कविता

कविता – सोच रहा हूँ

एक दिन मेरे दोस्त को, मैं लगा गुमसुम

बोला वो, क्या सोच रहे हो तुम

बातें बहुत सी हैं

सोच रहा हूँ, क्या सोचूँ, बोला मैं।

अलग-अलग हैं कितनी बातें

क्या-क्या हैं नये सन्दर्भ

विषयों की बिबिधता इतनी

चुनना बना जी का जाल।

दुःख पे जाऊँ

जो लम्बे समय तक रहता है याद

या सुख पे, जो विस्मृत हो जाता है जल्दी

यादों से हर बार।

पिछले क़रीब समय में, क्या मिला मुझे

जोर शायद इसपे डालूँगा

परन्तु संशय बना है अभी भी

क्या यही है सही विषय सोचने का।

झंझावात ये जटिल

झकझोर रही कपाल

सचमुच सोचना क्या है मुझे

प्रश्न है ये जंजाल।

डॉ. रूपेश जैन ‘राहत’

डॉ. रूपेश जैन 'राहत'

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