लघुकथा

अंतर्मन की पुकार

दोनों भक्त मंदिर प्रांगण में खड़े थे. पहला कुछ देर तक मंदिर की भव्यता और मूर्ति की सौम्यता को निहारने के बाद बोला, “इसके निर्माण में मैंने रात-दिन एक कर दिये. पिछले दिनों यह नगाड़ा सेट लाया हूं. बिजली से चलने वाला. अरे भाई, आज के जमाने में बजाने की झंझट कौन करे?” फिर स्विच ऑन करते हुए कहा, “लो सुनो! तबीयत बाग-बाग हो जायेगी.” बिजली दौड़ते ही नगाड़े, ताशे, घड़ियाल, शंख सभी अपना-अपना रोल अदा करने लगे. पहला हाथ जोड़कर झूमने लगा. दूसरा मंद-मंद मुस्करा रहा था. जब पहले के भक्ति भाव में कुछ कमी आई तो दूसरे ने बताया, “उधर मैंने भी एक मंदिर बनाया है. आज अवसर है, चलो दिखाता हूँ.”

पहला दूसरे के पीछे हो लिया और दोनों एक चौराहे पर आकर खड़े हो गये।
दूसरा बोला “ लो मेरा मंदिर आ गया।”
पहला बोला “ यह तो एक चौराहा है!”
दूसरा बोला “देखो भाई यहाँ से चार रास्ते जाते हैं, पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण। मेरा देश ही मेरा मंदिर है और इसके भी चार कोने हैं जिनकी रक्षा हमारे जवान रात दिन रक्षा करते हैं। इसलिये उनकी सलामती के लिये मैं अपने मंदिर में कहीं पर भी ध्यान मुद्रा में बैठकर प्रार्थना करता हूँ बिना किसी नगाड़े के। बस मन के तार अपने भगवान तक मिला देता हूँ और बहुत शान्ति का अनुभव महसूस करता हूँ।”
पहला भी दूसरे के मंदिर में पहुँचकर बहुत शान्ति का अनुभव कर रहा था, पर अपनी बात ऊँची रखने के लिये बोला “यह तो बहुत कठिन होता होगा बिना किसी मूर्ति के?”
दूसरा बोला “ नहीं कठिन बिल्कुल नहीं है यदि अपने प्रेमास्पद को इष्टदेवता के रूप में देखा जाए, तो मन बड़ी सरलता से भगवान की ओर चला जाता है। प्रेम भाव ही भक्त को ध्यानावस्था में ले जाता है।”
बात समझ में आने पर पहला भी दूसरे के साथ भगवान के बनाये प्रांगण में बैठकर अपने मंदिर को निहारने लगता है। फिर मंदिर में शान्ति बनाये रखने के लिये दोनों ध्यान में चले जाते हैं…..

मौलिक रचना
नूतन गर्ग(दिल्ली)

*नूतन गर्ग

दिल्ली निवासी एक मध्यम वर्गीय परिवार से। शिक्षा एम ०ए ,बी०एड०: प्रथम श्रेणी में, लेखन का शौक