धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

वैदिक धर्म ही धर्म है और इतर विचारधारायें मत-मतान्तर, पंथ व सम्प्रदाय हैं

संसार में अनेक मत-मतान्तर हैं परन्तु सब अपने आप को धर्म की संज्ञा देते हैं। अंग्रेजी भाषा में धर्म का पर्यायवाची शब्द नहीं अतः अंग्रेजी में धर्म व मत-मतान्तरों सबको रिलीजन कहा जाता है। रिलीजन में मत, पन्थ व सम्प्रदाय सभी मत आते हैं परन्तु धर्म इनसे भिन्न सत्ता है। अंग्रेजी भाषा की  उत्पत्ति भारत में नहीं हुई। जिस देश में अंग्रेजी भाषा की उत्पत्ति हुई हैं वहां उस समय व वर्तमान में भी वेद व वेद की शिक्षाओं का लोगों विशेषतः ईसाई मत के आचार्यों को भली प्रकार से ज्ञान नहीं था और न अब भी है। इसका कारण तब व अब वेदों का अध्ययन न किया जाना है। यूरोप व अन्य देशों के ईसाई बन्धु ईसाई मत की पुस्तक बाइबिल को ही रिलीजन व धर्म मानते हैं। वास्तिविकता यह है बालबिल की शिक्षाओं और वेद तथा वेद आधारित दर्शन तथा उपनिषद सहित अन्य वैदिक ग्रन्थों में धर्म विषयक जो प्रमुख सिद्धान्त, मान्यतायें व नियम आदि हैं उनका ज्ञान पश्चिमी जगत के लोगों को पूर्णतया न तो है और न वह उसे मानते ही हैं। धर्म मनुष्य जीवन में मनुष्यों द्वारा धारण करने वाली शिक्षाओं, मान्यताओं, सिद्धान्तों व गुणों को कहते हैं। सभी सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों का ग्रन्थ एक ही है और उसका नाम वेद है। वेदों के प्रामाणिक व मूर्धन्य विद्वान महर्षि दयानन्द हुए हैं जिन्होंने वेदों के अपने व्यापक ज्ञान के आधार पर घोषणा की है कि ‘वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों (वा मनुष्य मात्र) का परम धर्म है।’ धर्म शब्द मूलतः संस्कृत भाषा का शब्द है जिसका प्रयोग वैदिक सिद्धान्तों को धारण करने व व्यवहार करने को कहा व माना जाता है। वेद के अतिरिक्त जो व्यक्ति अपने मत के लिये धर्म शब्द का प्रयोग करता है वह उचित नहीं करता। हमारी दृष्टि में मत-मतान्तरों, पन्थ व सम्प्रदायों को धर्म कहना उचित नहीं है। यदि कोई ऐसा करता है तो वह स्वेच्छाचारी है और वह लोगों को गुमराह करता है।

वैदिक धर्म क्या है? इसका उत्तर है कि सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने अमैथुनी सृष्टि की। सभी स्त्री व पुरुष युवा अवस्था में उत्पन्न किये गये थे। मनुष्य को अपने कर्तव्यों को जानने व उनका निर्वाह करने के लिये ज्ञान की आवश्यकता थी। अमैथुनी सृष्टि में माता-पिता, गुरु व आचार्य-गण विद्यमान नहीं थे। केवल एक ईश्वर ही ज्ञानवान् सत्ता थी। वह सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी व सर्वज्ञ होने से ज्ञान दे सकता था। उसका मनुष्यों को जिनको स्वयं बनाया था व अब भी बनाता है, ज्ञान देना असम्भव नहीं था। गुरु-शिष्य, माता-पिता व सन्तान अलग-अलग चेतन और अल्पज्ञ सत्तायें होती हैं। जब माता-पिता व गुरु अपनी सन्तान व शिष्यों को भाषा व कर्तव्यों का बोध करा सकते हैं तो ज्ञानमय सर्वज्ञ सत्ता सर्वान्तयामी परमेश्वर व्याप्य जीवात्माओं वा मनुष्यों को ज्ञान क्यों नहीं दे सकता? हम बहुत सी गुप्त बातों को दूसरे व्यक्तियों के कान में बहुत धीरे से बोल कर बताते हैं जिसे पास के लोग सुन नहीं सकते। हम जिसके कान में बोलते हैं वह सुनता व समझ जाता है। इसी प्रकार से परमात्मा सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी होने से सभी मनुष्यों के कानों तथा आत्मा के भीतर भी विद्यमान है। अतः उसे बोल कर कहने की आवश्यकता नहीं है। वह आत्मा में ही प्रेरणा कर देता है और सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न ऋषि ईश्वर की प्रेरणा को जान लेते हैं।

हम एक उदाहरण देना चाहते हैं। कई बार विद्यार्थी पढ़ी हुई कुछ बातों को भूल जाता है। उसे वह बातें याद नहीं आती। वह अपने दिमाग पर जोर डालता है परन्तु उसे उनकी स्मृति नहीं हो पाती। कुछ समय बाद अनायास उसे वह बात याद आ जाती है। उसे उस भूली बात को कौन बताता है? इसका उत्तर एक ही है कि मनुष्य के भीतर आत्मा में परमात्मा का वास है। वह उसकी आत्मा में प्रेरणा करता है। उसे बोल कर बताने की आवश्यकता नहीं पड़ती। बोल कर अपने से भिन्न मनुष्य को बताया जाता है परन्तु जो आत्मा के भी भीतर विद्यमान हो, उस ज्ञानवान सत्ता को उस ज्ञान को मनुष्य को बोल कर नहीं अपितु प्रेरणा देकर बता सकता है। इसी प्रकार से परमात्मा ने चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान दिया। परमात्मा द्वारा वेदों का ज्ञान देने से ऋषियों ने उस ज्ञान को शब्द, अर्थ व सम्बन्ध सहित जान लिया। यह वेद ज्ञान ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद के रूप में उपलब्ध है।

महर्षि दयानन्द ने संस्कृत में रचित वेदज्ञान का संस्कृत एवं हिन्दी भाषाओं में अर्थ व भावार्थ कर हमें उपलब्ध कराया है। हम इसे पढ़ सकते हैं और वेदों के अर्थ जान सकते हैं। चार वेदों में ज्ञान, कर्म व उपासना का पूर्णता से ज्ञान दिया गया है। ईश्वर, जीवात्मा प्रकृति का पूर्ण ज्ञान वेदों से उनके व्याख्या ग्रन्थ मुख्यतः दर्शन उपनिषदों से ही उपलब्ध होता है। किसी मत व सम्प्रदाय के ग्रन्थ में ईश्वर, जीवात्मा तथा सत्व, रज व तम गुणों वाली त्रिगुणात्मक प्रकृति का ज्ञान उपलब्ध नहीं होता। सभी मत-मतान्तरों में जो कुछ सत्य बातें व सिद्धान्त हैं वह सर्वप्राचीन होने से वेदों से ही वहां पहुंचे हैं। उन ग्रन्थों में जो अविद्यायुक्त बातें व कथन है वह सब उन मतों व उनके आचार्यों के अपने है। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के अन्तिम चार समुल्लासों में देश व संसार के सभी मतों की समालोचना कर इस तथ्य को प्रस्तुत व सिद्ध किया है। ईश्वर, जीव, प्रकृति व सृष्टि का जो सत्यस्वरूप है उसका वैसा ही चित्रण वेदों में हुआ है। वेदों का ज्ञान बुद्धि, तर्क, युक्ति व विज्ञान के नियमों के अनुकूल है। ऐसा नहीं है कि पृथिवी गोल है और वेदों में उसे चपटी या अन्यथा बताया गया हो। दर्शन ग्रन्थों में शब्द को आकाश का गुण बताया गया है। क्या यह आधुनिक विज्ञान के सिद्धान्त के अनुरूप नहीं है?

वेद में ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति व सृष्टि का सत्यस्वरूप बताकर मनुष्य का एक कर्तव्य ईश्वर की उपासना को बताया गया है। मनुष्य जहां रहता है वहां उसके द्वारा वायु, जल आदि का प्रदुषण होता है। अतः वेदों की आज्ञा है कि प्रत्येक मनुष्य को अग्निहोत्र यज्ञ करना चाहिये जिससे वायु व जल की शुद्धि होती है। वेद यह भी बताते हैं माता, पिता, आचार्य, गुरु, उपाध्याय तथा विद्वान वानप्रस्थी एवं संन्यासी अतिथियों का भी सम्मान करें व श्रद्धापूर्वक उनकी सेवा करें। पशु-पक्षियों आदि प्राणि जगत के प्रति भी हमारा प्रेम व अहिंसा का भाव होना चाहिये। पशु की हत्या या मांसाहार में सहायक होने वाले व्यक्ति धार्मिक कदापि नहीं हो सकते। वह ईश्वर की व्यवस्था में बाधक हैं। इसका कारण यह है कि परमात्मा ने जिन कारणों से पशु-पक्षियों को बनाया है, मांसाहारी मनुष्य उस उद्देश्य को पूरा करने में बाधा पहुंचाते हैं जिससे उनके जीवन का उद्देश्य पूरा नहीं हो पाता। इसलिये मांसाहारी मनुष्य मारे गये पशुओं के प्रति हिंसा करके व दूसरों से करवाकर उनके और ईश्वर के भी अपराधी सिद्ध होते हैं। वेद भूमि को सब मनुष्यों की माता बताते हैं और सभी मनुष्य भूमि माता के पुत्र व पुत्रियां हैं। हमें अपनी माता के समान ही अपनी मातृभूमि को गौरवरपूर्ण स्थान व महत्व देना चाहिये। निर्दोष प्राणियों व मनुष्यों के प्रति हिंसात्मक भावनायें रखना मनुष्यता नहीं है। वेद सत्य के ग्रहण करने और असत्य के त्याग की प्रेरणा भी देते हैं। वेदों के आधार पर महाराज मनु ने धर्म के दस लक्षण बतायें हैं। ये हैं धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, सद्बुद्धि, विद्या, सत्य व क्रोधरहित शान्त स्वभाव को धर्म का लक्षण कहा गया है। इनका पालन प्रत्येक मनुष्य चाहे वह किसी मत व सम्प्रदाय का क्यों न हो, करना चाहिये। आजकल के मनुष्य स्वयं को धार्मिक कहते हैं परन्तु उनके द्वारा धर्म के इन लक्षणों का पालन होता दिखाई नहीं देता।

वेद में किसी अमनुष्योचित अवगुण को अपनाने व कार्य करने की प्रेरणा नहीं है। स्वामी दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थ लिखकर वेदों के महत्व को जन-जन में प्रचारित किया है। आश्चर्य है कि संसार के मत-मतान्तरों के लोग अपने-अपने अविद्यायुक्त ग्रन्थों का तो अध्ययन व आचरण करते हैं परन्तु ईश्वर के बनाये व मनुष्य के जीवन का सर्वांगीण विकास करने वाले वेद का अध्ययन नहीं करते। इससे बड़ा संसार में आश्चर्य अन्य कुछ नहीं हो सकता। संसार में जो पतन देखते हैं उसका एक प्रमुख कारण वेदों का अध्ययन व आचरण न करना भी अनुभव होता है। वेद तो मनुष्य को मनुष्य बनने अर्थात् मननशील होकर सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करने की प्रेरणा करते हैं। वेद प्राणी मात्र पर दया करने और उनके जीवन को सुखी व निष्कंटक बनाने की प्रेरणा करते हैं। वेदों का अध्ययन करने से यह भी ज्ञात होता है कि वेद-विहित कर्म पुण्य कर्म हैं जिनसे हमारा यह जीवन तथा इनके प्रेरक पुण्य कर्मों को करके हम इनसे बने प्रारब्ध से भावी जीवन में श्रेष्ठ व सुखी होते हैं। ऐसे महत्वपूर्ण ग्रन्थों का मनुष्यों द्वारा अध्ययन न करना हमें अज्ञानता व स्वार्थपन का उदाहरण प्रतीत होता है।

धर्म को मनुष्य नहीं अपितु परमात्मा आरम्भ व प्रचलित करता व चलाता है। मनुष्यों को सत्यासत्य का बोध परमात्मा के कराने से ही होता है। सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने वेदों का ज्ञान देकर ही धर्म का बोध कराया था। वेदों की ही शिक्षा हमारे ऋषि-मुनियों तथा विद्वानों ने देश-देशान्तर में फैलायी थी। इस कारण विश्व में सत्य व ज्ञान का प्रकाश हुआ था। बाद में अविद्या व अज्ञान बढ़ने से वहां के विचारशील मनुष्यों ने मत-मतान्तर चलाये। मनुष्य जो भी हो अल्पज्ञ होता है। उनमें बुद्धि व ज्ञान की दृष्टि से न्यूनाधिक तो हो सकता है परन्तु कोई मनुष्य, जो माता-पिता से पोषित होकर जन्म लेता है, वह अल्पज्ञ ही होता है। जन्म लेने वाले की मृत्यु अवश्य होती है और जन्म व मरण में होने वाला दुःख उसके कर्मों का ही परिणाम होता है। यह सिद्धान्त सभी मनुष्यों व महापुरुषों पर भी लागू होता है। अल्पज्ञ का अर्थ अल्प-ज्ञान वाला होता है। अतः वेद से दूर रहने वाले मनुष्य ही नहीं अपितु योगी और वेदों के ज्ञानी ऋषियों व मनुष्यों की रचनाओं व कृतियों में भी भूलवश अशुद्धिया या त्रुटियां होना स्वाभाविक हैं। इसी कारण ऋषि दयानन्द सरस्वती जी ने सिद्धान्त दिया है कि वेदानुकूल सिद्धान्त व मान्यतायें ही सत्य व आचरणीय होती हैं और जो वेदानुकूल नहीं है वह ऋषि अथवा किसी मत-मतान्तर के आचार्य व महापुरुष द्वारा कही व लिखी होने पर भी मान्य व आचरणीय नहीं होती। इससे यह सिद्ध है कि धर्म ईश्वर द्वारा प्रचलित होता है। वेद ही धर्म ग्रन्थ हैं और वेदानुकूल मान्यतायें चाहे वह किसी भी ग्रन्थ मे हों, वह परतः प्रमाण होने से मान्य हैं तथा वेद विरुद्ध मान्यताओं का प्रमाण न होने से वह मानने व आचरण योग्य नहीं है। इन विचारों व मान्यताओं को मानने से ही विश्व व समाज में शान्ति हो सकती है।

वर्तमान में संसार के सभी देशों में भौतिक प्रगति हो रही है। मनुष्य वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन में ध्यान न देकर अल्पज्ञ होने के कारण ईश्वर और आत्मा के सत्यस्वरूप को भूलकर भौतिक सुखों के पीछे दौड़ रहा है जिसका परिणाम वर्तमान व परजन्म में दुःख होना विदित होता है। अतः जीवन को उन्नति देने, परजन्म में भी श्रेष्ठ मनुष्य शरीर प्राप्त करने, मोक्ष की ओर अग्रसर होकर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति के लिये सभी मनुष्यों को वेद की शरण में आकर व सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों की सहायता से वेदों का अध्ययन व उसकी सत्य निर्भ्रान्त शिक्षाओं का आचरण कर जीवन को सफल बनाना चाहिये। हमने इस लेख में जो चर्चा की है, उससे यदि पाठकों को कुछ लाभ होता है तो हमारा परिश्रम सफल होगा। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य