संस्मरण

यादों के झरोखे से-1

इनाम की अठन्नी

आज से लगभग पचास वर्ष पूर्व की बात है, जब मैं छठी कक्षा में पढ़ती थी। तब हिन्दी और संस्कृत के अध्यापक प्रायः धोती पहना करते थे और पंडित जी कहलाते थे। हमारे हिन्दी के अध्यापक भी उसका अपवाद नहीं थे। पढ़ाते बहुत अच्छा थे। एक-एक बात इतने आत्मविश्वास से कहते थे कि मन में घर कर जाती थी। कविता-वाचन में तो उनका कोई सानी ही नहीं था। हमें कक्षा में ही कवि-सम्मेलन का आनंद आ जाता था। हमारी हिन्दी की पाठ्य-पुस्तक का आठवां पाठ सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा रचित कविता “झांसी की रानी” थी। उस कविता के अठारह अनुच्छेदों को जिस संगीतमय सुर से उन्होंने पढ़ाया, वह भुलाया नहीं जा सकता। तीन दिन तक वह कविता चली और तीन दिन तक कक्षा का वातावरण संगीतमय हो चला था। जब वह पढ़ा रहे थे तो एक दिन हमारे प्रधानाचार्य, जिनको हम आचार्य जी कहा करते थे, कक्षा के सामने से निकले। निकले क्या खड़े ही रहे और कविता-वाचन का आनंद लेते रहे। फिर अंदर आकर उन्होंने पंडित जी के कविता-वाचन की तो भूरि-भूरि प्रशंसा की ही, छात्रों के अनु-वाचन की भी जी खोलकर प्रशंसा की। अगले दिन प्रार्थना-सभा में भी इस बात का उल्लेख करना न भूले और एक उद्घोषणा कर दी कि अगली बालसभा में छठी कक्षा के छात्रों के लिए कविता-पाठ प्रतियोगिता होगी। सभी प्रतियोगी “झांसी की रानी” कविता का पाठ करेंगे। जिसका कविता-पाठ सबसे अच्छा होगा उसे अठन्नी इनाम में दी जाएगी। इनाम की रक़म पर किसीका ध्यान नहीं था, और फिर उन दिनों अठन्नी में बहुत कुछ आ भी जाता था। कविता के रसिक छात्र-छात्राएं तैयारी में जुट गए। धुन सिखाने और अभ्यास कराने में पंडित जी ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। जो भी उनके पास सहायता के लिए गया, संतुष्ट होकर आया। आखिर बालसभा का दिन आ ही गया। धड़कते दिल से विद्यालय के लिए प्रस्थान किया। मेरे पिताजी भजन बहुत अच्छे गाते थे। मेरी संगीत की शिक्षा वहीं से प्रारम्भ हुई थी। जिस दिन से यह कविता पढ़ानी शुरू की गई थी, कविता की धुन मेरे मन में बस गई थी। मैंने घर जाकर पिताजी को सुनाई। उन्हें भी धुन बहुत अच्छी लगी। उसके बाद रोज़ कई-कई बार सुनते थे। इसके दो कारण थे। एक तो उन्हें भी धुन भा गई थी, दूसरे इसी बहाने मेरा एक अच्छे गीत का अभ्यास हो रहा था। जब मैंने प्रतियोगिता की बात बताई तो अभ्यास और पैना हो गया। जहां तक इतनी लंबी कविता के याद होने की बात थी, कक्षा में पढ़ते-पढ़ते मुझे पूरी कविता याद हो गई थी, फिर घर में सबके सहयोग ने गीत और गले में निखार ला दिया था। पिताजी की शुभकामनाओं और आशीर्वाद के साथ बड़े आत्मविश्वास के साथ विद्यालय गई और प्रतियोगिता में प्रतिभागिता की। अनेक प्रतिभागियों ने अपनी किस्मत आज़माई थी। उस दिन शायद किस्मत को मैं भा गई थी, इसलिए उसने मेरा साथ निभाया। मेरी प्रस्तुति की बेहद तारीफ हुई। इतनी लंबी कविता गाने में मैं कहीं भी अटकी नहीं थी, जबकि कई प्रतिभागी तो एक-दो अनुच्छेदों से आगे ही नहीं बढ़े। एक प्रतिभागी ने बारह अनुच्छेदों तक छलांग लगा ली थी। अंत में मेरी बारी आई और मैं अपने उस तथाकथित पहले कवि-सम्मेलन में सफलता के झंडे गाड़ पाई थी। इनाम की अठन्नी मुझे मिली थी। उस अठन्नी को पाकर मैं फूली नहीं समाई। बाद में तो इस जादुई धुन में मेरी हिन्दी-सिन्धी की दो-तीन लंबी राष्ट्रीय कविताएं भी बनीं जो कवि-सम्मेलनों की जान बन गईं। मैं अपने ज्यॉमेट्री बॉक्स में इनाम की अठन्नी डालकर उछलती-उछलती घर वापिस आई। फिर तो मुझे घर में भी बहुत इनाम मिले। पहला इनाम ममी की तरफ से मेरा मनपसंद खाना, दूसरा बड़ी बहिन की तरफ से एक सुंदर-सा कढ़ाई किया हुआ रूमाल, जो कई वर्षों तक मैंने संभाल कर रखा था और तीसरा पिताजी की तरफ से एक अठन्नी उस दिन और फिर रोज़ के जेबखर्च में इज़ाफा। यह तो चक्रवृद्धि ब्याज की तरह था।

आप जानना चाहेंगे कि आज ये बातें मुझे क्यों याद आ रही हैं। दरअसल छठी कक्षा की पाठ्य-पुस्तक की पुस्तक के दसवें पाठ के रूप में जब मैंने यह कविता हर वर्ष की तरह उसी संगीतमयता के साथ पढ़ाई तो सारा वातावरण सचमुच मधुर संगीतमय हो गया था। कल इस संगीतमयता का तीसरा दिन था। इन दिनों में एक विशेष बात हुई थी। जो छात्र प्रायः कक्षा में आने से कतराते थे, वे भी इन दिनों में बाकायदा पुस्तक खोलकर तन्मयता से पढ़ रहे थे। उसके बाद सभी प्रश्न-उत्तर भी पूछे-बताए जा चुके थे। मेरी तरफ से तो यह काम सम्पूर्ण हो चुका था, लेकिन आज कक्षा में आते ही मुझे कुछ और नज़ारा मिला। सभी छात्र-छात्राएं वही कविता खोले बेसब्री से मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। मेरे आते ही पांच छात्राएं खड़ी हो गईं और कहने लगीं, “मैडम, हम कविता सुनाना चाहती हैं।” मुझे और क्या चाहिए था! मेरे सामने वही पचास साल पहले वाला दृश्य उपस्थित हो गया, जबकि मैंने भी खड़े होकर कहा था कि “सर, मैं कविता सुनाऊं?” मैंने पूछा, “बिना देखे सुनाओगी?” उत्तर हां में मिला। फिर तो पांचों ने बड़े मधुर स्वर में उसी धुन में कविता सुनाई। पांच अनुच्छेद तक तो उनकी गाड़ी पटरी पर चली, फिर डगमग होने लगी। मैंने पुस्तक खोलने की अनुमति दे दी। फिर प्रवाह चल निकला। एक छात्रा ने तो कह ही दिया ” मैडम, मैं तो पूरी कविता याद करूंगी। जब आप छठी कक्षा में इतनी बड़ी कविता याद कर सकती हैं तो हम क्यों नहीं कर सकतीं?” फिर तो पूरी कक्षा ने कहा, हम भी याद करेंगे। मज़े की बात यह है कि हमारे समय से ही छठी कक्षा में यह कविता हमेशा से ही रही है, भले ही पाठ्य-पुस्तक अनेक बार बदल चुकी है। 25 वर्ष से तो हर वर्ष मैं यह कविता इसी तरह पढ़ा रही हूं, लेकिन बहुत अच्छे-अच्छे सुरीले छात्र-छात्राएं होने पर भी ऐसा नज़ारा नहीं मिला। इस नज़ारे ने मुझे एक बार फिर अपनी पचास वर्ष पहले वाली “इनाम की अठन्नी” याद दिला दी.

यह रचना नवभारतटाइम्स.कॉम में Jul 3, 2010 को प्रकाशित हुई थी.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “यादों के झरोखे से-1

  • लीला तिवानी

    जब यह रचना प्रकाशित हुई थी, तब अपना ब्लॉग अभी शुरु भी नहीं हुआ था.

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