धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

जीवन की सफलता का आधार ज्ञान व पुरुषार्थ

मनुष्य जीवन हमें परमात्मा से पूर्वजन्म के प्रारब्ध को भोगने व नये कर्म कर दुःखों से मुक्ति प्राप्त करने के लिये मिला है। प्रारब्ध वह कर्म संचय है जो हमने पूर्वजन्मों में किये हैं परन्तु जिसका सुख व दुःख रूपी भोग अभी करना शेष होता है। योगदर्शन के एक सूत्र में कहा है कि प्रारब्ध के अनुसार ही हमें जाति, आयु व भोग की प्राप्ति होती है। जाति का अर्थ यहां मनुष्य व पशु, पक्षी आदि अनेक जातियों से है। समस्त मनुष्य जाति एक ही जाति है। इस मनुष्य जाति के दो भेद स्त्री जाति व पुरुष जाति किये जा सकते हैं। वर्ण और जाति दो अलग-अलग शब्द हैं। वर्ण का अर्थ है चुनाव करना। इसके लिये हमें अपनी योग्यता बढ़ानी होती है तभी हम इष्ट का चुनाव कर सकते हैं। यदि हम ज्ञान व बल में हीन हैं तो हम क्षत्रिय के काम न करने से क्षत्रिय नहीं बन सकते। सेना में भर्ती होने के लिये न्यूनतम शिक्षा व शारीरिक बल आदि का होना आवश्यक माना जाता है अन्यथा सैनिक व सैन्य अधिकारी नहीं बन सकते। अध्यापक व उपदेशक के लिये भी अपने विषय का ज्ञान व बोलने की कला आना आवश्यक होता है। एक धर्म विषयक लेखक के लिये भी धर्म का ज्ञान व लेखन का अभ्यास आवश्यक होता है। इसी प्रकार से वर्ण व्यवस्था जन्म पर आधारित न होकर मनुष्य के ज्ञान व कर्म अथवा पुरुषार्थ सहित उसकी क्षमता पर आधारित होती है। वर्तमान में समाज में जन्मना जाति व्यवस्था चल रही है। यह व्यवस्था अनुचित व अविवेक पूर्ण होने से त्याज्य है। वेदों व ऋषियों के ग्रन्थों उपनिषद, दर्शन आदि में इसका उल्लेख नहीं है। देश के विधान द्वारा इस पर रोक लगाई जानी चाहिये थी परन्तु इसका पोषण हो रहा है। इससे अनेक सामाजिक हानियां हुई हैं हो रही हैं। परमात्मा द्वारा बनाया गया मनुष्य समाज इस जन्मना जाति व्यवस्था से विघटित हो गया है। इसका लाभ विधर्मियों ने उठाया है। इसी से समाज में ऊंच-नीच का भाव तथा भेदभाव उत्पन्न होते हैं। परस्पर द्वेष उत्पन्न होता है। अन्याय व शोषण होता है। समाज व देश की उन्नति में बाधायें आती हैं। अतः यह तर्कसंगत एवं विवेकपूर्ण है कि समाज की व्यवस्था जन्मना जाति पर आधारित न होकर गुण, कर्म व स्वभाव पर होनी चाहिये। वेद और वैदिक साहित्य सहित ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज ने वर्ण व्यवस्थाका ही पोषण किया है तथा जन्मना-जातिवाद का विरोध किया है। ऐसा होने पर ही मनुष्य समाज में दुःख व शोक में कमी आयेगी और समाज में सुख व कल्याण की वृद्धि होगी।

मनुष्य का जन्म जीवात्मा के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये होता है। जीवात्मा का चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है। मोक्ष का अर्थ दुःखों की सर्वथा निवृत्ति होता है। दुःख के कारण पर विचार करें तो इसका कारण जन्म व मृत्यु सिद्ध होता है। यदि हमारा जन्म ही न हो तो फिर जीवात्मा को दुःख नही होगा। इस जन्म-मरण से छूटने का एक ही उपाय है कि जीवात्मा को इस जन्म-मरण से छुट्टी अर्थात मोक्ष प्राप्त हो जाये। शास्त्रों ने मोक्ष के साधन व उपाय बताये हैं। यजुर्वेद के एक मन्त्र में कहा गया है कि ईश्वर को जान लेने पर हीमनुष्य मृत्यु को पार कर सकता है। मृत्यु से दूर हो जाने का अर्थ है कि जन्म व मृत्यु से भी मुक्त होना। इसके लिये ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करना होगा। यह ज्ञान वेद सहित ऋषियों के ग्रन्थों उपनिषद, दर्शन, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों से होता है। अतः इनका अध्ययन करने से मनुष्य दुःख के कारणों व इससे मुक्त होने के साधनों को जानकर व उनका आचरण कर दुःखों से मुक्त हो सकता है।

मनुष्य का जीवात्मा आकार में परमाणु के तुल्य, चेतन, एकदेशी, ससीम, जन्म-मरणधर्मा तथा अल्पज्ञ होता है। मनुष्य को स्वाभाविक ज्ञान तो परमात्मा से प्राप्त है परन्तु उसे विशेष ज्ञान प्राप्त करने के लिये माता-पिता, आचार्य, शास्त्र आदि की आवश्यकता पड़ती है। मनुष्य जीवन में धर्म का ज्ञान व उसका पालन आवश्यक है। धर्म उसे कहते हैं जिसके ज्ञान व पालन से मनुष्य का सांसारिक जीवन तथा परलोक दोनों उन्नत व सफलता को प्राप्त होते हैं। धर्म के दस लक्षण प्रायः सभी को ज्ञात हैं। धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य, अक्रोध यह धर्म के दस लक्षण हैं। इनका पालन सभी मनुष्यों को करना चाहिये। इससे जीवन में लाभ होता है और सांसारिक जीवन में भी सफलता मिलती है। व्यवसाय आदि विषयक ज्ञान के साथ विद्या पढ़कर मनुष्य को अर्थ प्राप्ति के लिये भी पुरुषार्थ करना होता है। इसके लिये कृषि कार्य के अतिरिक्त अध्यापन, उपदेश, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, सेना, पुलिस, शासन, व्यापार आदि अनेक क्षेत्रों में मनुष्य अपनी सेवायें दे सकता है। इसके लिये भी कुछ अध्ययन व योग्यता प्राप्त करनी होती है। इसे प्राप्त कर मनुष्य को आजीविका हेतु अपनी योग्यता के अनुसार काम मिल जाता है। यदि मनुष्य में किसी कार्य का अच्छा ज्ञान है और वह स्वस्थ व बलवान है तथा उसका आचरण व चरित्र उत्तम है तो फिर वह जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकता है।

हम महापुरुषों के जीवन पर दृष्टि डालते हैं तो हमें उनमें ज्ञान, बल तथा आचरण के गुण ही प्रमुख दिखाई देते हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र जी, योगेश्वर कृष्ण, धनुर्धारी अर्जुन, आचार्य चाणक्य, ऋषि दयानन्द जी, सरदार पटेल, स्वामी श्रद्धानन्द जी आदि में हमें ज्ञान व अनुभव के साथ उनकी देश व समाज के प्रति भक्ति व निष्ठा सहित आत्म विश्वास, ईश्वर विश्वास तथा दृण इच्छा शक्ति व उसके अनुरूप आचरण ही मुख्य प्रतीत होता है। अतः इन उदाहरणों से हमें लाभ उठाना चाहिये तथा इन सभी महापुरुषों के गुणों व आचरणों को अपनाना चाहिये। मनुष्य जीवन के लिए जितना आवश्यक अभ्युदय अर्थात् सांसारिक उन्नति है उतना ही आवश्यक निःश्रेयस वा मोक्ष की प्राप्ति के लिये प्रयत्न किया जाना भी आवश्यक है। ऐसा न हो कि हम सांसारिक उन्नति में ऐसे खो जाये, जैसा कि आजकल प्रायः हो रहा है, यहां तक कि लोग पाप करने से भी डरते नहीं हैं, जिससे हमारा निःश्रेयस हमसे दूर चला जाये और हम भावी जीवन में नीच योनियों जहां दुःख ही दुःख हो, उसमें विचरण करें। यदि हम अपने चारों ओर पशु-पक्षियों व रोगियों आदि को देखकर अपने जीवन में सांसारिक जीवन के लिए पुरुषार्थ सहित निःश्रेयस के लिये ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र-यज्ञ, परोपकार, सुपात्रों को दान, वेद विद्या के प्रसार में सहायता तथा पीड़ितों की सेवा नहीं करते तो हमारा मनुष्य जीवन सफल नहीं कहा जा सकता।

हमारा सुझाव है कि सभी मनुष्य प्रतिदिन विचार करें कि क्या वह मनुष्य हैं? इसके लिये ऋषि दयानन्द जी द्वारा दी गई मनुष्य की परिभाषा पर उन्हें विचार करना चाहिये। इससे उन्हें उचित व अनुचित की प्रेरणा प्राप्त हो सकती है। महर्षि दयानन्द जी ने लिखा है मनुष्य उसी को कहना कि जो मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख-दुःख और हानि-लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं कि चाहे वे महा अनाथ, निर्बल और गुणरहित क्यो हों, उन की रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हो तथापि उस का नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उस को कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी भले ही जावें परन्तु इस मनुष्यपनरूप धर्म से पृथक् कभी होवे।’

हमने सफल जीवन में ज्ञान तथा पुरुषार्थ के महत्व को प्रस्तुत किया है। पुरुषार्थ में सद्कर्म और सदाचरण दोनों सम्मिलित है। हम आशा करते हैं कि पाठको को यह लेख प्रिय होगा। इति ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य