धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

आर्यसमाज और विज्ञान पर आर्य मनीषी पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय जी के उपयोगी विचार

आर्यसमाज के उच्च कोटि के विद्वान पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय जी (1881-1968) ने एक पुस्तक लिखी है जिसका नाम है इस्लाम और आर्य समाज’। इस पुस्तक का एक अध्याय है परमेश्वर’। इसी अध्याय से उनके धर्म एवं विज्ञान से सम्बन्धित कुछ विचारों को उपयोगी जानकर हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। यह पूरी पुस्तक पढ़ने योग्य है। इससे विषय से सम्बन्धित पाठकों को उपयोगी जानकारी प्राप्त होगी। इस पुस्तक के द्वितीय संस्करण का प्रकाशन गंगाप्रसाद उपाध्याय ट्रैक्ट विभाग, आर्यसमाज चौक, प्रयाग’ से सन् 1986 में हुआ था। अजिल्द पुस्तक का मूल्य 9 रुपये तथा सजिल्द का मूल्य 12 रुपये था। पुस्तक में कुल 132 पृष्ठ हैं।

आर्यसमाज ने कभी साइन्स का विरोध नहीं किया। वेद और वैदिक युग के ऋ़षि मुनि तो सायन्स के बड़े प्रेमी थे। यदि ऐसा न होता तो वे सार्वभौमिक (विश्वधारा) संस्कृति को विश्व भर में फैला न सकते। परन्तु पिछले कुछ समय में और विशेष कर महाभारत के पश्चात वैदिक संस्कृति का ह्रास हो गया और भ्रान्तिपूर्ण धारणायें प्रबल हो गईं। इसके कारण भारत के धार्मिक क्षेत्रों में सायन्स का विरोध हो गया। परन्तु आर्यसमाज अपने जन्म दिवस से ही सायन्स के प्रति विरोध को कम कर रहा है। आर्यसमाज का विचार है कि सृष्टि ईश्वर की रचना है, और कुदरत के कानून ईश्वर के कानून हैं। सायन्स वाले इन्हीं कुदरत के कानूनों का अन्वेषण करते हैं। इसका अर्थ यह है कि सायन्स-वेत्ता ईश्वर के कानूनों की खोज करते हैं।

सायन्स-वेत्ता अब किसी नियम की खोज करता है तो वह उस ईश्वरीय नियम की खोज करता है जो अनादि काल से चला आ रहा था। केवल लोगों को उसका ज्ञान न था। कोई विज्ञान नया नहीं है। उसकी खोज नई है। इस प्रकार जब सायन्स भी ईश्वरीय है और धर्म भी ईश्वरीय है तो सायन्स और धर्म का विरोध क्यों? इस विरोध का कारण है सायन्स और धर्म की वास्तविकता से ज्ञान का अभाव।

धर्माध्यक्षों ने एक ऐसे ईश्वर की कल्पना की है जो सृष्टि में उपलब्ध नहीं होता। सायन्स-वेत्ताओं को ऐसे ईश्वर का विरोध करना स्वाभाविक था। यह विरोध धर्म का विरोध नहीं है अपितु मिथ्या और कपोल-कल्पित धर्म का विरोध है। उदाहरण क लिये आर्यसमाज किसी ऐसे स्वर्ग या नरक को नहीं मानता जिसका कोई स्थान विशेष (नियत) है और न उसकी खोज हो सकती है। मुसलमान लोग ऐसे स्वर्ग या नरक को मानते हैं जिसका कोई भौगोलिक (दैशिक) अस्तित्व नहीं।   

पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय जी की यह पूरी पुस्तक ही अत्यन्त उपयोगी है। आजकल यह पुस्तक उपलब्ध नहीं है। प्रसिद्ध आर्य विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी द्वारा चार खण्डों में संकलित गंगाज्ञानसागर’ पुस्तक के एक खण्ड में यह पुस्तक समाविष्ट है, ऐसा हमारा अनुमान है। इस चार खण्डों वाले ज्ञानगंगासागर ग्रन्थ का प्रकाशन कुछ समय पूर्व प्रसिद्ध आर्य प्रकाशक श्री अजय आर्य द्वारा अपने प्रकाशन संस्थान विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली’ से हुआ है। पंडित गंगाप्रसाद उपाध्याय जी का समस्त साहित्य उच्च कोटि का होने से स्वाध्याय में रूचि रखने वाले धर्म प्रेमियों के लिए पठनीय है। यह भी बता दें कि प्रसिद्ध आर्य संन्यासी स्वामी डा. सत्यप्रकाश सरस्वती पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय जी के सुयोग्य पुत्र थे। स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती जी ने भी अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन किया है। हमने उन्हें प्रत्यक्ष देखा है तथा उनके धर्मोपदेशों सहित विज्ञान पर भी उनके व्याख्यान सुने हैं। अपनी युवावस्था में उनको सुनकर हम उनके व्यक्तित्व व प्रवचनों से विशेष रूप से प्रभावित हुए थे। चार वेदों का अंग्रेजी अनुवाद भी उनके द्वारा हुआ है जो सम्भवतः डीएवी कालेज संस्थान की ओर से प्रकाशित एवं प्रचारित किया जाता है। इति ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य