लघुकथा

मदद

हमेशा की तरह शनिवार शाम को ऑस्ट्रेलिया-वासी डेविड और मार्गी ने स्पोर्ट्स क्लब को कर्टसी बस के लिए फोन किया था. शाम को 5 बजे से वरिष्ठ नागरिकों को स्पोर्ट्स क्लब के लिए निःशुल्क कर्टसी बस की सुविधा मिलती थी. यों तो बहुत नीची होने के कारण कर्टसी बस में चढ़ना बहुत आसान होता है, लेकिन डेविड को चढ़ने के लिए स्टूल के साथ 3 लोगों का सहारा लेना पड़ा था. सीट पर बैठने के बाद उन्हें बैग और छड़ी पकड़ाई गई, किसी ने उनकी सीट बेल्ट बांध दी, तब कहीं जाकर बस चल पाई. सीट पर बैठकर डेविड का मन अतीत की यादों में पहुंच गया.
”आज मुझे कर्टसी बस में चढ़ने के लिए इतने लोगों की मदद लेनी पड़ती है, लेकिन हमेशा से ऐसा नहीं था. सब समय-समय की बात है.”
”समय! यही समय तो है, जो हमें कितने नाच नचाता है.” मन के एक कोने से आवाज आई.
”एक वह समय भी था, जब नवजात शिशु के रूप में मैं बिलकुल अशक्त था. तब मेरे माता-पिता ने मुझे सशक्त बनाया. फिर मैं पिता बना, मैंने भी अपनी संतानों को सशक्त बनाया.” यह आवाज मन के दूसरे कोने से आई थी.
”घड़ी की सुइयों के साथ मेरी दिनचर्या चलती थी, फिर भी मैं भाग-भागकर सबकी मदद करता था. जीवन के 60 साल इसी तरह निकले.”
”70 साल का होने के बावजूद मैं कार्यालय का काम करने में सक्षम था, अतः मैंने सेवानिवृत्ति नहीं ली. 75 साल में मैंने सेवानिवृत्ति लेकर शुद्ध समाज-सेवा करने के बारे में सोचा और अगले 10 साल तक ऐसा किया भी. तब तक मैं समय पर हावी था.” एक और कोने ने अतीत में झांका.
”उसके बाद खुद मुझे भी मदद की जरूरत महसूस होने लगी, शायद अब समय मुझ पर हावी हो रहा था. अभी भी आम तौर पर चलने में और कार चलाने में मुझे कोई दिक्कत नहीं आ रही, बस चढ़ने-उतरने, उठा-पटक में तनिक परेशानी होती है. आज भी बहू ने स्पोर्ट्स क्लब में छोड़ आने-ले जाने के लिए बहुत कहा, पर सरकार जब हमें कर्टसी बस की सुविधा दे रही है, तो बच्चों को परेशान करने की जरूरत क्या है? उनका अपना जीवन है, अपना समय है, उन्हें अपने मन की करने दो.” मन का हर कोना कुछ-कुछ कहने को आतुर था.
”बात समय की है. जब मेरा समय था, मैंने जी भर मदद की थी. फिर जरूरत पड़ने पर मदद लेने में संकोच कैसा! आखिर हम सामाजिक प्राणी ही तो हैं न! एक-दूसरे की मदद करना हमारा फर्ज है, तो मदद लेने में भी कोई हर्ज नहीं. मन में एक संतोष तो होता है, कि हम अपना मन बहलाने के लिए खुद स्पोर्ट्स क्लब जा रहे हैं. यही संतोष और मन-बहलाव हमें सशक्त बनाने में मददगार हो रहे हैं.” मन ने निष्कर्ष निकाला.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

3 thoughts on “मदद

  • रविन्दर सूदन

    आदरणीय दीदी, ज़िंदगी इक सफर है सुहाना, यहाँ कल क्या हो किसने जाना. स्वाभिमान
    और अभिमान में थोड़ा फर्क होता है. एक व्यक्ति रेगिस्तान में अकेला, प्यास से तडप रहा
    था, उसने ईश्वर से प्रार्थना की ईश्वर तू ही आयेगा मुझे बचायेगा, इतने में एक फटे हाल व्यक्ति वहां से गुजर रहा था. उसने कहा मेरे पास थोड़ा पानी है, चाहो तो तुम्हें दे सकता हूँ. व्यक्ति ने कहा नहीं यदि ईश्वर ही मुझे बचाना चाहे तो उसी के हाथ से पानी पीऊँगा, किसी ओर से नहीं. वह व्यक्ति प्यास से मरकर ऊपर पहुँचा. ईश्वर से शिकायत की, आप मुझे बचाने नही आये ? ईश्वर:: मैं आया तो था, पर तुमने मुझसे पानी लेने को मना कर दिया,
    मैं क्या करता ?

    • लीला तिवानी

      प्रिय ब्लॉगर रविंदर भाई जी, यह जानकर अत्यंत हर्ष हुआ, कि हमेशा की तरह यह लघुकथा भी आपको बेहद सुन्दर और लाजवाब लगी. बातों-बातों में बात निकालने वाली आपकी प्रतिक्रिया भी हमें लाजवाब लगी. मनुष्य यह भूल जाता है- रहिमन इस संसार में सबसे मिलिए धाय ना जाने किस भेष में नारायण मिल जाय. ब्लॉग का संज्ञान लेने, इतने त्वरित, सार्थक व हार्दिक कामेंट के लिए हृदय से शुक्रिया और धन्यवाद.

  • लीला तिवानी

    मदद करके भी मदद की अपेक्षा की न रखना इंसानियत है, लेकिन अति वार्धक्य के कारण समय ही हावी होने लगे तो कोई क्या कर सकता ह!. एक समय था, जब मदद देकर संतोष का अहसास होता था, अब मदद लेने में भी उसी संतुष्टि का अहसास होता है. ऑस्ट्रेलिया में राह चलते लोग भी मदद करने को तैयार होते हैं. यहां के 90-95 साल के लोगों को भी पूर्णतः आत्मनिर्भर होते देखकर बहुत हैरानी होती है और अंतःप्रेरणा मिलती है.

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