लघुकथा

लघुकथा – कोई बहाना नहीं चलेगा

बहुत प्रतीक्षा के बाद अभी-अभी पारिजात का छोटा-सा मैसेज आया था- ”मां मैं दो दिनों में पहुंच रहा हूं, आप और पापा पैकिंग करके रखिएगा.”
छोटे-से संदेश से मां का मन कहां भरता! लग रहा था, मैसेज आधे में ही पोस्ट हो गया था. वह उसके पुराने संदेशों में ही पारिजात को खोज रही थी. विचारों की लहर थी, कि न जाने कहां तक लहरा जाती थी.
”कितने चाव से मैंने उसका नाम पारिजात रखा था. मैंने सुना था- ”परिजात के वृक्ष की खासियत है कि जो भी इसे एक बार छू लेता है उसकी थकान चंद मिनटों में गायब हो जाती है. उसका शरीर पुन: स्फूर्ति प्राप्त कर लेता है.” मैं भी उसको छू लूंगी, तो मेरी थकान काफूर हो जाएगी. पारिजात की किशोरावस्था तक ऐसा हुआ भी था. लेकिन अब! अब थकान मिटाने के लिए किसको छुऊं? वह तो पहले पढ़ाई के लिए, फिर नौकरी के लिए अमेरिका चला गया था न! अब या तो उसकी तस्वीर है, या फिर मैसेज! क्या इन्हीं को छूकर संतोष करना पड़ेगा? मां ने नयनों के कोरों तक आए दो अश्रुकणों को वहीं रोक लिया था. मैसेज आने की संभावना अभी बनी हुई जो थी.
”पारिजात के दैवीय वृक्ष में साल में बस एक ही महीने में फूल खिलते हैं. मेरा पारिजात भी दिसंबर की छुट्टियों का एक महीना हमारे पास आता ही था. कितनी रौनक हो जाती थी उन दिनों घर में! उन्हीं दिनों सेवइयों की खीर भी बनती थी, पेठे का हलवा भी बनता था. पकवानों की खुशबू से पड़ोसियों का मन भी महक जाता था. कोई खाने वाला हो, तभी तो चीज बने न! वरना उम्र की इस दहलीज पर हम क्या बनाएं और कितना खाएं?” मां के कान मोबाइल की खनक पर थे.
”पारिजात के पेड़ से फूल झड़ते हैं तो वे पेड़ के करीब नहीं, बहुत दूर जाकर गिरते हैं, मेरा पारिजात मुझसे छिटक तो नहीं जाएगा!” मां के कान मोबाइल की खनक सुनने को बेताब थे.
इस बार मोबाइल की सुरीली खनक ने मां का मन खनका दिया-
”मां यह तुम्हारी बहू का संदेश है. मां जी, इस बार दहलीज लांघने का बहाना मत दीजिएगा, इस घर की दहलीज भी आपकी ही है. आप फेसबुक पर एक बार लाइक करती हैं, तो लाइक हो जाता है, दुबारा लाइक करती हैं, तो अनलाइक हो जाता है. बस आप एक बार वहां की दहलीज लांघकर बाहर आइए, यहां की दहलीज लांघकर अंदर आइए और अपनी पोती राधिका को भारतीय सुसंस्कार दीजिए. इसलिए न आने का कोई बहाना नहीं चलेगा.”

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “लघुकथा – कोई बहाना नहीं चलेगा

  • लीला तिवानी

    परिवर्तनशील जीवन में अनेक ऐसे मोड़ आते हैं, कि उनकी खट्टी-मीठी यादों से मन महक उठता है. कभी माता-पिता बच्चों से कहते हैं- पढ़ो, कोई बहाना नहीं चलेगा, यह काम करो, कोई बहाना नहीं चलेगा, कभी बच्चे प्रेम से अपने पास बुलाने के लिए कहते हैं- आप और पापा पैकिंग करके रखिएगा, अब न आने का कोई बहाना नहीं चलेगा. ममता और स्नेह का अद्भुत सम्मिश्रण!

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