कविता

प्रेम

सुनो !
क्यों तुमसे
पलभर की भी जुदाई
सही नहीं जाती मुझसे।

तुम्हारे जाते ही उदास मन
अकेलेपन का लिबास ओढ़ लेता है।
रूठने लग जाती हूँ खुद से ही मैं !!

फिर ,एक बेरुखी
मेरे चेहरे की रंगत उतार देती है।
ऐसा लगता है जैसे
आसपास की हर सूक्ष्म हलचल भी खामोश है।

सुनो !
लगता है,
ये मुहब्बत मुझे ठगती जा रही है।

मेरा चैन-सुकून सब
आहिस्ता -आहिस्ता
मुझसे खफा हो रहा है।
और बेचैनियां मुस्कुराकर चिढ़ा रही हैं ।
पर एक बात है….
इन बेचैनियों के बीच भी
सुकून का नन्हा एहसास
मेरे भीतर की सारी उत्तेजनाओं को
प्रेम की अद्भुत अनुभूति से तृप्त करता है।
शायद,
वक्त मुझमें प्रेम गढ़ने लगा है।
तुम्हारे एहसासों के आलिंगन से।।

*बबली सिन्हा

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