हास्य व्यंग्य

सफर में मंजिल खुद ही तय कर ले ऐ बन्दे

जब तक मंजिल नहीं मिलती, तब तक यात्री तो सफर करेगा ही ।बीच सफर में किसी को रोक देना ठीक भी तो नहीं!लेकिन यह भी तो अनिश्चित सा ही है कि किसी की मंजिल कहाँ है।आप सीट रोककर बैठे रहो और दूसरों की यात्रा में बाधक बनो तो इसे कौन सहन करेगा।प्रकृति ने खुद ही यह व्यवस्था दी है कि पुराने जगह छोड़ दें और नये अपना स्थान बना लें।पुराने के लिए पतझड़ तो नये के लिए बसन्त बहार।अब ऐसा तो है नहीं कि बारहों महीने बसन्त बहार रहे।पतझड़ तो आएगा ही।यह तो हो नहीं सकता कि पुराने पत्ते वृक्ष से कहें कि हमें ताउम्र थामे रहो और नयों को अभी मत आने दो।
पके हुए पात और पके हुए फल को कभी न कभी तो टपकना ही है।या तो प्राकृतिक रूप से टपक जाएं या फिर हवा के झोंके, अंधड या तूफान उन्हें जमीन दिखा दें।बात केवल प्रकृति की,फल-फूल या पौधों की ही नहीं है, पशु-पक्षी, जीव-जन्तु की भी है।जब तक उपयोगी, तभी तक उसका अस्तित्व वरना तो रेस के घोड़े को भी बुढ़ा होने पर गोली मार दी जाती है, जब तक गाय दूध देती रहती है तभी तक कमान मालिक के हाथ वरना तो कसाई के साथ!अब इंसान को तो गोली मारने या कसाई के हाथों सौंपने से रहे,शायद इसीलिए रिटायर कर या तो घर बैठा दिया जाता है या फिर मार्गदर्शक मंडल में।
बहरहाल, बात उपयोगितावाद पर जा ठहरती है।इंसान भी तो ताउम्र उपयोगी हो नहीं सकता है।वह भी पके आम की तरह पेड़ से कभी न कभी तो टपकेगा ही और वैसे भी पेड़ कब तक उसका बोझा ढोएगा।पके हुए फलों को भी पता है कि उनका रिश्ता पेड़ से कितने दिनों का है,कली से बन चुके फूल भी अपनी नियति से बखूबी वाकिफ हैं तो फिर यह दोपाया यानी मनुष्य नाम का जन्तु इस बात को क्यों नहीं समझ पाता कि उसके पकने की वय भी निश्चित है।पहले इंसान ज्यादा समझदार हुआ करता था और शायद इसीलिए वह वानप्रस्थ आश्रम के लिए सहर्ष और सहज भाव से निकल जाता था लेकिन आज के इंसान की सोच और समझ पर लगता है कि पाला पड़ चुका है! वह समझता है कि वह अमरजड़ी खाकर पैदा हुआ है और इसीलिए हर जगह अंगद की तरह पैर जमा कर रखना चाहता है जबकि हल्की सी आँधी या तूफान आने पर उसके पैर उखड़ जाते हैं।ऐसे में वास्तविकता के धरातल पर कदम रखना लाजिमी हो जाता है।मुगालतों को बला-ए-ताक रखकर उतना ही सफर होना चाहिए जितना कर सकते हैं।यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि जहाँ तक गाड़ी जाती है ,वहीं तक अपनी मंजिल है।होना तो यह चाहिए कि अपनी मंजिल खुद ही तय कर लें,तो गाड़ी में से उतरने पर तकलीफ भी नहीं होगी या कम होगी वरना जब गाड़ी से जबरन उतारा जाता है तो खुद को भी और देखने वालों को भी कष्ट होता है।इसलिए बन्दे दुखी मत हो,अपना रास्ता और अपनी मंजिल खुद तय कर और किसी तरह की जिद पकड़ कर मत बैठ,मुगालता छोड़ दे।तकलीफ की मात्रा कम होगी।

*डॉ. प्रदीप उपाध्याय

जन्म दिनांक-21:07:1957 जन्म स्थान-झाबुआ,म.प्र. संप्रति-म.प्र.वित्त सेवा में अतिरिक्त संचालक तथा उपसचिव,वित्त विभाग,म.प्र.शासन में रहकर विगत वर्ष स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ग्रहण की। वर्ष 1975 से सतत रूप से विविध विधाओं में लेखन। वर्तमान में मुख्य रुप से व्यंग्य विधा तथा सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर लेखन कार्य। देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सतत रूप से प्रकाशन। वर्ष 2009 में एक व्यंग्य संकलन ”मौसमी भावनाऐं” प्रकाशित तथा दूसरा प्रकाशनाधीन।वर्ष 2011-2012 में कला मन्दिर, भोपाल द्वारा गद्य लेखन के क्षेत्र में पवैया सम्मान से सम्मानित। पता- 16, अम्बिका भवन, बाबुजी की कोठी, उपाध्याय नगर, मेंढ़की रोड़, देवास,म.प्र. मो 9425030009