कविता

फिरसे बचपने में खो जाते हैं।

फिरसे बचपने में खो जाते हैं।
चलो हम भी बच्चे हो जाते हैं।।
मम्मी से माँगें चन्दा खिलौना।
पुरानी दरी हो या गन्दा बिछौना।।
गुड्डे और गुड़िया की शादी करेंगें।
बैठेंगंे चुप भी कभी हम लड़ेगें।।
दीदी की गलती है उसने है मारा
भइया ने खाया मेरा केक सारा।।
कभी तो करेंगें झूठी शिकायत।
टूटी जो पेंसिल मिलेगी हिदायत।।
पापा के आगे पीछे फिरेंगें।
कभी हों खड़े और कभी हम गिरेंगें।।
घुटने के बल भी फिर से है चलना।
टूटा खिलौना तो हाँथों को मलना।।
पढने को लेकर बहाने बनाना।
कभी हम जो रूठे तो सबका मनाना।।
न कोई चिन्ता न कोई फिकर हो।
सोंचे नहीं कुछ जाना किधर हो।।
जीना है हमको वही दिन हमेशा।
खुश भी रहेंगें बिना रूपया पैसा।।
ज़िद भी करेंगें खुद से कभी तो,
कभी बेफिकर हो सो जाते है।।
चलो हम भी बच्चे हो जाते हैं……..

सौरभ दीक्षित मानस

नाम:- सौरभ दीक्षित पिता:-श्री धर्मपाल दीक्षित माता:-श्रीमती शशी दीक्षित पत्नि:-अंकिता दीक्षित शिक्षा:-बीटेक (सिविल), एमबीए, बीए (हिन्दी, अर्थशास्त्र) पेशा:-प्राइवेट संस्था में कार्यरत स्थान:-भवन सं. 106, जे ब्लाक, गुजैनी कानपुर नगर-208022 (9760253965) dixit19785@gmail.com जीवन का उद्देश्य:-साहित्य एवं समाज हित में कार्य। शौक:-संगीत सुनना, पढ़ना, खाना बनाना, लेखन एवं घूमना लेखन की भाषा:-बुन्देलखण्डी, हिन्दी एवं अंगे्रजी लेखन की विधाएँ:-मुक्तछंद, गीत, गजल, दोहा, लघुकथा, कहानी, संस्मरण, उपन्यास। संपादन:-“सप्तसमिधा“ (साझा काव्य संकलन) छपी हुई रचनाएँ:-विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में कविताऐ, लेख, कहानियां, संस्मरण आदि प्रकाशित। प्रेस में प्रकाशनार्थ एक उपन्यास:-घाट-84, रिश्तों का पोस्टमार्टम, “काव्यसुगन्ध” काव्य संग्रह,