लघुकथा

लघुकथा- पेटेंट

पेटेंट करवाए गए स्टूल्स का व्यवसाय निरंतर प्रगति पर था. अपना व्यवसाय जहां परम संतुष्टि और अधिक आर्थिक लाभ दिलवाता है, वहीं अकूत समय भी लेता है, फिर भी कभी-कभी स्मृतियों का झरोखा खुलने के लिए समय ही निकाल ही लेता है.
नफ़ासत उसकी हर अदा में थी, सलीका उसके हर क्रियाकलाप में था, विनम्रता उसके हर शब्द में थी, सफाई उसकी आदत में थी और सहेज उसका शौक. उसे काम करना भी आता था, करवाना भी आता था, मगर प्यार से. जोर से बोलना उसने सीखा नहीं था, क्रोध में बस उसकी भौंहें वक्र हुई नहीं, कि सामने वाला चारों खाने चित, शब्द बोलने की दरकार ही नहीं.
घर की हर चीज उसकी स्नेहिल दृष्टि से चमकती-दमकती रहती थी.
बाजार से कोई चीज लाने में भले ही चार चक्कर लग जाएं, पर चीज आती थी बढ़िया, सस्ती और टिकाऊ. सिर्फ फैशन के लिए चीज लाना उसने सीखा नहीं था. चीज वो, जिसकी अंदर-बाहर से साफ-सफाई करने में भी आसानी हो और जगह के अनुकूल हो.
आज से 12 साल पहले उसने नायलोन नेट का एक सोफा खरीदा था. एकदम कसा हुआ, बहुत खूबसूरत, बढ़िया, सस्ता, टिकाऊ, हल्का, अंदर-बाहर से साफ-सफाई करने में आसान और जगह के अनुकूल. 12 साल में उसके रंग-रूप का कुछ नहीं बिगड़ा, अलबत्ता नायलोन नेट थोड़ी ढीली जरूर पड़ गई. ऐसी चीज अब मिलनी मुश्किल थी और सारा दिन सबका उठना-बैठना वहां, सो स्वास्थ्य का भी ध्यान रखना था.
विदेश में चीज को रिपेयर कराने से उसे फेंककर नई लेना सस्ता रहता है. इसलिए लोग खुद रिपेयर करते रहते हैं. नाइलोन नेट को कसने का कोई तरीका नहीं था. इसलिए उसने सारा घर घूम लिया, कि ठीक करने का कुछ जुगाड़ मिल जाए. शिद्दत का साथ था, सो उसे जुगाड़ तो मिलना ही था.
पुरानी टेबिल के पाए बदले थे, उनको साफ करके उसने अहाते में रख रखा था, उस पर उसकी नजर गई.
”यूरेका, यूरेका.” उसने कहा.
फिर उसको एक पुरानी अलमारी का सफेद सनमाइका वाला हिस्सा भी मिल गया. ”बस काम बन गया”. उसने सोचा.
अगले दिन सुबह-सुबह चाय पीकर वह बेटे के साथ ”बनिंग्स” गया. वहां से कुछ पेच आदि ले आया. फिर पूरा बढ़ई वाला सामान लेकर बैठ गया. बड़ी मेहनत से नाप-जोखकर शाम तक उसने चार सीट वाले सोफा के लिए सुंदर-से चार स्टूल बना लिए. अब सोफा पर बैठना आसान हो गया था. नायलोन नेट की ढील अब अखरती नहीं थी, क्योंकि उसके नीचे सहारा देने के लिए लकड़ी के खूबसूरत स्टूल जो आ गए थे. ये खूबसूरत स्टूल बेकार पड़े लक्कड़ से खुद घर पर बनाए गए थे.
वही स्टूल उसने पेटेंट करवा लिए थे. आगे चलकर वही उनका व्यवसाय भी बन गया था.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

3 thoughts on “लघुकथा- पेटेंट

  • राजकुमार कांदु

    आदरणीय बहनजी ! कहते हैं जहां चाह होती है ईश्वर भी कोई न कोई राह अवश्य सुझा देता है । उसे भी स्टूल बनाने का अचानक ही सुझा और खुद इस्तेमाल करने के बाद उसने इसके व्यवसाय तक का सफर तय कर लिया । एक और बेहतरीन सकारात्मक रचना के लिए आपका धन्यवाद !

    • लीला तिवानी

      प्रिय ब्लॉगर राजकुमार भाई जी, यह जानकर अत्यंत हर्ष हुआ, कि आपको लघुकथा बहुत पसंद आई. आपने बिलकुल दुरुस्त फरमाया है. जहां चाह होती है ईश्वर भी कोई न कोई राह अवश्य सुझा देता है. उसे भी स्टूल बनाने का अचानक ही सुझा और खुद इस्तेमाल करने के बाद उसने इसके व्यवसाय तक का सफर तय कर लिया. ब्लॉग का संज्ञान लेने, इतने त्वरित, सार्थक व हार्दिक कामेंट के लिए हृदय से शुक्रिया और धन्यवाद.

  • लीला तिवानी

    आर्किमिडीज़ नहाते-नहाते टब में से बाहर निकल आए और चिल्लाने लगे, “यूरेका, यूरेका यानी मिल गया, मिल गया.” इस प्रकार उन्होंने ‘घनत्व’ के सिद्धांत का आविष्कार किया.

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