कल और आज
कल और आज
जी रहा यंत्रवत जीवन को ,
दो पल सुकून के ढूंढ रहा |
अनजान अजनबी सा मानव ,
अब भी बिल्कुल न चेत रहा |
युग है संचार साधनों का ,
मानव भी है मशीन जैसा |
बुद्धि अशुद्ध कर इतराता ,
रीता – रीता प्रस्तर जैसा |
बुद्धि के बल पर मानव ने ,
साधन सुविधा में वृद्धि करी |
सुविधाओं के आकर्षण में ,
जीवन शैली ही नष्ट करी |
अंदर की संवेदना मरी ,
भावना श्रोत भी सूख गया |
रिश्तों में थी खुशबू मिठास ,
न जाने वह खो गयी कहाँ |
संस्कृति की सुदृढ़ रीत पावन ,
थी बाँधे हमको आपस में |
था आभावों में जीवन पर ,
फिर भी था एक सुकून उसमे |
धरती पर नदियों झरनों की ,
भरमार रहा तब करती थी |
जंगल में मंगल रहता था ,
खुशहाल फिजाएं रहती थी |
सुविधा का शिखर पा लिया है ,
पर हृदय हो गया है दरिद्र |
लक्ज़री गाड़ियाँ धन -दौलत ,
बंगला शोहरत पर रीता मन |
✍ ©मंजूषा श्रीवास्तव “मृदुल”
लखनऊ, उत्तर प्रदे