कविता

नदी 

कल-कल करती बहती नदी
जंगल और पहाड़ों से निकलती नदी

इठलाती, बलखाती नागिन रूप बनाती
नित-नित सबकी प्यास बुझाती

बरसातों में रूद्ररूप बनालेती
तब बड़ी डरावनी हो जाती

घर्र – घर्र करके सबकुछ बहा ले जाती
और जन-धन की बड़ी हानि हो जाती

गर्मी में मर जाती, मिट जाती
बस! गंदा सा नाला बन कर रह जाती

दादी कहती वर्षों पहले ऐसी नहीं थी नदी
शहरों ने गंदी करदी निर्मल नदी

अब मिटने को आई नदी
करुणाभरी पुकार करे नदी…

मुकेश कुमार ऋषि वर्मा 

मुकेश कुमार ऋषि वर्मा

नाम - मुकेश कुमार ऋषि वर्मा एम.ए., आई.डी.जी. बाॅम्बे सहित अन्य 5 प्रमाणपत्रीय कोर्स पत्रकारिता- आर्यावर्त केसरी, एकलव्य मानव संदेश सदस्य- मीडिया फोरम आॅफ इंडिया सहित 4 अन्य सामाजिक संगठनों में सदस्य अभिनय- कई क्षेत्रीय फिल्मों व अलबमों में प्रकाशन- दो लघु काव्य पुस्तिकायें व देशभर में हजारों रचनायें प्रकाशित मुख्य आजीविका- कृषि, मजदूरी, कम्यूनिकेशन शाॅप पता- गाँव रिहावली, फतेहाबाद, आगरा-283111