हास्य व्यंग्य

हम हैं राही राजनीति के हमसे कुछ ना पूछिए

हम हैं राही राजनीति के हमसे कुछ ना पूछिए

हम भी गुनगुनाते रहे कि हम हैं राही प्यार के हम से कुछ न बोलिए ,जो भी प्यार से मिला हम उसी के हो लिये।लेकिन गुनगुनाने भर से क्या होता है।शुरु से ही खडूस टाइप का स्वभाव रहा तो प्यार से कोई मिला भी नहीं।अलबत्ता हमारे लंगोटिया खयालीराम जरूर इस मामले में लकी साबित हुए,उनके शरीर में तो बाबा रामदेव वाली लोच थी ही,मन यानी दिल को भी उतना ही लचीला बना लिया था कि जब भी वह गुनगुनाते, कई बालाएँ उनसे प्यार से मिलती और वे उनके होते जाते।बहुत रश्क होता था लेकिन लहू जलाने के अलावा किया भी क्या जा सकता था ।अभी भी दबे-छूपे वे किसी न किसी के हो ही जाते हैं।हाँ,जबसे उन्होंने राजनीति में कदम रखा है और जनसेवा का संकल्प लिया है, वे कहते हैं कि अच्छा ही किया कि प्यार की राह में किसी एक के होकर नहीं रहे बल्कि जो-जो मिलता गया, उन सभी के होते चले गये और यही सब अब काम आ रहा है वरना आज के दौर में तो जीना ही दूभर हो जाता!
वे आज भी गीत गुनगुनाते हैं और सभी को सुनाते भी हैं क्योंकि किसी को मुगालता न हो और कोई मुगालते में रहे भी नहीं।इसीलिए आजकल का उनका गाना सुन भी लें और समझ भी लें ,आज तो उनका गाना यही है-
हम हैं राही राजनीति के
हम से कुछ न पूछिए
जो भी टिकट दे गया
हम उसी के हो लिए।
इस पर मैंने उनसे कहा भी कि- “ भाई बहुत स्वार्थी हो गए हो!किसी को इस तरह से धोखा नहीं देना चाहिए।कोई भी पार्टी सभी को तो टिकट दे नहीं सकती और फिर जब जनसेवा के लिए निकले हो तो टिकट पा जाना क्या जरूरी है!बिना टिकट के क्या आप उनके नहीं हो सकते या उनके बन कर नहीं रह सकते!”
तब उन्होंने बहुत ही तल्ख लहजे में कहा- “अरे,इसमें स्वार्थ वाली क्या बात हुई।आपको मालूम होना चाहिए कि जिस तरह से जल बिन मछली और नृत्य बिन बिजली नहीं रह सकती, ठीक उसी तरह बिन टिकट नेता कैसे जीवित रह सकता है।पानी से बाहर निकलते ही मछली दम तोड़ देती है।ऐसा ही कुछ हम नेताओं के साथ भी है।नेता का अस्तित्व ही इस बात को लेकर है कि उसे पार्टी से टिकट मिलता रहे।आखिर कब तक वह डण्डे और झण्डे उठाकर चलता रहेगा।वैसे भी अपने लिए तो पहले मैं,फिर परिवार, फिर अपनी जाति-बिरादरी, फिर समाज,क्षेत्र और फिर देश है।यदि टिकट ही नहीं मिलेगा तो अपने आप को क्या जवाब देंगे, जमाने को क्या मुँह दिखाएंगे!यदि टिकट ही नहीं मिलेगा तो कितने दिन तक हम अपना अस्तित्व बनाए रख सकेंगे!जनसेवा के अपने लक्ष्य को कैसे हाँसिल कर सकेंगे।परिवार को, नाते-रिश्तेदारों को, समाज को क्या जवाब देंगे भाई!”
“लेकिन अभी पार्टी बदलने के पहले तो उस सत्तारूढ़ पार्टी में लम्बे समय तक टिके रहे थे,उसका क्या सबब था!”मेरे प्रश्न पर वे तिलमिला गए और बोले- “भाई,हम भी तो आस का पंछी जो ठहरे।हम तो उस चकोर की भाँति हैं जो इस उम्मीद पर कि हमें ही टिकट मिलेगा और इस बिना पर हाईकमान की ओर सतत निहारते रहे।जैसे चकोर रातभर चन्द्रमा को निहारता रहता है और उसे देखकर रोता रहता है।यही स्थिति हमारी भी रहती है और हमारी भी रूलाई फूट पड़ती है।”
“लेकिन भाई साहब, चकोर का प्रेम तो मिथ्या है।वह तो पूर्ण चन्द्रमा वाली रात में कीट-पतंगों के शिकार के लिए सक्रिय रहता है।कहीं जनसेवा के लिए आपका टिकट प्रेम भी ऐसा ही तो नहीं है।आप टिकट के लिए चाँद भी तो बदल लेते हो।एक हाईकमान से दूसरा हाईकमान।”मैंने उन्हें आईना दिखाना चाहा।
“तुम तो बकवास कर रहे हो, हमारी निष्ठा पर ऊंगली मत उठाओ।जनसेवा ही हमारा लक्ष्य है।यदि एक पार्टी हमारी भावनाओं का सम्मान नहीं करती है तो दूसरी का दामन थामने में क्या बुराई है।वैसे भी एक ही जगह रूके हुए पानी में संड़ाध आने लगती है और वह दुर्गंध युक्त हो जाता है।इसीलिए दरिया के बहते पानी की तरह होना चाहिए।जिधर रास्ता मिले बह चलो या फिर अपने लिए रास्ता बनाते चलो।खैर,इस बात को तुम नहीं समझोगे क्योंकि तुम कुएं के मेंढक हो।तुम भी बाहर नहीं निकलोगे और किसी को निकलने भी नहीं दोगे।समझे!
और मैं अपना सा मुँह लेकर चुप रह गया।

*डॉ. प्रदीप उपाध्याय

जन्म दिनांक-21:07:1957 जन्म स्थान-झाबुआ,म.प्र. संप्रति-म.प्र.वित्त सेवा में अतिरिक्त संचालक तथा उपसचिव,वित्त विभाग,म.प्र.शासन में रहकर विगत वर्ष स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ग्रहण की। वर्ष 1975 से सतत रूप से विविध विधाओं में लेखन। वर्तमान में मुख्य रुप से व्यंग्य विधा तथा सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर लेखन कार्य। देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सतत रूप से प्रकाशन। वर्ष 2009 में एक व्यंग्य संकलन ”मौसमी भावनाऐं” प्रकाशित तथा दूसरा प्रकाशनाधीन।वर्ष 2011-2012 में कला मन्दिर, भोपाल द्वारा गद्य लेखन के क्षेत्र में पवैया सम्मान से सम्मानित। पता- 16, अम्बिका भवन, बाबुजी की कोठी, उपाध्याय नगर, मेंढ़की रोड़, देवास,म.प्र. मो 9425030009