कविता

द्रौपदी

कहते थे युद्घ ज़रूरी है, मैने पूछा के क्यों ।
समझा दोगे तुम इनको, शक्ति है तुम में यूं ।
लगा गये मुझको खेल में, जैसे सम्पत्ति हूँ ।
भूल गए थे शायद वह, के मैं तो पत्नी हूँ ।
समझ जाता यह बात अगर वो, तो ये युद्घ कभी ना होता।
मुरली ही सुहाती है हाथ में मेरे, यह रथ कभी ना होता।
बोली चिल्लाकर– बाँट रहे हो क्यों तुम मुझको मैं न धरती हूँ,
पनच्पवीत्र हूँ मैं तो, चीरहरण करते हो क्यों।
भरी सभा में होरहा था नारी का अपमान,
धरमपिता हो तुम मेरे बचा लो मेरी लाज।
सर झुकाए खड़े हुए थे वह पांडव,
जो कल थे मेरा अभिमान।
 बोली रो कर द्रौपदी– मैं हूँ स्त्री करो मेरा सम्मान।
मुझमें है एक द्रौपदी, द्रौपदी है एक तुझमे भी।
जिंदगी की कठिनाइयों से जूझती  हर पल हर घड़ि।

श्रद्धा बेदी ढल

मैं एक साधारण महिला हूँ , मुझे लिखने का शौक हैै। मैैं विध्याल्या में पढ़ाती हूँ।