उपन्यास अंश

ममता की परीक्षा ( भाग – 47 )

ममता की परीक्षा ( भाग – 47 )

रात भर रहनेवाली चहल पहल अब कम हो गई थी । रात भर खुद जलकर रोशनी लुटाने वाले दीये भी अब थक चुके थे और अपनी अंतिम साँसें ले रहे थे । अँधेरे से मुकाबला करते हुए उनका दम निकलने का समय आ गया था लेकिन अंततः उसने अँधेरे को दूर भगाकर ही छोड़ा । पूरब में पौ फट चुकी थी और रश्मियाँ पूरब दिशा को रक्तिम आवरण पहना चुकी थीं । पेड़ों पर चिड़ियों ने चहचहाना शुरू कर दिया था । मंडप में बैठा हुआ गोपाल विवाह की रस्मों से अब उकता चुका था । आँखें नींद से बोझिल हो चुकी थीं लेकिन मंडप में मौजूद पंडित सहित तमाम ग्रामवासियों और मास्टर की उपस्थिति जबरदस्ती उसे जागने को मजबूर कर रही थीं । साधना का भी नींद के मारे बुरा हाल था । विवाह की थका देने वाली रस्मों के दौरान वह कई बार गोपाल के जिस्म पर लुढ़क चुकी थी । ये और बात है कि नींद में गिरने से पहले ही उसे गोपाल के जिस्म से टकराकर सहारा मिल जाता । उसका यह हल्का सा स्पर्श भी गोपाल के मन को बेपनाह ख़ुशी दे जाती जबकि साधना के पूरे शरीर में सिहरन सी दौड़ जाती ! यह सिहरन कुछ देर के लिए नींद को उससे दूर रखती और फिर धीरे धीरे नींद अपना प्रभाव दिखाने लगती ।
वैवाहिक विधियाँ पूर्ण हो चुकी थीं । साधना और गोपाल को घर के आँगन में ले जाया गया जहाँ सिर्फ महिलाओं की ही भीड़ थी । लड़कियों की हँसी मजाक के बीच ही कुछ अन्य रस्मों की अदायगी की गई ।
इन अनगिनत और विचित्र रस्मों से साधना और गोपाल बहुत परेशान हो गए थे और ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे कि कब इन रस्मों रिवाजों की कतार ख़त्म हो । आखिर भगवान ने उनकी सुन ही ली । गोपाल की तो ख़ुशी का ठिकाना न रहा जब महिलाओं में से एक ने उससे कहा ,” दामाद बाबू ! अब सभी रस्में पूरी हो गईं हैं । साधना बिटिया अब आज से तुम्हारी हुई । उसकी पूरी जिम्मेदारी अब तुम्हारी है । जाओ ! थक गए होगे । जाकर अंदर के कमरे में आराम कर लो । दोपहर के बाद जब धूप कम हो जायेगी तो गाँव के शिवालय में मत्था टेकने जाना होगा और फिर ग्रामदेवता के यहाँ भी हाजिरी लगानी होगी । ”
अगले ही पल कुछ लड़कियों ने उसे एक कमरे तक पहुँचा दिया । बाहर की भीड़भाड़ से विपरीत घर का यह शांत कमरा उसे बहुत राहत प्रदान कर रहा था । दरवाजा खुला रखकर ही वह कमरे में बिछे खटिये पर पसर गया । कुछ ही मिनटों में वह नींद की आगोश में पहुँच गया था ।
ईधर साधना का भी नींद के मारे बुरा हाल था । उसे नींद आ तो रही थी लेकिन उसका दिमाग सभी परिस्थितियों पर भी गौर कर रहा था । उसे लग ही नहीं रहा था कि उसका विवाह हुआ था । न बारात आई , ना बाजे गाजे , ना कोई रूठना , ना कोई मनाना , ना कुछ लेना ना देना , और अब ना ही कोई बिदाई ! हाँ ! सचमुच उसकी बिदाई भी तो नहीं होगी ! कहते हैं बेटी मइके से डोली में और ससुराल से अर्थी में विदा होती है । उसे कहाँ डोली में बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ?
तभी उसके मन से उसे समझाया ‘ पागल न बनो ! तुम्हें जो प्राप्त हुआ है उसके लिए ईश्वर का धन्यवाद अदा करो ! माना कि तुम्हारी बिदाई नहीं होगी । तो क्या हुआ अगर नहीं हुई बिदाई ? तुम्हें तुम्हारा प्यार तो मिल गया न ? जीवनसाथी के रूप में गोपाल जैसा सुलझा हुआ मित्र मिला है जो हर हाल में तुम्हारा साथ निभाने के लिए कृतसंकल्प है । शादीशुदा होकर भी कितनी लड़कियों को अपने माँ बाप के सान्निध्य का सुख मिलता है ? तुम हमेशा अपने आदर्श बाबूजी के साथ ही रहोगी । कहीं कोई विछोह नहीं तो वेदना कैसी ? तुम इसलिए भी खुशकिस्मत हो कि अब तुम्हें अपने बाबूजी की भी चिंता नहीं करनी होगी । अब उन्हें गोपाल के रूप में एक दामाद ही नहीं एक आज्ञाकारी पुत्र भी मिल गया है । ‘
तभी उसके अवचेतन मन ने कहा ” अब छोडो इन बातों को । अब इस पर विचार करके कुछ नहीं हासिल होने वाला । अब तो जो होना था हो चुका । अब तो भविष्य पर ध्यान केंद्रित करना होगा । ‘
भविष्य का विचार आते ही उसके चेहरे पर तनाव की हलकी सी परछाईं नजर आई लेकिन अगले ही पल उसने इस विचार को झटक दिया । उसे गोपाल पर पूर्ण विश्वास है । उसके रहते उसे भविष्य की कोई चिंता नहीं करनी चाहिए । ‘
अपनी सहेलियों से घिरी साधना मन में उठ रही तरह तरह की आशंकाओं से भी घिरी हुई थी । सहेलियों की चुहलबाजियाँ कम नहीं हो रही थीं लेकिन साधना प्रकट रूप में शर्माने का शानदार अभिनय कर रही थी ! हाँ वह अभिनय ही तो कर रही थी । मन के भाव दबाकर चेहरे पर कृत्रिम भाव दिखाना ही तो बेहतरीन अदाकारी कहलाती है ।
धीरे धीरे सहेलियां भी एक एक कर विदा होती गईं और अंत में रह गई अकेली साधना परबतिया काकी के साथ ।
सबके जाने के बाद परबतिया काकी भी कुछ देर बैठी रही और फिर बोली ,” साधना बेटी ! रात भर की जागी हुई हो । थक भी गई होगी । जाओ आराम कर लो । दोपहर बाद ग्रामदेवता के दर्शन को चलेंगे । ” उठते हुए परबतिया ने एक नजर साधना की तरफ डाली । लेकिन वह शायद उसकी बात सुनने से पहले ही नींद की आगोश में पहुँच गई थी । परबतिया के चेहरे पर मुस्कान खिल उठी और बेसुध नीचे ही सोई हुई साधना के अस्तव्यस्त कपडे ठीक करके मंद मंद मुस्कुराते हुए अपने घर की तरफ बढ़ गई ।
” दामाद जी ! उठिये ! दोपहर हो गई है । आपको भूख लगी होगी । चलिए भोजन कर लीजिए । सब्जी तो बहुत सारी बच गई थी । पुरियाँ गरमागरम तली जा रही हैं । उठिये ! ” एक वृद्ध महिला गोपाल को जगाने का प्रयास कर रही थी ।
खिन्न मन से गोपाल उठा लेकिन पास ही खड़ी वृद्धा के साथ ही गाँव की बहुत सी महिलाओं को देखकर उसने अपने आपको सँभाल लिया । महिलाओं में से कुछ युवा उम्र की महिलाएं जिनकी शायद जल्द ही शादियाँ हुई रही होंगीं , सजी धजी दुल्हन बनकर घूँघट में तो थीं लेकिन चुहलबाजी और मजाक बाजी में सबसे आगे थीं । ” उठो उठो बबुआ ! अभी तो बहुत ड्यूटी बाकी है । अभी से थक गए ? ” उनमें से किसी के कहते ही सभी महिलायें खिलखिलाकर हँस पड़ी थीं । तभी एक अन्य वृद्ध महिला आगे बढ़ी और उन महिलाओं को परे हटाते हुए गोपाल का हाथ पकड़कर उसे आंगन में ले जाते हुए बोली ,” चलो । हाथ मुँह धो लो ! भोजन कर के जल्दी से तैयार हो जाओ । शिवालय और फिर ग्रामदेवता के स्थान पर मत्था टेकने जाना है । यही इस गाँव की परंपरा है । अपना नया जीवन शुरू करने से पहले देवताओं के साथ ही पित्तरों और ग्राम देवता का आशीर्वाद पाना भी बहुत जरुरी है ।” भोजन करने के बाद गोपाल और साधना गाँव के शिवालय में गए । उनके साथ बहुत सी सजी धजी ग्रामीण महिलाओं का हुजूम था । पूरे परंपरागत तरीके दोनों को मंदिर दर्शन कराने के बाद वैवाहिक रीति रिवाजों का समापन हुआ । दोनों वापस घर आये तब तक शाम हो चुकी थी ।
आसपड़ोस की महिलायें अपने अपने घर वापस जा चुकी थीं । इस पूरे विवाह समारोह में अगर किसी ने सबसे अधिक और महत्वपूर्ण जिम्मेदारी अगर किसी ने उठाई थी तो वह परबतिया काकी ही थीं । बिन माँ की बच्ची साधना के लिये वह हर रस्म के समय माँ की जगह माँ की तरह तैयार थी । उन्होंने माँ की भूमिका भली भाँति निभाते हुए कन्यादान भी किया । मास्टर रामकिशुन उनके प्रति बड़े ही कृतज्ञ थे । बाहर बहुत सारे ग्रामीण मास्टर रामकिशुन के साथ बैठे हुए उन्हें बधाई दे रहे थे । कोई गोपाल की सुंदरता और शालीनता की तारीफ़ कर रहा था । चाय का एक दौर समाप्त होने के बाद मास्टर ने सभी ग्रामवासियों का उनके अतुलनीय सहयोग के लिए धन्यवाद अदा किया और उन्हें विदा किया । परबतिया अभी तक घर में ही मौजूद थी । आज भोजन का इंतजाम करना परबतिया के जिम्मे ही था । गाँव की प्रथा के मुताबिक साधना को आज चुल्हे के नजदीक भी नहीं जाना था ।
थोड़ी देर में शाम गहरा गई और अँधेरा गहराने लगा । ज्यों ज्यों अँधेरा गहरा रहा था गोपाल की उत्कंठा बढ़ती जा रही थी । इन घने अंधेरों में वह जल्द से जल्द अपने चाँद का दीदार कर लेना चाहता था । आखिर इंतजार की घड़ियाँ ख़त्म हुईं और उसकी वह चिर प्रतीक्षित घडी भी आ ही गई । बाहर भले अँधेरा घना रहा हो लेकिन उसका मन मयूर तो भविष्य की खुशियों के अहसासों से ही रोशन था । उसे ऐसा लग रहा था जैसे अभी अभी उसके जीवन के सूर्य का उदय हुआ हो ।
सबके भोजन कर लेने के बाद परबतिया अपने घर चली गई ।
मास्टर रामकिशुन हमेशा की तरह बाहर खटिये पर सोये हुए थे । जबकि परबतिया ने जाने से पहले गोपाल को दालान के बाद बने एक कमरे में धकेल कर दरवाजा भेड़ दिया था जिसमें साधना पहले से ही मौजूद थी ।

क्रमशः

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।