कहानी

विभाजन का दर्द

“सुरेंद्र तुम दिन भर खेत में अकेले ही लगे रहते हो कोल्हू के बैल के जैसे। ना धूप देखते हो ना बारिश, न ठंड का कोई असर होता है तुम्हारे ऊपर। सारा कुछ अपने शरीर पर झेल लेते हो बेटियों को पढ़ाने के लिए। बेटियों को पढ़ा कर क्या कलेक्टर बनाओगे? जो अपने ऊपर तनिक भी ध्यान नहीं देते।”… गाँव का एक व्यक्ति सुरेंद्र नाथ के यहाँ सब्जी लेने आया था, जो सुरेंद्रनाथ पर कटाक्ष कर गया।
“पढ़ लिख कर जरूरी नहीं है कि कलेक्टर ही बने। कहीं गाँव में टीचर ही बन जाए और दो चार बच्चों को शिक्षित बना दे तो क्या बुराई है? मैं तो चाहता हूँ मेरी बच्चियाँ गाँव के उन्नति में अपना योगदान दें ताकि बच्चे पढ़ लिखकर कुछ बन सके। और पढ़ना लिखना कोई बुरी बात तो नहीं है।”..सुरेंद्रनाथ के चेहरे पर एक दर्द की लकीर उभर आई।

देश विभाजन के पश्चात अपनी चार बेटियों को लेकर शरणार्थी बनकर हिंदुस्तान आ गया था सुरेंद्रनाथ। बेटियाँ बड़ी हो रही थीं और हिंदुओं की बेटियाँ वहाँ पर सुरक्षित नहीं थी। अपनी बेटियों की चिंता उसे खाए जा रही थी, इसलिए आनन-फानन में अपनी जमीन जायदाद छोड़कर भिखारी के भेष में देश छोड़ दिया था। हिंदुस्तान आने के पश्चात एक ऐसे गाँव में शरण मिली है, जो छत्तीसगढ़ के घने जंगलों के बीच में बसा हुआ है। जंगल इतने घने कि दिन में भी कोई जंगल में जाने की हिम्मत नहीं करता है। जंगली पशु, पक्षियों तथा सर्पों का शरणस्थल है वह वन। सरकार ने सबको पांच- पांच एकड़ जमीन दी है। सुरेंद्रनाथ मैट्रिक तक पढ़ा हुआ है, इसलिए बहुत सी सरकारी नौकरियाँ मिली परंतु उसने नौकरी के बजाय किसान बनना स्वीकार किया। अपनी जन्म भूमि से बिछड़ने के कारण हृदय में एक व्यथा दबी हुई है। वर्षों की धूल जमने के पश्चात भी जन्म भूमि की याद धूमिल नहीं हो पाई। वह भूल नहीं पाया है अपनी मातृभूमि को। कठिन परिश्रम से बनाया हुआ बाग, बगीचा, खेत खलिहान, उसे याद आती तो नैन भीग जाते हैं। वह फिर से वैसे ही बाग बगीचा और खेत खलिहान बनाना चाहता है, जो पीछे छोड़ आया है।

सुबह से शाम तक कठोर परिश्रम करने के पश्चात सुरेंद्र नाथ ने गाँव के कुछ बच्चों को शिक्षित करने का जिम्मा उठाया है। देखकर गाँव के कुछ नकारात्मक सोच वाले लोग जिन्हें शिक्षा से कोई मतलब ही नहीं है, सुरेंद्रनाथ पर कटाक्ष का बाण चलाने में जरा भी हिचकिचाते नहीं “अपनी बेटियों को तो कलेक्टर बनाएगा ही, गाँव के सारे बच्चों को भी कलेक्टर बनाए बिना नहीं छोड़ेगा। इसलिए तो इतनी परिश्रम करने के पश्चात गाँव के बच्चों को निशुल्क शिक्षा दे रहा है। आधा पागल नहीं, पूरा पागल है वह आदमी।”
जिनके बच्चे सुरेंद्रनाथ के पास पढ़ने के लिए आते हैं, वे बहुत इज्जत की नजर से देखते हैं सुरेंद्रनाथ को। उनका कहना है “बहुत भला आदमी है जो औरों के लिए इतना सोचता है। नहीं तो आज के जमाने में कोई किसी को निशुल्क शिक्षा नहीं देता है। वह भी दिन भर इतना परिश्रम करने के पश्चात।”

“सुरेंद्र तू अकेला ही रात दिन खटता रहता है, क्यों.. नहीं बेटियों से भी मदद ले लेता। पढ़ लिख कर तेरी लड़कियां, कोई डॉक्टर या इंजीनियर तो नहीं बन जाएगी। थोड़ा अपने पिताजी को मदद कर दें बेटियां तो.. तेरा बोझ थोड़ा हल्का हो जायगा।”…गांव के एक व्यक्ति ने आकर सुरेंद्रनाथ पर फिर कटाक्ष किया। सुरेंद्रनाथ को तो बस इसकी आदत सी पड़ गई है। किसी की बातों में ज्यादा ध्यान ही नहीं देता है और अपने कर्म में सदैव व्यस्त रहता है।

“डॉक्टर, इंजीनियर बने ना बने, पढ़ लिख जाएगी तो कुछ ज्ञान तो अर्जित कर लेगी। क्या लड़कियों का पढ़ना लिखना जरूरी नहीं होता? मेरा तो एक ही सपना है मेरी लड़कियाँ पढ़ी लिखी हो। मेरी बेटियाँ मेरी मदद करती हैं। वे समझती हैं मेरे कष्ट को। पढ़ लिख कर जब फुर्सत मिल जाती है तो हाथ भी बटा देती हैं। मैं ही उन्हें ज्यादा परेशान नहीं करता। कल को सबको ससुराल जाकर काम ही तो करना है। पढ़ लिख कर कुछ बन जाए तो और भी अच्छी बात है।”… सुरेंद्रनाथ ने बड़ी शांति से जवाब दिया।

बड़ी बेटी आशा नर्स बन गई और दूसरे गाँव के एक स्कूल मास्टर से उसकी शादी हो गई। गाँव के ही डिस्पेंसरी में नर्स है और लोगों की सेवा करके स्वयं को सौभाग्यशाली समझती है।
मँझली बेटी रेखा एक स्कूल में टीचर बन गई है। उसका कहना है कि गाँव के कुछ बच्चों को शिक्षित करने में अगर मैं योगदान दे सकूं तो मेरे लिए यह सौभाग्य की बात है। और मेरे पापा का सपना भी पूरा होने से उनको आत्मिक संतुष्टि मिलेगी।
सँझली बेटी निभा एक आँगनबाड़ी में काम करती है। आँगनबाड़ी में गाँव की गरीब बच्चों के लिए भोजन बनाना और उनको खिलाना निभा को बहुत अच्छा लगता है। उसकी संतुष्टि उसके चेहरे की चमक से स्पष्ट झलकती है।
तीनों बेटियों की शादी अच्छे घर में कर दी थी सुरेंद्रनाथ ने। और छोटी बेटी शोभा पढ़ने में बहुत होशियार है इसलिए उसे पढ़ने के लिए सुरेंद्रनाथ ने शहर के स्कूल में भेज दिया। एक कान्वेंट स्कूल में, जहां वह हॉस्टल में रहकर पढ़ाई कर रही है। अपनी मेहनत तथा बेटियों को पढ़ाने की बात को लेकर सुरेंद्रनाथ दूर-दूर तक मशहूर हो गया है।
सामने तो लोग उसे कटाक्ष करके जाते हैं परंतु पीठ पीछे उसकी प्रशंसा भी बहुत होती है। कई लोग कहते हैं “ऐसा परिश्रमी और अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान व्यक्ति बहुत कम दिखाई देता है। अपने कठोर परिश्रम द्वारा उस ने जो चाहा वह हासिल कर लिया, इसलिए उसके चेहरे पर एक संतुष्टि की भावना स्पष्ट नजर आती है।”

आज सुरेंद्र नाथ की छाती गर्व से चौड़ी हो गई है, क्योंकि छोटी बेटी शोभा डॉक्टर बनकर गाँव के अस्पताल में पदस्थ हो गई है। शहर के सरकारी अस्पताल में भी उसकी नियुक्ति हो गई थी परंतु गाँव की बेटी होने के कारण, उसने गाँव के लोगों की सेवा करने हेतु, गाँव के अस्पताल को चुना। सुरेंद्र नाथ की भी यही इच्छा थी कि बेटी जब डॉक्टर बन जाए तो अन्य बेटियों की तरह गाँव में ही आकर लोगों की सेवा करें। कई बार लोग बिना इलाज के ही मृत्यु को गले लगा लेते हैं। इस बात से वह बहुत दुखी है।
आशा के डॉक्टर बनने एवं गाँव के अस्पताल में पदस्थ होने की खबर सुनकर उसके घर में गाँव के लोगों की भीड़ जमा हो गई, सुरेंद्रनाथ को बधाई देने के लिए। ये वही लोग है जिन लोगों ने कभी सुरेंद्रनाथ पर कटाक्ष करने का कोई मौका नहीं छोड़ा।
पर… आज सुरेंद्र नाथ की दोनों आँखें आँसू से भीगे हुए थे। यह आँसू खुशी के थे, जो इतने सालों से आँखों से निकलने के लिए आतुर थे। पर.… सुरेंद्रनाथ ने अपने इन आँसुओं को कैसे अंदर रोक रखे थे, यह तो केवल वही जानता है।

डॉ बिटिया से सभी मिलने के लिए उतावले हैं। एक ने तो उत्सुकता वश पूछ ही लिया…”बिटिया तुमने शहर का अस्पताल छोड़ कर गाँव के अस्पतालों को क्यों चुना?”
“गाँव के लोगों को मेरी जरूरत है ना चाचा? मैं गाँव की हूं, मेरे मम्मी, पापा भी गाँव में हैं। मैं चाहती हूं आप लोगों की सेवा करूं! और..किसी को ना लगे कि डॉक्टर बनने के बाद गाँव की बेटी शहर की हो गई है। और मेरे पापा का भी एक सपना था कि मेरी बेटी डॉक्टर बन जाए तो गाँव में रहकर गरीबों की और जरूरतमंदों की सेवा करें। वरना आजकल कोई डॉक्टर गाँव में आना ही नहीं चाहता। ऐसे में गाँव के लोग बीमार हो तो वे कहाँ जाए। गाँव से शहर सौ किलोमीटर दूर है वहाँ तक पहुंचते पहुंचते तो मरीज की जान निकल जाए। मैं प्राथमिक चिकित्सा तो दे ही सकती हूं सबको।”… डॉ शोभा ने हँसते हुए जवाब दिया।

अचानक दौड़ती हुई गाँव की दस साल की कविता आ गई और हाँफते हुए कहा….” डॉक्टर दीदी.. जल्दी से चलो मेरी मम्मी की तबीयत खराब हो गई बहुत! आपको अभी चलना पड़ेगा। पापा भी घर में नहीं है! माँ ने भेजा है मुझे।”
“क्या हो गया तेरी मम्मी को? कुछ बताएगी भी, मुझे समझ में कैसे आएगा!”.. डॉ शोभा ने पूछा।
“मुझे नहीं पता, मम्मी बता रही थी पेट में बहुत दर्द हो रहा है। सहन नहीं हो रहा है, जा.. जा कर डॉक्टर दीदी को बुला कर ले आ.. और मैं दौड़ते हुए आ गई!”… कविता ने कहा।
“अरे… गर्भवती है! बच्चा होने वाला है! शायद इसीलिए पेट में दर्द है।”… भीड़ में से किसी ने कहा।
“तू चल कविता, मैं अभी आती हूं!”… डॉ आशा ने कहा। और भीड़ की ओर मुखातिब होकर हाथ जोड़कर कहा…” आप सब माफ करना मुझे। मुझे अभी जाना पड़ेगा! आप लोगों से मैं बाद में मिलती हूं। वैसे भी आप लोगों को कोई भी परेशानी हो अस्पताल आ जाना, मिलना भी हो जाएगा।”… डॉ आशा ने जल्दबाजी में कहा।

अपनी डॉक्टर बेटी को जाते हुए देख रहा था सुरेंद्रनाथ। उसकी आंखों से वर्षों का दबा हुआ ‘विभाजन का दर्द’ पिघल कर आँसू के रूप में बह रहा है। पर उसके होठों पर एक विजयी मुस्कान बिखरी हुई है…!!!

पूर्णता मौलिक – ज्योत्सना पॉल।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- paul.jyotsna@gmail.com