कविता

नदी का सफर

नदियां भी तो चलती है
पिघलती है
उद्गम से निकलती है
पहाड़ों से गिरती है
रास्ते ऊबड़ – खाबड़ है
पत्थरों से टकराती है
चोट खाती है
तोड़ती है फोड़ती है
कुछ को साथ बहा ले जाती है
चलती है बहती है

किनारों को काटती छांटती है
बेगवती नदियां बड़ी तेज से
गर्जन तर्जन करती
पहाड़ों से जंगलों से
गाँव से शहरों से होकर गुजरती
और मैदानों में जाकर
नदियां जवां हो जाती है

खुद ही रास्ता गढ़ती है
कहीं कुछ बहा ले जाती है
तो कहीं छोड़ जाती है तलछट
नद और नालियां

नदियों से नहरें निकाली जाती है
नदियां खेतों को सींचती जाती है
नदियां सभ्यता को जन्म देती है
पालती है पोसती है
सींचती जाती है

नदियों संग संस्कृति भी तो बहती जाती है
नदियों की गोद में
जीव जंतु भी पलते है
रास्ते भर वन उपवन
खेत खलिहान को जीवन देती है

इंसान भी नदियों से ही तो पलता है
नदियों के दोहन शोधन से
प्रगति विकास के पथ पर चलता है

नदियां बहती है चलती रहती है
अथाह जलराशि निरन्तर
बहता रहता है
नदियां बहते-बहते
सागर में मिलने जाती है
खुद राह बनाकर चलने की
अनमोल सिख हमें दे जाती है।

*बबली सिन्हा

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