट अब हमारे पति-पत्नी के रिश्तें में खटास पैदा कर देंगी |” भुनभुनाई वह |
“क्या हुआ दीप्ती ! सोई नहीं अब तक ?” आँखे मिलमिलाते हुए पति ने कहा |
अचानक पति को सामने खड़ा देख वह हड़बड़ा गई |
“अरे वाह ! तू तो बड़ी धनी है भई !” आँख खुलते ही आश्चर्य से पति की आँखे फ़ैल गयीं |
“आपसे छुपाकर रखा मेरा ख़जाना आज खोटा निकल गया जी !”
“परिवार के गाढ़े वक्त के लिए ही तो जमा करके रखी है न ! फिर खोटा कैसे हो सकता है भला !! दो महीने का समय है | मैं सारी बदलवाकर तेरा ख़जाना फिर से खरा कर दूँगा |”
“गुस्सा नहीं हैं आप ?”
“अरे पगली ! गुस्सा क्यों होऊँगा ! अपने लिए थोड़ी इक्कठा किया है तूने ! मुझे पता होता कि तू लाखों रखी है तो मैं हीरे का हार ही गढ़वा देता तेरे लिए |”
विस्तर पर बिखरा खोटा-ख़जाना छोड़, पिता द्वारा खोजा गया खरा-ख़जाना से लिपट गयी वह |
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सविता मिश्रा ‘अक्षजा’
आगरा
2012.savita.mishra@gmail.com

*सविता मिश्रा

श्रीमती हीरा देवी और पिता श्री शेषमणि तिवारी की चार बेटो में अकेली बिटिया हैं हम | पिता की पुलिस की नौकरी के कारन बंजारों की तरह भटकना पड़ा | अंत में इलाहाबाद में स्थायी निवास बना | अब वर्तमान में आगरा में अपना पड़ाव हैं क्योकि पति देवेन्द्र नाथ मिश्र भी उसी विभाग से सम्बध्द हैं | हम साधारण गृहणी हैं जो मन में भाव घुमड़ते है उन्हें कलम बद्द्ध कर लेते है| क्योकि वह विचार जब तक बोले, लिखे ना दिमाग में उथलपुथल मचाते रहते हैं | बस कह लीजिये लिखना हमारा शौक है| जहाँ तक याद है कक्षा ६-७ से लिखना आरम्भ हुआ ...पर शादी के बाद पति के कहने पर सारे ढूढ कर एक डायरी में लिखे | बीच में दस साल लगभग लिखना छोड़ भी दिए थे क्योकि बच्चे और पति में ही समय खो सा गया था | पहली कविता पति जहाँ नौकरी करते थे वहीं की पत्रिका में छपी| छपने पर लगा सच में कलम चलती है तो थोड़ा और लिखने के प्रति सचेत हो गये थे| दूबारा लेखनी पकड़ने में सबसे बड़ा योगदान फेसबुक का हैं| फिर यहाँ कई पत्रिका -बेब पत्रिका अंजुम, करुणावती, युवा सुघोष, इण्डिया हेल्पलाइन, मनमीत, रचनाकार और अवधि समाचार में छपा....|