लघुकथा

ईगो

“ईगो”

कस्तूरबा अस्पताल के प्राइवेट वार्ड के रूम नंबर 10 के सामने आकर दीक्षा के कदम सत: ही रुक गए। अपनी सासू मां सुहासिनी के बेड के पास ही कुर्सी पर सलिल बैठा हुआ था। सलिल को देखकर ही उसके कदम रुके और वह मुड़कर वापस जाने का सोच रही थी कि अचानक सासु मां के चेहरे पर उसकी नजर पड़ी तो उसके मन में कर्तव्य बोध जाग उठा। वह मन ही मन सोचने लगी “सलिल के कारण क्यों लौट जाऊं मैं? उसके कारण क्यों मैं अपने कर्तव्यों का निर्वाह न करूं? मैंने ऐसी कोई भूल नहीं की कि मुझे उससे मुंह छुपा कर भागना पड़ेगा।”

वह अंदर जाकर अपनी सासू मां के पास खड़ी हो गई। उनके बालों में हाथ फेरते हुए पूछा “अब आप कैसी हैं मम्मी? अचानक यह सब कैसे हो गया?”
“मुझे भी नहीं पता बेटा.. अचानक बहुत ज्यादा खून जाने लगा तो तुम्हारे पापा जी और सलिल मिलकर मुझे अस्पताल ले आए। डॉक्टर ने कहा बच्चादानी निकालना पड़ेगा। तुम्हें कैसे पता है बेटा मेरे बारे में? किसने बताया, सलिल ने बताया है क्या?” सुहासिनी ने धीरे-धीरे पूछा।
“नहीं मम्मी.. पापा जी का फोन आया था। कभी कभी पापा जी मुझसे बात कर लिया करते हैं। उन्होंने ही बताया कि आप के बच्चा दानी का ऑपरेशन हुआ है।”
“आज तुम ऑफिस नहीं गई?”
“नहीं मम्मी.. सोचा जब तक आप अस्पताल से ठीक होकर घर नहीं पहुंच जाती, तब तक मैं रोज आकर आपके पास रहूंगी। इसलिए लंबी छुट्टी ले ली है। अब आप चिंता मत करिए। मैं आ गई हूं मैं आपका देखभाल करूंगी।”

दिनभर अस्पताल में रुक कर अपनी सासू मां की सेवा मे लगी रही दीक्षा।
शाम हुई तो थोड़ी देर के लिए उसे घर जाना है तो सुहासिनी से कहा “मम्मी में एक घंटे के लिए घर जाना चाहती हूं। एट घंटा तो आप रह लेंगी न.. मेरे बिना। फिर मैं रात भर आपके पास रहूंगी।”
“हां बेटा चली जाओ.. चिंता करने की जरूरत नहीं है। थोड़ी देर में तुम्हारे पापा जी भी आ जाएंगे।” धीरे से मुस्कुरा दिया सुहासिनी ने।

दीक्षा कमरे के दरवाजे तक पहुंची तो उसके कानों में आवाज पड़ी “देखा सलिल.. मैं न कहती थी.. हमारी बहु बहुत अच्छी है। तू तो बेकार में उससे उलझ पड़ा।”
दीक्षा दरवाजे से निकल कर दीवारों से सटकर खड़ी हो गई सासु मां की बात सुनने के लिए।
पुन: उसके कानों में आवाज पड़ी “अगर बहू ने कह दिया था तुझे कि सुबह उठकर उसके काम में हाथ बटाना है तो क्या गलत कहा। तुम दोनों ही नौकरी करते हो दोनों को एक दूसरे की सहायता करनी चाहिए। तू है कि देर तक सोता रहता है। बहू अकेली किचन में जाकर सुबह का नाश्ता बनाती है फिर दोपहर का खाना बनाकर रख कर जाती है। टिफिन बॉक्स तैयार करती है। तू देर से उठता है फिर समाचार पत्र लेकर बैठ जाता है और फिर मोबाइल में अपने मनपसंद गाने सुनता रहता है। वह भी तो इंसान है उसका भी तो मन होता होगा न थोड़ी देर बैठ कर शांति से समाचार पत्र पढ़े या गाना सुने।”
“तो क्या मम्मी.. मैं सुबह उठकर किचन में जाकर खाना बनाना शुरू कर दूं। यह सब नहीं होगा मुझसे। यह मेरा काम नहीं है।” झुंझलाकर सलील ने कहा।
“तुझे खाना बनाने को किसने कहा? थोड़ा सा हाथ बटाने को ही कहा था उसने। अब जमाना बदल गया है बेटा। अपना ईगो एक तरफ रखो और सामंजस्य बैठा कर चलने का प्रयास करो। हमारा जमाना और था। वैसे भी मैं गृहिणी थी तो सब कुछ संभाल लेती थी। अब जब दोनों कामकाजी हो तो यह सब तो आदत डालनी पड़ेगी। वो भी तो आखिर इंसान है, उसे भी तो थकान होती है। बहू को तूने इतना बुरा भला कहा कि वो रूठ कर चली गई। और तू है कि एक बार मनाने भी नहीं गया और न ही उसे लेकर आया। हमने और तुम्हारे पापा ने कितनी बार तूझे समझाया पर.. तू अपनी जिद पर अड़ा रहा। अब देखा न मुसीबत के समय कैसे दौड़ कर चली आई है। अगर वह दिल से बुरी होती तो आती क्या कभी? मुझे पता है वह दिल की बहुत अच्छी और सच्ची है। मैंने ही शायद तेरी अच्छी परवरिश की, इसलिए तू इतनी जिद्दी बन गया।” सिर झुकाकर सारी बातें सुन रहा था सलिल।

सासु मां की बातें सुनकर बरबस ही दीक्षा की आंखें बरस पड़ी। अश्रु जल, मन में जमी हुई व्यथा के साथ साथ अहंकार रूपी धूल की परत को भी धोकर स्वच्छ कर दिया।

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- paul.jyotsna@gmail.com