कविता

अन्नदाता

अन्नदाता

हाँ वह अन्नदाता है
लेकिन
क्या तुमने देखा है
उसे खुलकर मुस्कुराते हुए
या फिर वह कब हँसा था
ठहाके मारकर
लगता है
वह हँसना-मुस्कराना ही भूल गया है
क्या तुमने देखा है
उसके सपनों को
क्यों देखता है वह सपनें
शायद
तुमने देखा हो उसके सपनों को
और
उन सपनों को टूटकर बिखरते हुए
या फिर
उसकी आँखों में बसे उनींदे सपनों को
और फिर
खुली आँखों के सपनों को हवा होते हुए
क्या तुमने देखा है
उसे समन्दर सा गहरा
और रीता होते हुए
या दरिया के प्रवाह सा
लेकिन
क्या तुमने देखा है
उस प्रवाह को विपरीत धारा की ओर लौटते हुए
या फिर
वापस दरिया की तरह बहते हुए
शायद नहीं
लेकिन
मैंने देखा है
उसकी सूनी हो चुकी आँखों को
टूटकर बिखरते सपनों को
निराशा के अंधकार में विचरते हुए
कर्ज के जंजाल में फँसते हुए
और फिर
कर्ज से छुटकारे की चाह में
जीवन से मुक्ति पाते हुए।

*डॉ. प्रदीप उपाध्याय

जन्म दिनांक-21:07:1957 जन्म स्थान-झाबुआ,म.प्र. संप्रति-म.प्र.वित्त सेवा में अतिरिक्त संचालक तथा उपसचिव,वित्त विभाग,म.प्र.शासन में रहकर विगत वर्ष स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ग्रहण की। वर्ष 1975 से सतत रूप से विविध विधाओं में लेखन। वर्तमान में मुख्य रुप से व्यंग्य विधा तथा सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर लेखन कार्य। देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सतत रूप से प्रकाशन। वर्ष 2009 में एक व्यंग्य संकलन ”मौसमी भावनाऐं” प्रकाशित तथा दूसरा प्रकाशनाधीन।वर्ष 2011-2012 में कला मन्दिर, भोपाल द्वारा गद्य लेखन के क्षेत्र में पवैया सम्मान से सम्मानित। पता- 16, अम्बिका भवन, बाबुजी की कोठी, उपाध्याय नगर, मेंढ़की रोड़, देवास,म.प्र. मो 9425030009