धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

महाभारतकाल के बाद ऋषि दयानन्द ही ने सर्वप्रथम सर्वांगीण सद्धर्म का प्रचार किया

धर्म सत्याचरण को कहते हैं। इसके लिए मनुष्य को व्यापक रूप से सत्य व असत्य का ज्ञान होना आवश्यक है। सत्य वह है जिसकी यथार्थ सत्ता है। सत्ता वाली वस्तु के सत्य गुणों को जानना व मानना तथा उसके विपरीत जो गुण उस पदार्थ व सत्ता में नहीं हैं, उनको न मानना आवश्यक है। ऐसा करके ही हम सत्य ज्ञान को प्राप्त कर धर्म मार्ग पर चल सकते हैं। ईश्वर व जीवात्मा सहित सृष्टि वा जगत की सत्ता है और इनके अपने-अपने गुण, कर्म व स्वभाव हैं। इन गुण, कर्म व स्वभाव को यथार्थ रूप में जानना तथा सत्य के विपरीत किसी गुण व मान्यता को स्वीकार न करना ही धर्म के मार्ग पर चलने के लिये आवश्यक है। यदि हम ईश्वर व जीवात्मा के सत्य गुणों को जानकर, उन गुणों के अनुरूप कार्य व व्यवहार नहीं करेंगे तो हम धर्म पालन करने में सफल नहीं हो सकते। महाभारत युद्ध की समाप्ती के बाद पूरी धरती पर विडम्बना यह हुई कि लोग सृष्टि के आरम्भ से वेद प्रतिपादित सब सत्य विद्याओं के आधार ग्रन्थ वेद सहित ईश्वर, जीवात्मा व सृष्टि से सम्बन्धित सत्य तथ्यों व रहस्यों को भूल गये। वेद व ऋषियों के सत्य ज्ञान से दूर होकर उसके स्थान पर अविद्यायुक्त मन्तव्यों के अनुसार ईश्वर की मिथ्या भक्ति, उपासना व पूजा आदि कर अपने जीवनों को उन्नति व मोक्ष के मार्ग पर न चला कर भौतिक पदार्थों की प्राप्ति व उनके भोग में जीवन लगाने लगे। इससे मनुष्यों की आध्यात्मिक उन्नति पूर्णतया अवरुद्ध हो गई। आश्चर्य की बात तो यह है कि महाभारत काल के बाद देश देशान्तर में अनेक मतों व पन्थों की सृष्टि हुई परन्तु सब अपनी सत्य व असत्य मिश्रित मान्यताओं का आचरण करते रहे। उनमें से किसी को शंका नहीं हुई कि वह जो आचरण करते हैं व जिन मान्यताओं को स्वीकार करते हैं वह सत्य हैं भी या नहीं? मत-मतान्तरों की मान्यताओं के सत्य न होने का परिणाम यह हुआ कि आध्यात्मिक दृष्टि से उन्हें सत्य मार्ग, जो कि वेदपथ ही है, पर चलने का जो लाभ मिल सकता था उससे वह वंचित हो गये और आज भी न्यूनाधिक वही स्थिति बनी हुई है।

जब तक हम ईश्वर, जीव प्रकृति को यथार्थरूप में जानकर इसके अनुसार आचरण व्यवहार नहीं करेंगे तब तक हमारी सर्वांगीण उन्नति नहीं हो सकती। इसके लिये हमें सच्चे आध्यात्मिक गुरुओं की आवश्यकता है जो वेद के विद्वान व योगी हों तथा जिनका जीवन पवित्र विचारों सहित ईश्वर की प्राप्ति की साधना में लगा होने के साथ उनमें देश, समाज सहित मनुष्य व प्राणी मात्र की उन्नति व सुख एवं कल्याण की कामना भी हो। इस अभाव की पूर्ति को सबसे पहले महर्षि दयानन्द ने जाना व स्वयं ऋषि, योगी व वैदिक विद्वान बनकर वेद की सत्य मान्यताओं का जन-जन में प्रचार करने की भावना से युक्त होकर अपने जीवन का एक-एक पल सत्य के प्रचार व विस्तार में लगाया। उन्होंने प्रायः समस्त भारत भूमि का भ्रमण कर उन्हें उपलब्ध हुए सभी आध्यात्मिक व सामाजिक ज्ञान के ग्रन्थों को पढ़ा, जाना व समझा और जनता का हित व कल्याण करने के लिए देश भर में घूम घूम कर मौखिक प्रचार सहित ग्रन्थ लेखन के द्वारा लोगों की प्रसुप्त आत्माओं को झकझोरा। उन्होंने विपक्षी व विधर्मियों से सत्य मत के निर्णय व प्रचार के लिये वार्तालाप व शंका समाधान आदि करने सहित शास्त्रार्थ भी किये। सत्य ज्ञान वेद व सच्चे धर्म वैदिक धर्म के प्रचार के लिये ही उन्होंने 10 अप्रैल, 1875 को मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की। आर्यसमाज ने विगत 143 वर्षों में मनुष्य जीवन की उन्नति के सभी क्षेत्रों में अपूर्व महत्वपूर्ण कार्य किया है जिसकी किसी सामाजिक व धार्मिक संस्था से कोई समता नहीं है।

               महाभारतकाल के बाद और महर्षि दयानन्द के सामाजिक जीवन में प्रवेश से पूर्व संसार में सत्य-सनातन वैदिक-धर्म लुप्त प्रायः हो चुका था और इसके स्थान पर देश व विदेश में अविद्या पर आधारित मत-मतान्तर प्रचलित थे। ईश्वर व जीवात्मा विषयक सत्य ज्ञान भी प्रायः लुप्त हो चुका था और इसका स्थान अविद्या व भ्रान्तिपूर्ण मान्यताओं ने ले लिया था। लोगों ने ईश्वर की अष्टांग योग पद्धति से उपासना को भूलकर व छोड़कर अवैदिक रीति से मूर्तिपूजा आदि द्वारा तथा ईश्वर को किसी एक स्थान विशेष मुख्यतः आकाश का वासी समझकर उसकी प्रार्थना व उपासना आदि आरम्भ कर दी थी जिससे उन्हें उपासना के लाभ प्राप्त नहीं होते थे। यह स्थिति अनेक शताब्दियों से चली आ रही थी। सभी मतों के अनुयाया और उनके आचार्य इस भ्रान्तिपूर्ण अविद्यायुक्त कार्य को बिना सोच-विचार किये जा रहे थे। वह इसकी सत्यता व यथार्थता को जानने के लिये प्रयत्न ही नहीं करते थे। यदि कभी किसी को भ्रान्ति हुई भी होगी तो उनमें यह साहस नहीं होता था कि वह अपने मत-मतान्तर के आचार्यों से इस बारे में शंका समाधान कर सके। आज भी कुछ मतों की यही स्थिति बनी हुई हैं। उनके अनुयायी अपने आचार्यों से शंका समाधान करने का साहस ही नहीं कर पाते। वास्तविकता यह भी है कि मत-मतान्तरों की पुस्तकों में मनुष्य में उठने वाली सभी शंकाओं का सत्य व विद्यायुक्त उत्तर विद्यमान नहीं है।

ऋषि दयानन्द ने ईश्वर व जीवात्मा के सत्यस्वरूप को जानने के लिये देश भर में घूम कर अन्वेषण किया। मनुष्य मरता क्यों है और जन्म का क्या कारण होता है, मृत्यु पर विजय कैसे पायी जा सकती है, जीवात्मा का पुनर्जन्म होता है या नहीं, होता है तो क्यों व किस लिये होता है, कर्म-फल सिद्धान्त व मोक्ष क्या है और इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है? आदि इनेक प्रश्नों के उत्तर जानने के लिये अपूर्व पुरुषार्थ किया जिसकी उपमा विश्व के साहित्य में कहीं नहीं मिलती। उन्होंने इन सब बातों के यथार्थ उत्तर जानकर भी सन्तोष नहीं किया अपितु इससे सभी को लाभान्वित करने के लिये संसार के सभी सुखों का त्याग कर जन-जन को इन सभी बातों का ज्ञान कराने के लिये सतत व अविकल प्रचार किया। लोग उनके जीवन काल सहित उनकी मृत्यु के बाद भी धर्म विषयक सत्य ज्ञान व सत्य मान्यताओं से परिचित हो सकें, इसके लिये उन्होंने वैदिक मान्यताओं पर आधारित ‘‘सत्यार्थप्रकाश” ग्रन्थ की रचना एवं प्रकाशन किया। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में उन्होंने समस्त वेदों की मान्यताओं का विवरण विषयानुसार प्रस्तुत किया है और सभी मनुष्यों के मन में उठने वाली सभी शंकाओं व प्रश्नों को स्वयं उपस्थित कर उनका समाधान प्रश्नोत्तर शैली में प्रस्तुत किया है। शायद ऐसा कोई प्रश्न नहीं है जो मनुष्य के मन-मस्तिष्क में उत्पन्न होता हो और जिसका उत्तर ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ में सम्मिलित न किया हो।

स्वामी दयानन्द जी ने विभिन्न मतों के आचार्यों से जो शास्त्रार्थ किये और शंका समाधान किया उसका समस्त विवरण भी उपलब्ध है जिसे आर्यसमाज के विद्वानों वा प्रकाशकों ने पुस्तकाकार प्रकाशित किया है। सत्यार्थप्रकाश सहित ऋषि दयानन्द ने अन्य अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन किया है जिसमें ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ऋग्वेद-यजुर्वेद भाष्य, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि प्रमुख ग्रन्थ हैं। ऋषि दयानन्द ने जितने ग्रन्थ लिखे हैं उतने ग्रन्थ किसी एक मत, पन्थ व सम्प्रदाय के आचार्य ने नहीं लिखे। उन्होंने देश व विश्व में वेदों का जितना प्रचार किया उतना उनसे पूर्व किसी ने नहीं किया। सत्यधर्म निणर्यार्थ उनकी एक देन यह भी है कि उन्होंने सत्यार्थप्रकाश के 11 से 14 तक के 4 समुल्लासों में पृथिवी पर विद्यमान प्रायः सभी मतों व पन्थों की समीक्षा व समालोचना प्रस्तुत की है। ऋषि दयानन्द ने जो काम किये हैं उन्हें देखकर यह कहा जा सकता है कि महाभारत के बाद ऋषि दयानन्द ही ऐसे महापुरुष, ऋषि, योगी, ज्ञानी, वेदों के प्रचारक व वेदमन्त्रों के सत्य अर्थों के जानकार प्रकाशक हुए हैं जिन्होंने अपने जीवन में विद्या की पराकाष्ठा को प्राप्त कर उसका अमृतपान जन-जन को कराया है। इसलिये संसार के सभी लोगों का कर्तव्य है कि जिस ऋषि ने सभी मनुष्यों के लिये यह महत् अपूर्व कार्य किया उसके प्रत्येक शब्द को पढ़े, उसके रहस्यों वा अर्थों को जाने और उसे अपने जीवन में धारण कर अपना अन्यों का भी उपकार कल्याण करें। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य