कहानी

नन्हे मासूम सपने

‘पिंकी … पिंकी … इधर आ …’ सपना चिल्लाई। ‘क्या है … क्यों चिल्ला रही है … क्या हो गया ?’ लटकते हुए चुम्बक से सड़क पर गिरे हुए लोहे के कबाड़ को चिपकाते हुए और फिर उसे अपने कंधे से लटकते हुए मैले-कुचैले झोले में डालते हुए पिंकी सपना के पास आ गई थी। सपना साड़ियों के एक बहुत बड़े शोरूम के बाहर शो-विंडो में खड़े लड़कियों के बुतों को निहार रही थी जो बहुत ही खूबसूरती से सजाये गये थे। उन पर बहुत सुन्दर सूट और साड़ियां फब रहे थे। ‘क्या हुआ … क्यों बुलाया है … खड़ी क्यों है … काम नहीं करना …?’ पिंकी ने एक साथ कई सवाल दाग दिए थे। उधर सपना उन बुतों के देखते देखते बुत बन गई थी। वह एकटक उन बुतों को निहारे जा रही थी। ‘क्या हो गया है तुझे … पहले तो चीख चीख कर बुलाया और अब आ गई हूं तो जवाब नहीं दे रही’ कहते हुए पिंकी ने बुत बन के खड़ी सपना को जोर से झंझोड़ा। बुत बनी सपना में जैसे जान आई ‘पिंकी देख तो सही … कितनी सुन्दर लग रही हैं ये सब।’ ‘हांऽऽऽ … ओ री दैया … क्या गजब ढा रही हैं … अरे ये तो अपसराएं हैं … लगता है जैसे अभी बोल पड़ेंगी’ पिंकी भी सपना की भांति सपने में खो गई थी। इतने में शोरूम का गार्ड जो अन्दर किसी काम से गया था बाहर आ गया। बाहर आकर उसने कबाड़ इकट्ठा करने वाली लड़कियों को शोरूम की ओर निहारते देखा तो यूं लगा जैसे इन्द्र की सभा में अपसराएं नृत्य कर रही हैं और किसी काली बदली ने वहां झांकने की घृष्टता कर दी है। ‘ऐ तुम … हटो यहां से … चलो जाओ’ गार्ड जोर से चिल्लाया। सपना और पिंकी को इस तरह के झिड़कियां सुनने की आदत सी पड गई थी। गार्ड को बिना कोई प्रतिक्रिया दिये उन दोनों ने अपने कदम आगे की तरफ बढ़ा दिये थे।

उनके लिए यह कोई नई बात नहीं थी। उनके साथ ऐसा रोज़ नहीं बल्कि दिन में कई बार हो जाता था। पर चूंकि वे भी इन्सान थीं, वे भी सपने देखती थीं। फर्क इतना था कि लोग रात को सपने देखते हैं और वे दिन में भी देखा करती थीं। मैले-कुचैले कपड़े, खिचड़ीनुमा बालों, कंधे पर लटका कपड़ो से मेल खाता झोला और घर से निकलते ही हाथ में एक छोटी-सी राड जिसके सिरे पर शक्तिशाली चुंबक बंधा होता था उसे हाथ में लटकाए गलियों और सड़कों की खाक छाना करती थीं। घूमते घूमते थोड़ी देर में देख लेती थीं कि चुम्बक से लोहे का कितना कबाड़ चिपक गया है। जब चुम्बक भर जाता तो वे उस कबाड़ को अलग कर झोले में डाल लेतीं और फिर आगे बढ़ जातीं। कमाल तो यह है कि वे रोज़ निकलतीं और रोज़ ही उन्हें झोला-भर कबाड़़ मिल जाता।

ज़िन्दगियां रोज़ ही चलती हैं … कभी पैदल … कभी साइकिल पर … कभी बैलगाड़ी पर … कभी रिक्शा में …. कभी स्कूटर पर … कभी मोटरसाइकल पर … कभी कार में … और न जाने किन किन पर। कभी कभी तो घोड़े की घिसी हुई नाल भी चिपकी हुई मिलती थी। वाहनों में लगे लोहे के पुर्जे जब अपनी जिंदगी जी लेते तो मृत्यु को प्राप्त हो जाते। फिर डाॅक्टरनुमा मिस्त्री उनकी सर्जरी करके नये लोहे के पुर्जे लगा देते। अक्सर दौड़ते भागते वाहनों से कुछ कील और वाशर साथ उनका छोड़ देते और सड़़क पर बिछ जाते। यदि सड़क कोलतार की बनी होती तो गर्मियों में नरम हो जाती और लोहे के टूटे पुर्जे, कील और वाशर कोलतार में ही दफन हो जाते। अब इन्हें कोई तहजीब से तो दफन नहीं करता इसलिए कभी-कभी कील जैसी चीजें मुंह उल्टा करके बड़ी रहतीं और जब कभी कोई टायर इन पर से गुजरता तो इन पर कुर्बान हो जाता। सपना और पिंकी इंसानी स्कैवेंजर थे। जब सारा जहान सो रहा होता तो सपना और पिंकी अपना झोला लेकर सड़कें नापने के लिए निकल जाते।

‘सुबह-सुबह जाने से ज्यादा कबाड़ इकट्ठा होता है और कोशिश किया करो जब सड़कों और बाज़ारों की सफाई होती है उससे पहले ही निकल जाया करो। खासकर उन दुकानों के आसपास जहां साइकिलों की मरम्मत होती है, लेथ मशीनें लगी हैं, स्कूटर-कार ठीक करने वालों की दुकानें हैं, यानि जहां-जहां लोहे से जुड़ा काम होता है, वहां-वहां हमारी रोजी-रोटी मिलेगी’ माता-पिता अनुभव के आधार पर समझाते। कभी कभी तो मुंह-अंधेरे ही दोनों निकल जातीं। उस समय सुनसान सड़कों पर कुत्ते राज़ करते हैं। शुरू शुरू में सपना और पिंकी कुत्तों से डरते थे पर धीरे-धीरे कुत्ते भी उन्हें पहचानने लग गए थे और उन पर नहीं भौंकते थे। जल्दी ही उनके झोले कबाड़ से भर जाते और वे उन्हें लेकर एक बार घर पर वापिस आ जातीं। फिर चाय डबलरोटी खाकर दुबारा निकल जातीं, उनके नसीब में नाश्ते की वैरायटियां नहीं थीं। काम की उनके पास कोई कमी नहीं थी। पैदल चलने से स्वास्थ्य भी ठीक रहता था। पर यह ध्यान रखना पड़ता था कि कहीं पैरों में कोई कील या नुकीली चीज न चुभ जाए जिससे सैप्टिक का खतरा हो जाये। एक बार पैरों में नुकीली चीज चुभ जाने से सपना के पैरों में बहुत खून बहा। तब उसके पिता उसे डाक्टर के पास ले गये और टिटनेस का इंजैक्शन लगवाया था। तब से वे दोनों हर मौसम में सख्त जूते पहन कर ही काम पर जाती हैं।

‘पिंकी … उस दुकान में सजी हुई लड़कियों की तरह हम भी सज सकतीं क्या ?’ सपना ने पूछा। ‘पागल हो गई है … अपनी सूरत देखी है … कभी कोयला घिस कर संगमरमर बना है क्या?’ पिंकी ने पूछा। यह ज्ञान संभवतः उसे अपने समाज में ही मिला होगा। सपना और पिंकी को कई महीनों तक एक ही कपड़े पहने रहना पड़ता। मैले कुचैले कपड़े यदि कहीं से फट जाते तो मां सिल देती थी। यही हाल झोले का होता। ‘सुन पिंकी … हम कोयला नहीं हैं … हम तो संगमरमर हैं जिस पर कोयले की कालिख चढ़ गई है। तूने सुना नहीं संगमरमर से बना ताजमहल भी मैला होता जा रहा है। उस संगमरमर की भांति हमारा भी यह हाल हो गया है। कुछ मुश्किल थोड़े ही है। कभी साबुन लगा कर नहा-धो लो तो पता चले। ‘साबुन कहां से लायेंगे … साबुन खरीदने के लिए एक दिन की दिहाड़ी खर्च हो जायेगी’ पिंकी ने कहा।

‘सुना है अमीर लोग साबुन एक बार इस्तेमाल करके फेंक देते हैं। उनके घर के बाहर जो डस्टबिन लगा होता है उसमें खोजेंगे तो मिल जायेगा। चल, चलकर देखते हैं।’ सपना बोली। ‘चलो’ पिंकी ने कहा और दोनों उस जगह पहुंच गये जहां कोठियां और बंगले थे। वहां कोठियों के बाहर लगे सुन्दर से डस्ट-बिनों में साबुन की तलाश करने लगीं। एक कोठी के बाहर जब वे साबुन की तलाश कर रही थीं तो अन्दर से भारी-भरकम भौंकने की आवाज़ आई। एक बार तो सपना और पिंकी भी डर गईं। अभी तक तो उनका सामना सड़क के कुत्तों से होता था। पर कोठी वालों के कुत्ते शेर से कम नहीं थे। उन्हें साबुन की ललक थी। दरवाज़ा बन्द था। कुत्ता तो बाहर नहीं आ सकता था पर उसके भौंकने से गार्ड जरूर निकल कर बाहर आया और उसने देखा कि दो बालिकाएं डस्टबिन में से कुछ ढूंढ रही हैं। ‘क्या ढूंढ रहे हो बच्चो?’ गार्ड ने पूछा। ‘अंकल, हमने सुना था कोठियों में रहने वाले साबुन को एक बार इस्तेमाल करके फेंक देते हैं तो हम वही ढूंढ रहे थे’ दोनों बोलीं। उनकी हालत और मासूमियत देखकर गार्ड को बरबस हंसी आ गई और बोला ‘रुको तुम यहीं पर’। वह अन्दर गया और पल भर में दो साबुन ले आया। ‘ये लो बच्चो, दो साबुन, अब जाओ, कुत्ता ज्यादा देर तक भौंकता रहेगा तो सब जग जायेंगे और फिर मुझसे पूछताछ होगी। जल्दी जाओ।’ पिंकी और सपना दोनों अपने हाथों में एक एक साबुन लेकर जल्दी से चल दिये। और उनके साथ चल रहा था उनका सपना – संगमरमर से मैल हटाने का।

सुदर्शन खन्ना

वर्ष 1956 के जून माह में इन्दौर; मध्य प्रदेश में मेरा जन्म हुआ । पाकिस्तान से विस्थापित मेरे स्वर्गवासी पिता श्री कृष्ण कुमार जी खन्ना सरकारी सेवा में कार्यरत थे । मेरी माँ श्रीमती राज रानी खन्ना आज लगभग 82 वर्ष की हैं । मेरे जन्म के बाद पिताजी ने सेवा निवृत्ति लेकर अपने अनुभव पर आधरित निर्णय लेकर ‘मुद्र कला मन्दिर’ संस्थान की स्थापना की जहाँ विद्यार्थियों को हिन्दी-अंग्रेज़ी में टंकण व शाॅर्टहॅण्ड की कला सिखाई जाने लगी । 1962 में दिल्ली स्थानांतरित होने पर मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से वाणिज्य स्नातक की उपाधि प्राप्त की तथा पिताजी के साथ कार्य में जुड़ गया । कार्य की प्रकृति के कारण अनगिनत विद्वतजनों के सान्निध्य में बहुत कुछ सीखने को मिला । पिताजी ने कार्य में पारंगत होने के लिए कड़ाई से सिखाया जिसके लिए मैं आज भी नत-मस्तक हूँ । विद्वानों की पिताजी के साथ चर्चा होने से वैसी ही विचारधारा बनी । नवभारत टाइम्स में अनेक प्रबुद्धजनों के ब्लाॅग्स पढ़ता हूँ जिनसे प्रेरित होकर मैंने भी ‘सुदर्शन नवयुग’ नामक ब्लाॅग आरंभ कर कुछ लिखने का विचार बनाया है । आशा करता हूँ मेरे सीमित शैक्षिक ज्ञान से अभिप्रेरित रचनाएँ 'जय विजय 'के सम्माननीय लेखकों व पाठकों को पसन्द आयेंगी । Mobile No.9811332632 (Delhi) Email: mudrakala@gmail.com

4 thoughts on “नन्हे मासूम सपने

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    सुधर्ष्ण जी , कहानी क्या है, यह हकीकत ही तो है . गरीब की जिंदगी कितनी मुश्किलों भरी होती है और उन की खुशीआं भी बहुत छोटी छोटी होती हैं .जो अमीर बच्चे बड़े बड़े खिलौने ले कर भी तृप्त नहीं होते, गरीब बच्चे टूटे हुए खिलौनों से भी खुश हो जाते हैं .आज तो ज़माना बहुत आगे निकल गिया लेकिन मुझे वोह बचपन के दिन याद हैं जब हम बूट पोलिश की डिबिया से तकड़ी बना लेते थे और झूठी मूठी दूकान सजा लेते थे और इस तकड़ी से छोटे कंकर तोलते थे और आपस में दुकानदार और ग्राहक बन जाते थे .पैरों से सभी नंगे होते थे लेकिन हम बहुत खुश रहते थे . भारत में गरीबी की वजह से बच्चों को क्या क्या नहीं करना पढता, यही उम्र उन की सकूल जाने की होती है और इस उम्र में उन का बचपन और पढ़ाई बर्बाद हो जाते हैं .

    • सुदर्शन खन्ना

      आदरणीय दादा जी, सादर प्रणाम. आपने बिलकुल ठीक कहा, हकीकत में गरीबों की ज़िन्दगी इतनी संघर्षपूर्ण होती है कि उसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल हो जाता है. जो दिखता है वही मालूम होता है. आपने बचपन के दिन याद कर लिए और अपने ख़ूबसूरत उद्गार प्रकट किये. पुनः हार्दिक नमन.

  • लीला तिवानी

    प्रिय ब्लॉगर सुदर्शन भाई जी, नन्हे मासूम सपने कल्पनातीत, विषय कल्पनातीत, विषयवस्तु कल्पनातीत, प्रस्तुति कल्पनातीत, अब तक आई प्रतिक्रियाएं भी कल्पनातीत. अत्यंत सुंदर, सटीक व सार्थक कल्पनातीत रचना के लिए बधाई-बधाई-बधाई.

    • सुदर्शन खन्ना

      आदरणीय दीदी, सादर प्रणाम. सुन्दर अलंकारों से युक्त आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया ने मुख पर स्मित मुस्कान ला दी है, हौसला बढ़ा दिया है. जब से आपका स्नेह मिलना आरम्भ हुआ है तभी से नित नए उत्साहवर्धन के साथ आप प्रेरित करती रही हैं. यह केवल मेरे साथ नहीं अपितु अनेक लेखकों के साथ हुआ है. जिस तरह से आप मनोबल बढाती हैं वह देखते ही बनता है. वर्तमान रचना पर आपके उद्गार हर बार की भांति प्रेरणादायी हैं. हार्दिक आभार प्रकट करता हूँ.

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