गीतिका/ग़ज़ल

नया महाभारत

अर्जुन और शिखंडी में मन, भेद नहीं कर पाता है
राजनीति के हाट में बगुला, भगत बना मुसकाता है

शब्द बाण के आघातों से, भीष्म तड़पते शैय्या पर
चक्रव्यूह के द्वार के बाहर, अभिमन्यु मर जाता है

राष्ट्रवाद की चौसर पर सब, दाँव लगाये बैठे हैं
और बिलखती पांचाली से, नहीं किसी का नाता है

उपदेशों की गीता थामे, कृष्ण बसे हर महफिल में
कर्मयोग की परिभाषा को, समझ न कोई पाता है

राज-दंड हाथों में थामे, सभी सिंहासन ढूँढ़ रहे
धृतराष्ट्रों में नज़र ना कोई, थर्मराज इक आता है

कुरुक्षेत्र में ‘शरद’ फँसा है, कैसे बेड़ा पार लगे
जब शातिर शकुनि हाथों में, पाँसों को सहलाता है।

शरद सुनेरी