कहानी

पराई लड़की

कई महीनों से बेटे की कोई चिट्ठी नहीं आई, ना फोन आया। प्रत्येक महीने रघुनाथ को ₹१००० का माॅनी ऑर्डर आता था, वह भी कई महीनों से नहीं आया। रोज डाकघर का चक्कर लगाकर मायूस होकर वापस लौटता है वह। घर में खाने को कुछ नहीं है। शरीर इतना जर्जर हो गया है कि अब ताकत ही नहीं रही कि कुछ काम करके पेट पाले। और फिर.. इस उम्र में काम पर भी कौन रखेगा। जब काम करने की उम्र थी तब बहुत मेहनत की। घर से बुलाकर ले जाते थे लोग काम के लिए क्योंकि रघुनाथ ने काम करने में कभी कोई कोताही नहीं बरती। बहुत मेहनतकश इंसान था वह। उसकी मेहनत और ईमानदारी की चर्चा पूरे गांव में आज भी है। गांव में सभी उसे इज्जत की नजर से देखते हैं। जब से बेटा कमल कलेक्टर बन गया तब से लोगों की नजर में उसका ओहदा और बढ़ गया है। जो भी देखता हाल चाल पूछे बिना और नमस्ते किए बिना नहीं जाता। इतनी इज्जत पाकर वह गदगद हो उठता है।

“सुनिए जी! आप क्यों नहीं चले जाते शहर। कहीं ऐसा ना हो कि हमारा कमल किसी परेशानी में है इसलिए हमें रुपए नहीं भेज रहा है और ना ही चिट्ठी लिख रहा है। आपको जाकर उसकी खबर लेनी चाहिए। आप जाकर कमल से मिलेंगे तो उसे खुशी ही होगी। पता नहीं सब कुछ ठीक है कि नहीं।” रघुनाथ की पत्नी सुहासिनी ने चिंता जताते हुए अपने पति से आग्रह किया।

“तुम ठीक ही कह रही हो। मुझे ही शहर जाकर अपने बेटे से मिलना चाहिए। उसका हालचाल जानना चाहिए, आखिर पिता हूं मैं इसका। मैं तो इसीलिए शहर नहीं जा रहा था क्योंकि कमल ने मुझे मना कर रखा है। पर.. क्यों मना कर रखा है यह बात अभी तक समझ में नहीं आया।” रघुनाथ ने थोड़ी चिंता जताते हुए जवाब दिया।

बहुत गरीब था रघुनाथ। जमीन जायदाद भी ज्यादा नहीं थी। थोड़ी सी जमीन थी, उसमें जो फसल उगती थी उससे पूरे परिवार का गुजारा नहीं होता था। इसलिए रघुनाथ को दूसरों के यहां मजदूरी करनी पड़ती थी। सुहासिनी भी दूसरों के घर में काम करती थी ताकि बेटे की परवरिश अच्छी तरह कर सके।
एक बेटी है जिसकी शादी कम उम्र में कर दी। एक बेटा कमल, पढ़ने में बहुत होशियार था इसीलिए उसकी पढ़ाई के लिए रघुनाथ और सुहासिनी ने बहुत मेहनत की।

जब कमल को शहर पढ़ने के लिए जाना था उस समय रघुनाथ के पास रुपए की कमी थी। रुपए की कमी को पूरा करने के लिए रघुनाथ गांव गांव जाकर लोगों से सहायता की गुहार लगाई। कुछ भले लोग थे जिन लोगों ने सहायता की और रघुनाथ ने बेटे को शहर भेजा पढ़ने के लिए। पढ़ लिख कर बेटा नौकरी करेगा तो हमारी गरीबी एक दिन दूर हो जाएगी। इतनी ज्यादा मेहनत बुढ़ापे में नहीं करना पड़ेगी, यह सोच कर रघुनाथ और उसकी पत्नी और ज्यादा मेहनत करने लगे।

एकदिन गांव में आकर बेटे ने खबर दी कि वह कलेक्टर बन गया है। रघुनाथ की खुशी का ठिकाना नहीं रहा सुहासिनी तो खुशी के मारे रो पड़ी। इतने वर्षों की मेहनत आज रंग लाई है। रघुनाथ और सुहासिनी ने मिलजुल कर जो सपने देखे थे वह सपने साकार हो गए थे। पूरे गांव में बात फैलते देर नहीं लगी। गांव से सब लोग बधाइयां देने रघुनाथ के घर आने लगे। उत्सव सा माहौल हो गया था। जाते समय बेटे ने कहा था “मैं हर महीने आप लोगों को रुपए भेजूंगा। अब आप लोगों को काम करने की जरूरत नहीं है। पूरी जिंदगी आप दोनों ने बहुत मेहनत की। अब आराम का समय आ गया है।”

रघुनाथ और सुहासिनी दोनों बहुत खुश थे। अब वे काम पर नहीं जाते थे। बेटे जो रुपए भेजते थे उससे दोनों का गुजारा अच्छे से होने लगा। दोनों बहुत खुश थे। परंतु कुछ महीनों से रूपए आना बंद हो गया। दोनों को कुछ भी समझ में नहीं आया कि अचानक रुपए आना बंद क्यों हो गया? बेटे का चिट्ठी लिखना और फोन करना भी बंद हो गया। एक बार रघुनाथ ने शहर जाना चाहा परंतु फिर बेटे की बात याद आ गई “बेटे ने मना कर दिया था कि शहर मत आना! मैं ही आकर आप दोनों को ले जाऊंगा शहर।”
सुहासिनी के आग्रह पर एक दिन रघुनाथ शहर की ओर चल पड़ा।
सुबह-सुबह गेट पर अपने पिता रघुनाथ को हाथ में एक पोटली लिए खड़ा देखकर कमल को समझ में नहीं आया कि वह क्या करें। वह अब कैसे अपनी पत्नी मेघा से कहेगा कि यह मेरे पिताजी है। उसने तो मेघा से यह कहा था कि मेरे माता पिता गुजर गए, कोई नहीं है मैं अकेला हूं। अब अचानक यह कैसे कहेगा कि यह मेरे पिताजी है। पूरा राज खुल जाएगा, सोच कर वह सिहर उठा। शादी के बाद उसने रुपए भी इसलिए भेजना बंद कर दिया ताकि मेघा को पता न चले। शादी की बात भी उसने अपने माता पिता से नहीं बताई थी।

मेघा एक अमीर घर की पढ़ी-लिखी आधुनिक विचार की लड़की है। जब दोनों एक ही कॉलेज में पढ़ते थे तब से दोनों में प्यार हुआ और नौकरी करने के पश्चात उससे शादी की। उसने मेघा के माता-पिता से भी यही कहा था कि “मैं अकेला हूं, मेरा कोई नहीं है।” उसे यह कहते हुए शर्म आ रही थी कि मेरे पिता गरीब है और मजदूरी करके मुझे पढ़ाया।

“आपको मना किया था ना कि आप शहर मत आइए फिर क्यों आ गए?” अपने दांत पीसते हुए कमल ने अपने पिता रघुनाथ से कहा।
“तेरा हाल चाल लेने आए हैं बेटा। कई महीनों से तुमने ना रुपए भेजे हैं और ना ही चिट्ठी लिखी है। तुम्हारी मां बहुत चिंता कर रही थी इसलिए मुझे भेज दिया। मैं तो आना नहीं चाहता था।” रघुनाथ ने दुखी होते हुए जवाब दिया।
“यह तुम्हारे साथ कौन है और किस से बात कर रहे हो कमल।” किसी से बात करने की आवाज सुनकर मेघा कमरे से बाहर निकल आई तो देखा कमल के साथ कोई बुजुर्ग है।
“कोई नहीं, यह हमारे गांव का एक गरीब किसान है। पहचान का है। कह रहा है शहर आया था किसी काम से तो मुझसे मिलने चला आया।” अपने शब्दों को चबाते हुए, आंखें झुका कर ही कमल ने कहा।
“तू.. ये.. क्या.. कह रहा..” बात पूरी होती इससे पहले ही कमल ने टोक दिया और अपने नौकर से कहा “इनको जरा सर्वेंट क्वार्टर में ले जाओ और वहीं पर रहने की व्यवस्था कर दो।”

मेघा को शक हुआ कि “आज तक कोई गांव से हमारे घर में नहीं आया। आज अचानक यह बुजुर्ग कैसे चले आए, जरूर कुछ ना कुछ दाल में काला है। कमल मुझसे आंखें चुरा कर बातें क्यों कर रहा है? ऐसा लग रहा है उसके मन में कुछ है।”

मेघा के मन में कई सवाल बुलबुले की तरह उठ रहे थे और गायब हो रहे थे। कमल के ऑफिस चले जाने के पश्चात वह अपनी जिज्ञासा को नहीं रोक पाई और स्वतः ही उसके कदम सर्वेंट क्वार्टर की ओर चल पड़े। उसने सर्वेंट क्वार्टर में जाकर देखा वह बुजुर्ग बहुत उदास होकर चुपचाप बैठा हुआ है। मेघा को देखकर हड़बड़ी में उठ कर खड़ा हो गया और कहा “आप इस घर की मालकिन है? साहब की पत्नी है?”
“जी, मैं उनकी पत्नी हूं मेघा। पर आप कौन हैं? क्या नाम है आपका? कृपया मुझे बताएंगे?” मेघा ने बड़े ही शालीनता से पूछा।
” मैं.. मैं.. रघुनाथ, रघुनाथ चौधरी।”
मेघा को रघुनाथ चौधरी नाम सुनकर थोड़ा सा खटका लगा। वह कुछ याद करने की कोशिश करने लगी। हां… याद आ गया.. कमल के पिता का नाम ही तो रघुनाथ चौधरी है। आश्चर्य से मेघा की आंखें बड़ी बड़ी हो गई और मन ही मन सोचने लगी “अच्छा.. तो.. ये कमल के पिताजी हैं।”

रघुनाथ के चरण स्पर्श करने के लिए मेघा झुकी तो रघुनाथ थोड़ा सा पीछे हट गया और आश्चर्य होते हुए कहा “अरे.. आप क्या कर रही हैं? मेरे चरण क्यों स्पर्श कर रही हैं? मैं ठहरा गांव का एक निर्धन मजदूर आदमी! आप तो मुझे जानती भी नहीं है।”
“सच.. सच बताइए! आप कमल के पिताजी हैं ना? लक्ष्मीपुर में रहते हैं? सच बताइएगा, मुझसे झूठ मत बोलिएगा!”
“हां. नहीं.. आपको किसने बताया मैं कमल का पिता हूं!”
“कमल और हम एक ही कक्षा में पढ़ते थे। पिता का नाम लिखते समय हमेशा वह रघुनाथ चौधरी लिखता था, वह बात मुझे अभी भी याद है।”
मेघा की बातें सुनकर रघुनाथ की आंखों की कोरें गीली हो गईं। दो बुंदे गालों पर लुढ़कने के लिए बेचैन थी परंतु रघुनाथ ने अपनी उंगलियों से उन बूंदों को पोंछ दिया। भरी हुई आवाज में उसने कहा “अब.. जब बेटा ही पिता का परिचय देना नहीं चाहता है तो आप मेरा परिचय जान कर क्या करेंगी? उसने शादी की हमें यह भी नहीं मालूम। हम तो इस आस में बैठे रहे कि एकदिन धूमधाम से बेटे की शादी करेंगे। अब बेटा बहुत बड़ा इंसान बन गया, अमीर बन गया, बहुत ऊंची इमारत में रहने लगा, हम गरीब को पहचान कर अपनी इज्जत पर धब्बा नहीं लगाना चाहता है, इसलिए मेरा यहां से जाना ही उचित है।”
“आप कहीं नहीं जाएंगे पिताजी! आप यहीं पर रहेंगे। यह आपका बेटा नहीं, आपकी बहू कह रही है।” कहते-कहते मेघा की आंखें नम हो गईं।

शाम को जब ऑफिस से कमल घर आया तो माथे पर चिंता की लकीरें थी। उसने मेघा से पूछा “गांव का वह आदमी चला गया या अभी भी है?”
मेघा समझ गई कि कमल चिंतित है। उसने कमल की मन की बातें जानने के लिए थोड़ा सा झूठ बोला “हां चला गया और मैंने रोका भी नहीं! जाने की बात कर रहा था तो मैंने कह दिया आपकी मर्जी है।”
“यह तुमने बहुत अच्छा किया मेघा। मुझे पता है कि तुम बहुत समझदार हो। खामखा मुसीबत मोल लेने की क्या जरूरत है। गांव का कोई आकर कहेगा कि मैं तुम्हारे पहचान का हूं और मेरे यहां रुक जाएगा मेरी परेशानी बढ़ाने के लिए, यह कहां तक उचित है? मेरे पास इतनी फुर्सत है क्या जो गांव के हर व्यक्ति का मैं ध्यान रखने लगूं।” कमल ने चिढ़ते हुए कहा।
“आपका कहना बिल्कुल उचित है कोई भी आकर कहेगा कि मैं गांव का हूं और उसकी आव भगत करनी पड़ेगी यह तो जरूरी नहीं है।” मेघा मन ही मन मुस्कुरा रही थी।
“यूं ही बात ही करती रहोगी या कुछ चाय वाय पिलाओगी। दिन भर का थका हुआ हूं।”
“हां.. हां.. चाय बना कर लाती हूं। आप डाइनिंग टेबल पर बैठ जाइए। वहीं पर चाय लाती हूं।”

कमल ने जैसे ही डाइनिंग रूम में प्रवेश किया एकदम ठिठक कर रुक गया, सामने अपने पिताजी रघुनाथ को बैठे हुए देखकर। फिर धीरे-धीरे जाकर वह एक कुर्सी पर बैठ गया। रघुनाथ जैसा बैठा था वैसे ही बैठा रहा। उसने कुछ नहीं कहा, बहू ने बात करने से मना कर दिया था। थोड़ी देर के बाद मेघा चाय लेकर आई। एक कप रघुनाथ की ओर और एक कप कमल की ओर बढ़ाते हुए कहा “इन्हें पहचानते हैं आप? यह मेरे ससुर जी हैं, आप शायद नहीं पहचानते हैं पर मैं इनको पहचान गई। आपसे परिचय करा देती हूं।”
“कैसी बात कर रही हो मेघा? मैंने तो तुम्हें पहले ही बताया है मेरा कोई नहीं है मैं अकेला हूं।” सिर झुका कर आंखें चुराते हुए कमल ने कहा।

कमल की बात सुनकर अब मेघा को बहुत क्रोध आया। क्रोधित होते हुए बोल पड़ी “आपको शर्म नहीं आती है ऐसी बातें करते हुए। जब से मेरी शादी हुई है तब से मैं झूठ सुन रही हूं। आप मुझसे झूठ पर झूठ बोले जा रहे हैं और कब तक अपने आप को इस तरह से छलते रहेंगे। आप स्वयं को तो छल ही रहे हैं साथ साथ मेरे साथ छल कर रहे हैं। माता पिता के साथ इस तरह का बर्ताव करते हुए आपको जरा भी शर्म नहीं आई। आपके ह्रदय ने आप को जरा भी नहीं धिक्कारा। जिस माता पिता ने इतनी मेहनत करके, मजदूरी करके, दूसरों से भीख मांग कर आपको पढ़ाया लिखाया और एक काबिल इंसान बनाया, आज उन्हीं का परिचय देते हुए आपको शर्म आ रही है? मुझे अगर यह पता होता तो मैं आपसे कभी शादी नहीं करती। मैंने आपसे शादी इसीलिए की थी कि आप एक अच्छे इंसान हैं, यह सोचकर नहीं कि आप कलेक्टर है। मेरे पास किसी चीज की कमी नहीं थी कि मैं एक कलेक्टर के पीछे भागूं। महलों में रहते रहते आप यह भी भूल गए की इंसानियत भी कोई चीज है। आप मुझसे सच बता देते और मेरे माता-पिता से भी सच बता देते तो वे आपको गर्व के साथ स्वीकार कर लेते। अब आप क्या बताएंगे मेरे माता-पिता को? एक लड़की के लिए आपने अपने माता-पिता तक को भुला दिया और त्याग दिया? किसी से प्यार करना अच्छी बात है परंतु प्यार में इस हद तक गिर जाना किसी अच्छे इंसान की निशानी नहीं है। अरे.. प्यार तो इंसान को त्याग सिखाता है अपनों को त्यागना नहीं। एक बात ध्यान से सुन लीजिए, पिताजी अब यही रहेंगे। आप कल जाकर गांव से मां को भी ले आइए। आगे से दोनों यहीं रहेंगे, वरना.. मैं नहीं रहूंगी यहां पर। आपको पूरी जिंदगी अकेला ही रहना पड़ेगा।”

कमल सिर झुकाए चुपचाप बैठा रहा। उसने चोर नजरों से अपने पिता की ओर देखा। उनकी आंखों से बुंदे टपककर टेबल पर गिरने लगीं। वह उठकर अपने पिता के पास गया और उनसे लिपट कर कहने लगा “पिताजी मुझे क्षमा कर दीजिए! मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई। मैं मेघा से बहुत प्यार करता था, पर.. डरता था कि मेघा को अगर असलियत पता चल गया तो मुझे छोड़ कर चली जाएगी, इसलिए मैं सच नहीं कह पाया। आज मेघा ने मेरी आंखें खोल दी! मुझे क्षमा कर दीजिए।”

सुबह उठकर तैयार होकर कमल निकल पड़ा गांव की ओर अपनी मां को लेने के लिए! दरवाजे पर खड़ी मेघा ने कमल को जाते हुए देख कर आत्म संतोष से भर उठी। उसके होठों पर एक प्यारी सी मुस्कान थी। मेघा को मुस्कुराती हुई देख कर रघुनाथ खुशी से भर उठा। मन ही मन सोचने लगा “अपना तो पराया सा हो गया। आखिर पराई लड़की ने हाथ थाम लिया। कौन कहता है पराई लड़कियाँ बुरी होती हैं? अपनी सगी नहीं हो सकती। उसे भी अपनत्व चाहिए। जरूरत है उस पर अपनत्व लुटाने की..!!”

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- paul.jyotsna@gmail.com

2 thoughts on “पराई लड़की

  • राजकुमार कांदु

    बस एक शब्द …..वाह !

    • ज्योत्स्ना पाॅल

      आभार कांदू जी।🙏🌷

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