कविता

यूँ मत देख…

यूँ मत देख कि झुलसती हूँ बहुत
तनिक तो कभी ओटकर के देख।
तपिश हर वक्त ही सही नही होती
कभी तो ओस की तरह झरके देख ।।

माना कि बहुत तंग हुई हैे गलियां,
जिधर रहते रहे हम बरसों से ।
कभी चढ़कर खुली छत पे मन की
फुर्सत की हवाओं में बह के देख ।।

फक्त ज़ालिम ही नही कुदरत के ढंग
देर से सही दुरस्त
किसी अमाँ के घिर जाने से पहले
पूनम के सागर सा उफ़नकर देख।।

अजब है इश्क की फसलों का स्वाद
ढलते मौसम ज़ुबाँ पे चटक ये होती ।
ख्वाहिशों के फेर मात खायी ज़िन्दगी
ज़िन्द के फेर इसे कम करके देख ।।
प्रियंवदा अवस्थी

प्रियंवदा अवस्थी

इलाहाबाद विश्वविद्यालय से साहित्य विषय में स्नातक, सामान्य गृहणी, निवास किदवई नगर कानपुर उत्तर प्रदेश ,पठन तथा लेखन में युवाकाल से ही रूचि , कई समाचार पत्र तथा पत्रिकाओं में प्रकाशित , श्रृंगार रस रुचिकर विधा ,तुकांत अतुकांत काव्य, गीत ग़ज़ल लेख कहानी लिखना शौक है। जीवन दर्शन तथा प्रकृति प्रिय विषय । स्वयं का काव्य संग्रह रत्नाकर प्रकाशन बेदौली इलाहाबाद से 2014 में प्रकाशित ।