लघुकथा

घोंसला

सुबह सैर करती हुई स्नेहा की मुलाकात सैर करते हुए एक ऑस्ट्रेलियन दम्पत्ति से हुई. वहां के रिवाज के अनुसार दोनों ने ‘गुड मॉर्निंग’ से स्नेहा का अभिवादन किया. स्नेहा ने भी मुस्कुराकर अभिवादन स्वीकार किया और ‘गुड मॉर्निंग’ कहा. दम्पत्ति उससे कम उम्र के थे, इसलिए बस स्टॉप को जाने वाली सीढ़ियों पर दौड़ते हुए चढ़ गए. उनको दौड़कर सीढ़ियां चढ़ते देखकर स्नेहा अपने अतीत में विस्मृत हो गई.
आज भले ही सीढ़ियां चढ़ने में उनको मुश्किल होती हो, लेकिन हमेशा से ही ऐसा नहीं था. वह और समीर भी दौड़कर सीढ़ियां चढ़ते थे. आज से पचास साल पहले उन्होंने अपना घोंसला बनाया था. तब उनके घोंसले में ससुर और दो देवर भी विराजमान थे. स्नेहा और समीर भाग-भागकर सारी जिम्मेदारियां पूरी करते थे.
समयानुसार इस घोंसले में नन्हे परिंदे भी आ गए. छोटे-से घोंसले में वे भी समा गए, क्योंकि वह स्नेह-प्यार के तिनकों से निर्मित था. एक-दूसरे की परेशानी या कि कहें मजबूरी को सब महसूस करते थे.
”आज मैं तीसरी बार आया हूं आपकी रजिस्ट्री देने, आजकल घर में कोई रहता नहीं है क्या?” एक दिन पोस्टमैन ने स्नेहा के स्कूल से आने के बाद रजिस्ट्री देते हुए कहा था.
”अब ससुर-देवर यहां से चले गए हैं.” स्नेहा ने संकोच से कहा था.
”देवर जी की नौकरी जो लग गई है! मैंने उन्हें बैंक में देखा है.” पोस्टमैन ने व्यंग्य से कहा था.”
”बात ये नहीं है. बच्चे बड़े हो रहे हैं, हमारी ही दिक्कत को देखकर उन्होंने किराये पर घर ले लिया है, क्वार्टर हमारे नाम था न!” न चाहकर भी स्नेहा ने सफाई दी थी.
समय का चक्र चलता गया. ओहदा बढ़ने के साथ क्वार्टर भी बढ़ता गया और रहने वाले कम होते गए. नन्हे परिंदों ने भी पंख पसार लिए थे. वे भी अपनी-अपनी नौकरी पर विदेश चलते गए.
परिंदों ने अपने ही नहीं हमारे भी पंख पसारे थे. पहले संयुक्त परिवार के कारण हम कहीं नहीं निकल पाए, फिर बच्चों की पढ़ाई-शादी के कारण बंधे रहे. अब जमाना परिंदों का था. उनको मोबाइल के अतिरिक्त पंख भी मिल गए थे. जब-तब हमारी बुकिंग करके पहले सारा देश घुमाया, फिर विदेशों की बारी आई.
स्नेहा के स्नेह से पगे विचार थम ही नहीं रहे थे.
इतना ही नहीं वे पापा को फोन करके कह देते- ”पापा, कल वेलेंटाइन डे है, गुलाब भेज रहे हैं, ”आइ लव यू स्नेहा” कहते हुए एक गुलाब ममा को देना मत भूलिएगा. रात के कैंडिल डिनर की बुकिंग- होटल आशियाना, टेबिल नं.-14.” ऐसी ही पट्टी मुझे भी पढ़ाते.
मेरा दाहिनी आंख का केटरिक का ऑपरेशन होना था, वह भी उन्होंने हमें भारत में नहीं करवाने दिया. ”ममा, वहां आप दो दिन में ही गैस के पास चली जाएंगी, आंख का नाजुक मामला है, ऑपरेशन यहीं आकर करवाइएगा. यहां हमें ‘वर्क फ्रॉम होम’ की सुविधा है, कभी मैं घर पर रहूंगी कभी विवेक, पैसों की चिंता नहीं है. हमें आपकी चिंता है.” बहू ने कहा था.
जैसे हमारे घोंसले में छोटे-बड़ों के लिए जगह निकलती गई थी, उनके घोंसले भी हमारे स्वागत के लिए विस्तृत हो जाते थे. जीवन की श्वेत-श्याम संध्या में अभी भी रंगीनियां बिखरी हुई थीं. यह घोंसला भी स्नेह-प्यार के तिनकों से जो निर्मित था.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “घोंसला

  • लीला तिवानी

    मिलकर रहने और चलने में ही सबकी भलाई निहित है. यह बात बच्चों को संस्कारों से ही समझ में आती है. जो संस्कार बच्चों को दिए हैं, वही सामने आते हैं. बच्चे अपने अभिभावकों से ही सब कुछ सीखते हैं. स्नेहा-समीर को भी वैसा ही तोहफ़ा मिला. मिला घोंसले में सम्मानपूर्वक स्थान.

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