हास्य व्यंग्य

कौन कहता है कि जल्लादों का अकाल पड़ा है !

कौन कहता है कि जल्लादों का अकाल पड़ा है !

श्रीलंका में फांसी का फंदा बड़ी ही हसरतभरी नजर से देख रहा है कि कब तो जल्लाद नौकरी पाएं और कब वह किसी का टेटुआ दबाए।पिछले पाँच-छः वर्षों से उसका इंतजार खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है,उसकी आँखे राह तकते-तकते पथरा सी गई है लेकिन अब उम्मीद के दीप जगमगाते लग रहे हैं,शायद उसे वह खुशी हांसिल हो जाए जब अड़तालीस लोगों के टेटुए दबाने का उसे सुख मिल जाए!
उम्मीद तो बहुत है क्योंकि जल्लाद की नौकरी के लिए सौ आवेदन उन्हें मिल भी गये हैं लेकिन उन्हें डर यही सता रहा है जैसा कि वर्ष 2014 में हुआ था, तब नया-नया भर्ती हुआ जल्लाद पहली बार फांसी का फंदा देखते ही सदमे से बेहोश हो गया था और नौकरी छोड़ दी, दूसरे की भर्ती की तो वह काम पर ही नहीं आया ।ऐसा ही वाकया बाबाने जैसे छोटे से देश में भी वर्षो पूर्व हो चुका था,जहाँ जल्लाद ही नहीं मिल रहे थे और वहाँ की सरकार अच्छी-भली तनख्वाह का प्रलोभन देकर दुनिया के देशों में विज्ञापन देकर जल्लाद ढ़ूंढ़ रही थी।इस मामले में श्रीलंका भाग्यशाली रहा क्योंकि एक अमेरिकी ने भी जल्लाद के पद हेतु वहाँ आवेदन कर दिया है।वैसे तो आवेदकों की संख्या सौ तक पहुँच गई है लेकिन आशंका यही है कि इन आवेदकों में वास्तविक जल्लाद हैं भी या नहीं!या फिर यूं ही मुर्ख बनने-बनाने आ गए हैं।
वैसे तो जल्लादों की कमी नहीं है इस जहान में।मुझे लगता है कि ये देश जल्लादों का कृत्रिम अभाव दिखाकर देश में जल्लादियत की कमी बताना चाह रहे हैं वरना तो जाति,धर्म,मजहब-सम्प्रदाय और वर्ग के नाम पर लोगों को यूं ही हलाल कर देने वाले जल्लादों की कहाँ कोई कमी है।वे तो बिना रोजगार के ही जल्लाद बने बैठे हैं। दुनिया भर में आतंक का साम्राज्य स्थापित करने वाले जल्लाद क्या कम हैं और उन्हें पनाह देने वालों को आप क्या नाम देंगे ! किसी को जिन्दा जलाना हो,खड़ा चीर देना हो या फिर सिर कलम कर देना हो या फिर गोलियों से भून देना हो,यह सब तो उनके बायें हाथ का खेल है, फिर भी कहते हैं कि जल्लाद नहीं मिल रहे हैं।अरे भाई,चाहे नाजी रहे हों,चाहे तालिबानी, चाहे फासिस्ट हों चाहे साम्यवादी जल्लादों की कमी का रोना तो किसी ने नहीं रोया।तब फिर ये क्यों?क्या मुर्ख समझ रखा है!
अभी तक दुनिया में आतंकवादियों को प्रश्रय और बढ़ावा देने वाले दुनिया के दादा बने देशों को भस्मासुरी अंदाज में जब चोट पहुँचाई गई तो उनकी नानी याद आ गई और समझ में आया कि जल्लादपन क्या होता है।इनसे बड़े जल्लाद क्या कहीं हुए हैं!
खैर,बात फांसी घर के जल्लाद की हो रही है तो बात यह भी है कि दुनिया में जल्लादों की कोई कमी है भी नहीं।मासूम कलियों को कुचलने.. मसलने में कहाँ पसीजते हैं….ऐसे जल्लाद..एक ढ़ूढ़ो हजार मिलते हैं। कन्या भ्रूण को खटिया और बहुओं को घासलेट-स्टोव्ह दिखाने वाले क्या याद नहीं! आज के दौर में सास-बहू ही नहीं, बहू-सास,पिता-पुत्र,पति-पत्नी और वो…इनके अलावा भी बहुत कुछ…जल्लादियत के साथ!
सीधी सी बात है कि जल्लादपन कहाँ नहीं है और जल्लाद…!धन-सम्पत्ति के लिए पुत्र पिता की हत्या कर सकता है तो पिता भी कहाँ पीछे रहने वाला,भाई भाई के खून का प्यासा तो प्रेमिका हवस की आग में अंधी होकर प्रेमी के साथ मिलकर पति को मरवा देती है,इसी तरह प्रेम में अंधा प्रेमी पत्नी को।जर,जोरू और जमीन जो करवा दे,कम है..इस भौतिकवादी युग में।यही बात धर्मसत्ता और राजसत्ता पर भी समान रूप से लागू होती है।जल्लाद हो जाने के पर्याप्त आधार हैं यहाँ पर! इसीलिए जल्लाद चाहने वालों को चिन्ता नहीं करना चाहिए क्योंकि जल्लाद यहाँ, वहाँ सर्वत्र हैं।अभी तो स्थिति यह है कि जहाँ हाथ डालोगे,वहीं जल्लाद ही जल्लाद मिलेंगे।इन्हें खोजने के लिए न तो किसी विशेष दृष्टि की जरूरत है और न ही कहीं भटकने की।यहीं जल्लाद भी हैं और जल्लादियत भी!बस थोड़ा अपनी दृष्टि और खोज का दायरा बढ़ाकर तो देखें।

*डॉ. प्रदीप उपाध्याय

जन्म दिनांक-21:07:1957 जन्म स्थान-झाबुआ,म.प्र. संप्रति-म.प्र.वित्त सेवा में अतिरिक्त संचालक तथा उपसचिव,वित्त विभाग,म.प्र.शासन में रहकर विगत वर्ष स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ग्रहण की। वर्ष 1975 से सतत रूप से विविध विधाओं में लेखन। वर्तमान में मुख्य रुप से व्यंग्य विधा तथा सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर लेखन कार्य। देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सतत रूप से प्रकाशन। वर्ष 2009 में एक व्यंग्य संकलन ”मौसमी भावनाऐं” प्रकाशित तथा दूसरा प्रकाशनाधीन।वर्ष 2011-2012 में कला मन्दिर, भोपाल द्वारा गद्य लेखन के क्षेत्र में पवैया सम्मान से सम्मानित। पता- 16, अम्बिका भवन, बाबुजी की कोठी, उपाध्याय नगर, मेंढ़की रोड़, देवास,म.प्र. मो 9425030009