गीत/नवगीत

मैं विपुल आयाम चल कर ! (मधुगीति १९०११३ स)

मैं विपुल आयाम चल कर,
बिना व्यवधानों विचरता;
चर अचर संचार कर कर,
संचरित प्रकृति सुहाता !

कृति किए जो भी हूँ जाता,
नियति के नाटक समझता;
त्रुटि किसी की नहीं लखता,
भृकुटि से भव भाँप लेता !

चाप जब तब कभी आता,
समर्पण कर पार पाता;
सृष्टि उसकी द्रष्टि देता,
लखे दृष्टा सुद्रढ़ होता !

धार उसकी धरा बहती,
परा शक्ति ढ़ाल बनती;
चाल नित प्रति सहज होती,
ताल लय ले सूक्ष्म होती !

तरंगें अध्यात्म खिलतीं,
सिद्धियाँ हैं सहज मिलतीं;
‘मधु’ मन आनन्द ले कर,
माधुरी दुनियाँ को देता !

✍🏻 गोपाल बघेल ‘मधु’