धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

“यह बृहद् ब्रह्माण्ड किसने बनाया है?

हम अर्थात् हमारी आत्मा हमारे शरीर में रहती है और हम व हमारा शरीर दोनों इस संसार में रहते हैं। हम इस संसार के बड़े पदार्थों को तोड़ते हैं तो वह छोटे छोटे टुकड़ों व कणों में परिवर्तित हो जाते हैं। इससे यह ज्ञात होता है कि यह संसार छोटे-छोटे कणों, अणुओं व परमाणुओं से मिलकर बना है। जब भी कोई रचना की जाती है तो उसके लिये उपादान कारण जिससे वस्तु बननी है, जो सदैव जड़ पदार्थ होता है तथा बनाने वाला जिसे उस उपादान कारण वा भौतिक पदार्थ से इच्छित वस्तु को बनाने का ज्ञान है, बनाता है। जब हम संसार की विशालता को देखते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह संसार मनुष्यों के द्वारा नहीं बन सकता। मनुष्यों से अधिक ज्ञानवाला व शक्तिशाली सत्ता हमें संसार में दिखाई नहीं देती। विचार करने पर यह निश्चित होता है कि भले ही संसार व सृष्टि को बनाने वाली सत्ता हमें दिखाई न दे परन्तु वह है अवश्य। दिखाई न देने के अनेक कारण हो सकते हैं। इनमें से एक कारण यह हो सकता है कि वह सत्ता अत्यन्त सूक्ष्म हो जैसे कि हम वायु, जल के गैसीय गुणों तथा वृक्षों में अग्नि होते हुए व दूध में मक्खन व घृत होते हुए भी देख नहीं पाते हैं। यदि कोई वस्तु निराकार है तो भी वह दिखाई नहीं देती। हम आंखों से आकारवान पदार्थों को ही देखते हैं। बिना आकार की वस्तुओं को हम अपने चर्म चक्षुओं से नहीं देख सकते। हमारे शरीर में आत्मा अर्थात् हम स्वयं हैं परन्तु हम अपनी व दूसरों की आत्मा को सूक्ष्म होने के कारण ही नहीं देख पाते। मृत्यु के समय जब हमारे सामने ही किसी के प्राण निकलते हैं तब भी हम उसकी आत्मा व सूक्ष्म शरीर को न

सृष्टि की रचना करने वाली शक्ति यदि सर्वव्यापक हो तो भी उसकी व्यापकता व विशालता के कारण भी हम उसे नहीं देख पाते। अति समीप और अति दूर की वस्तुयें भी हमें दिखाई नहीं देती हैं। अतः इन कारणों में से कोई एक व कुछ कारण हो सकते हैं जिस कारण हम सृष्टि की रचना करने वाली शक्ति को नहीं देख पाते। इतना तो अवश्य है कि यदि रचना है तो उसका रचयिता उपादान कारण वा भौतिक पदार्थ अवश्य होगा। सृष्टि का वह रचयिता कौन है? वह रचयिता अवश्य ज्ञानवान सत्ता है। ज्ञान की पराकाष्ठा भी उसमें माननी पड़ती है क्योंकि उसकी रचना में विविधता के साथ पूर्णता व पूर्ण-निर्दोष रचना का गुण भी पाया जाता है। वैदिक साहित्य में इसके लिए सर्वज्ञ शब्द का प्रयोग मिलता है। सृष्टि की रचना की पूर्णता प्रयोजन आदि को देखकर वह सत्ता सर्वज्ञ सिद्ध होती है।

हम कोई भी काम करते हैं तो उसके लिये हमें शक्ति की आवश्यकता पड़ती है। यदि हमें एक कुर्सी को ही उठा कर किसी अन्य स्थान पर रखना हो तो हमारे भीतर बल की आवश्यकता होती है। हम एक सौ किलो भार का पत्थर आसानी से नहीं उठा सकते। इसी प्रकार दो सौ किलो सामान व पत्थर उठाना कठिन व अकल्पनीय है। इस ब्रह्माण्ड की रचना व इसे धारण करने वाली सत्ता के बल, शक्ति व सामर्थ्य पर विचार करते हैं तो वह हमें महाबलवान व पूर्ण सामर्थ्यवान सिद्ध होती है। उसे हम सर्वशक्तिमान नाम से सम्बोधित कर सकते हैं। यह सृष्टि परमाणुरूप है। अतः इस सृष्टि को बनाने वाला निमित्त कारण सृष्टि के बनाने के ज्ञान से युक्त होना निश्चित हो गया है। उस सत्ता का नाम ईश्वर, परमेश्वर, सृष्टिकर्ता, जगदीश, जगदाधार आदि कुछ भी कह सकते हैं। उपादान कारण भी उस सृष्टि रचयिता ईश्वर से भिन्न ही हो सकता है। ज्ञान व बल किसी के पास कितना भी क्यों न हो, उससे भौतिक पदार्थ अस्तित्व में नहीं आता है। इसके लिए निर्जीव व अचेतन पदार्थ होना आवश्यक है जिससे रचना की जा सकती है। वह अनादि व अविनाशी उपादान कारण सूक्ष्म प्रकृति के रूप में हमारे सम्मुख उपस्थित है। दर्शन ग्रन्थों में प्रकृति विषयक विवेचन मिलता है। प्रकृति तत्व का यह वर्णन ज्ञान व विज्ञान के माप दण्डों के अनुसार किया गया है। प्रकृति को सूक्ष्म अनादि, अविनाशी, विकारी, ईश्वराधीन, सृष्टि का उपादान कारण आदि गुणों से युक्त बताया गया है और कहा गया है कि प्रलयावस्था में सत्व, रज व तम गुणों वाली प्रकृति की साम्यावस्था ही प्रकृति है। इसी उपादान कारण प्रकृति से ईश्वर परमाणु, अणु व बड़े-बड़े पृथिवी, पर्वत, समुद्र, नदी, वन, भूमि आदि को बनाता है। वेद एवं सत्यार्थप्रकाश में भी सृष्टि रचना की आरम्भिक अवस्था का वर्णन किया गया है। कारण वा मूल प्रकृति का प्रथम विकार जो ईश्वर द्वारा किया जाता है उसे महतत्व बुद्धि कहते हैं। महतत्व बुद्धि से अहंकार बनता है, इससे पांच तन्मात्रायें सूक्ष्म भूत, दश इन्द्रिया और ग्यारहवां मन बनता है। पांच तन्मात्राओं से पृथिव्यादि पांच-भूत ये चौबीस और पच्चीसवां पुरुष अर्थात् जीव और छब्बीसवां परमेश्वर अनादि व अविकारी सत्तायें हैं। पुरुष व परमेश्वर सत्तायें बनती नहीं हैं। ये अनादि सत्तायें सदा से हैं और सदा रहेंगी। परमेश्वर जीवों को उनके पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार जन्म-मरण व सुख-दुःख प्रदान करने के लिये प्रकृति में विकार कर क्रमशः इस सृष्टि की रचना करते हैं। ऋषियो द्वारा सृष्टि-उत्पत्ति का वर्णन उपनिषद एवं सांख्य दर्शन के सूत्रों मे उपलब्ध होता है। इन ग्रन्थों में वर्णित सृष्टि रचना का तर्क, युक्ति, बुद्धि, ज्ञान, विवेक तथा विज्ञान आदि से कहीं कोई विरोध नहीं है। यह बात अलग है कि विज्ञान परमाणु की रचना व उसके बाद के प्रकृति व परमाणुओं के विकारों व उनकी परस्पर रसायनिक क्रियाओं आदि का अध्ययन करता है। इस प्रकार से यह संसार सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, नित्य, अनादि, अविनाशी, अमर सत्ता ईश्वर से बना है।

यह संसार ईश्वर ने क्यों व किसके लिये बनाया है इसका उत्तर भी वेद व ऋषियों के ग्रन्थों के आधार पर उपलब्ध है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान है। वह सृष्टि बनाने व उसे संचालित करने में समर्थ है। अनादि काल से वह सृष्टि की उत्पत्ति, संचालन व प्रलय करता आ रहा है। उसके पास इस कार्य के अतिरिक्त अन्य कोई कार्य भी नहीं है। जीव संसार में चेतन, कर्मशील, अल्पज्ञ एवं स्वयंभू सत्ता है। ईश्वर को सभी जीवों के पूर्वजन्मों के कर्मों का फल उसे देना भी अभीष्ट है। यदि वह सृष्टि न बनायें और जीवों को उनके पूर्व कर्मों का फल न दे, तो उस पर यह आरोप लगता है कि वह सर्वशक्तिमान व सृष्टि का उत्पत्तिकर्त्ता न होकर निकम्मा है। कोई भी समर्थ व्यक्ति अपनी सत्ता व सामर्थ्य को चुनौती को पसन्द नहीं करता। अतः ईश्वर ने जीवों के सुख व कल्याण के लिये तथा अपनी सामर्थ्य को सफलीभूत कर अपनी परोपकार की भावना से यह कार्य किया है। यह भी बता दें कि ईश्वर ने यह सृष्टि एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख त्रेपन हजार 119 वर्ष पूर्व उत्पन्न की थी। परमात्मा ने मनुष्यों के कल्याण के लिए वेदों के रूप में सब सत्य विद्याओं के ज्ञान का प्रकाश भी किया था। पाठक सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अध्ययन कर जीवन में उठने वाली सभी जिज्ञासाओं व शंकाओं का समाधान कर सकते हैं। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्। 

मनमोहन कुमार आर्य