गज़ल
मलमल के कपड़े में लिपटी लोहे की तलवारों सा
चेहरा उसका फूलों जैसा और लहज़ा है खारों सा
है उसकी चालाकी या फिर मेरी नज़र का धोखा है
दुश्मन-ए-जां है मेरा वो फिर भी लगता है यारों सा
साथ-साथ चलके भी आपस में हम मिल न पाएँगे
हाल हमारा होगा आखिर नदी के दो किनारों सा
तेरी दुनिया से मेरी दुनिया का कोई मेल नहीं
मैं मिट्टी का इक जर्रा तू आसमान के तारों सा
न जाने क्या बात है तेरे कुर्ब में ओ हमराह मेरे
साथ तेरे हर एक मौसम लगता है मुझे बहारों सा
— भरत मल्होत्रा