धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

हम ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के ऋणी हैं

ओ३म्

ईश्वर का सत्यस्वरूप गुण-कर्म-स्वभाव से परिचित कराने के लिये

वैदिक धर्मी सभी बन्धुओं पर ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के अकथनीय ऋण हैं। जब हम इस विषय पर विचार करते हैं तो अपने आप को संसार के अन्य मनुष्यों की तुलना में सौभाग्यशाली पाते हैं। हम आर्यसमाज के अनुयायी वैदिक धर्मी बन्धुओं का यह अहोभाग्य है कि हमें इस संसार की पहेली का सत्य समाधान पता है। यह संसार अस्तित्व में कैसे आया, यह हमें ज्ञात है। किसने इस संसार को क्यों बनाया और कौन इसका कैसे व क्यों पालन कर रहा है? इसका सत्य उत्तर भी हमें ज्ञात है। हम कौन हैं, इस संसार में क्यों आये हैं, हमें किसने यहां क्या करने के लिये भेजा है, इस जीवन में हमारे कर्तव्य क्या हैं व हम आत्मा को होने वाले दुःखों से कैसे बच सकते हैं, इसका भी हमें ज्ञान है। हमें यह भी ज्ञान है कि मनुष्य योनि का हमारा यह जन्म पहला जन्म नहीं है। हमारे इससे पूर्व अनन्त बार संसार की प्रायः सभी योनियों में जन्म हो चुके हैं। हम अनेक बार मोक्ष में भी गये और अवधि पूरी होने पर हमें पुनः मनुष्य जन्म मिला है। इस जीवन में हमारी मृत्यु होगी और उसके बाद हमारी पुनर्जन्म की प्रक्रिया तत्काल आरम्भ हो जायेगी और गर्भवास आदि की अवधि पूरी होने पर कहीं किसी मां की कोख से हमारे इस जन्म व पूर्व जन्मों के अवशिष्ट अभुक्त कर्मों के अनुसार जन्म होगा। हमें लगता है कि हम पहले ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज का इस बात के लिये धन्यवाद करें कि इनके द्वारा हमें ईश्वर व सृष्टि को जानने का सुअवसर मिला और इससे हमारी आत्मिक व ज्ञानोन्नति हुई है जिसका लाभ हमें इस जन्म में भी मिला है और भविष्य में भी मिलता रहेगा।

आर्यसमाज के सम्पर्क में आने से पूर्व हम ईश्वर के यथार्थ स्वरूप को नहीं जानते थे। हमें पता नहीं था कि घर में जो मूर्ति पूजा व चित्र को सामने रख कर आरती आदि की जाती थी उससे भिन्न ईश्वर का कुछ स्वरूप भी होता है। सन् 1970 से हम आर्यसमाज में जाने लगे थे। वहां जाकर विद्वानों के प्रवचन सुनते थे तो हमें वहां ईश्वर विषयक तर्क संगत बातें सुनकर और ईश्वर विषयक कल्पित मान्यताओं का खण्डन सुनकर आश्चर्य होता था। हमने अपने एक मित्र श्री धर्मपाल सिंह की प्रेरणा से आर्यसमाज विषयक कुछ पुस्तकें खरीद कर पढ़ी जिससे हमें आर्यसमाज की ईश्वर विषयक मान्यताओं का ज्ञान होने लगा था। समय के साथ हमारा ज्ञान बढ़ता ही गया। हमें ज्ञात हुआ कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप है। वह निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनादि, अनन्त, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। वह ईश्वर सर्वज्ञ है और प्रत्येक जीवात्मा के पूर्व कृत शुभ व अशुभ कर्मों को जानता है। वह कर्म फल दाता है। पूर्वजन्म में किये कर्मों के अनुसार ही हमारा यह जन्म मिला है और उन कर्मों के अनुसार ही हमारी जाति, आयु व भोग निर्धारित हुए हैं। हमारा मनुष्य जन्म इस लिये हुआ है कि हम कर्मों के बन्धनों में बन्धे हुए हैं। जब तक हम इन बन्धनों से मुक्त नहीं होंगे, ईश्वर हमें इसी प्रकार जन्म व मृत्यु प्रदान करता रहेगा। इस प्रकार से हम ईश्वर के यथार्थ स्वरूप से परिचित हुए।

वेद, ऋषि और आर्यसमाज ईश्वर को सच्चिदानन्दस्वरूप बताते हैं। सच्चिदानन्द का अर्थ है एक ऐसी सत्ता जो सत्य है, चेतन है और आनन्दस्वरूप वाली है। जिसमें आनन्द होता है उसमें दुःख व कष्ट नहीं होता है। हमें दुःख व कष्ट होता है तो इस कारण कि हम आनन्दस्वरूप सत्ता नहीं है। हम जीवात्मा है जो सत्य व चित्त तो है परन्तु आनन्द से युक्त नहीं है। इस आनन्द की प्राप्ति ही जीवात्मा का लक्ष्य है। यह लक्ष्य आनन्दस्वरूप ईश्वर को प्राप्त कर पूरा किया जाता है। जिस प्रकार हमें कार खरीदनी हो तो हमारे पास उसके अनुरूप धन होना चाहिये। इसी प्रकार यदि हमें आनन्द चाहिये तो हमें ईश्वर से आनन्द प्राप्त करने के लिये सद्कर्म व उपासना आदि करनी आनी चाहिये व उसे करना होगा। इससे हमें आनन्द मिल सकता है। सांसारिक पदार्थों का भोग करने पर भी हमें सुख की प्राप्ति होती है परन्तु यह सुख अस्थाई व क्षणिक होता है। कुछ ही समय बाद भौतिक सुख समाप्त हो जाता है। ईश्वर की भक्ति, उपासना, ध्यान व समाधि के अभ्यास से जीवात्मा को सुख मिलना आरम्भ होता है। जो इस तथ्य व रहस्य को जानते हैं वह योग साधना में प्रवृत्त होते हैं। ऋषि दयानन्द ईश्वरोपासना के सच्चे साधक एवं ईश्वर को प्राप्त व सिद्ध किये हुए योगी थे। उन्होंने अपने अनुभव के आधार पर कहा है कि प्रत्येक मनुष्य को प्रातः व सायं दोनों समय, सूर्योदय व सूर्यास्त के समय, ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना व ध्यान अवश्य करना चाहिये। सन्ध्या में वेदों व ऋषियों के ग्रन्थों का स्वाध्याय करना भी आवश्यक है। इनका अभ्यास करने से मनुष्य की आत्मा के मल छंटने आरम्भ हो जाते हैं। धीरे धीरे साधक को उपासना में आनन्द प्रतीत होने लगता है। सन्ध्या ऐसा कार्य है जिसमें हमारी आत्मा के हमारे पूर्व के संस्कारों के कारण रुचि उत्पन्न न भी हो तब भी युक्ति व तर्क से सिद्ध सन्ध्या रूपी धर्म व कर्तव्य को अवश्य करना चाहिये। इससे अनुकूलता प्राप्त होने लगेगी और समय आने पर मनुष्य को सन्ध्या में ऐसी रुचि उत्पन्न हो सकती है कि बिना सन्ध्या किये उसे सुख व शान्ति की अनुभूति नहीं होगी। अतः सन्ध्या के लिए निर्धारित समय पर अपने को अन्य कार्यों से मुक्त कर ऋषि दयानन्द की वैदिक विधि से सन्ध्योपासना अवश्य करनी चाहिये।

ईश्वर सत्यस्वरूप हैं अर्थात् सत्तावान हैं। यह ज्ञान असत्य नहीं है। ईश्वर चेतन एवं आनन्दस्वरूप होने सहित निराकार भी है। वह सर्वशक्तिमान भी है। निराकार का अर्थ है कि उसका मनुष्य व अन्य भौतिक पदार्थों की तरह का आकार नहीं है। वह निराकार इस लिये भी है कि वह अत्यन्त सूक्ष्म व सूक्ष्मतम है। उससे सूक्ष्म कुछ भी नहीं है। उसकी सूक्ष्मता को वैज्ञानिक यन्त्रों से नहीं नापा जा सकता। इसी कारण वह सभी पदार्थों के भीतर व्यापक हो रहा है। यदि हम अपनी आत्मा पर विचार करें तो हम आत्मा के आकार प्रकार के बारे में कुछ नहीं बता सकते। हमें मात्र इतना ज्ञान है कि हमारा आत्मा सूक्ष्म व एकदेशी है। इसके भीतर परमात्मा व्यापक है। दोनो का व्याप्य-व्यापक व स्वामी सेवक का सम्बन्ध है। दोनों ही चेतन तत्व है। चेतन का गुण व स्वभाव ज्ञान व कर्म करने की क्षमता व शक्ति से युक्त होना होता है। आत्मा इसी कारण जन्म लेकर एकदेशी व अल्पज्ञ होकर भी अपने ज्ञान को बढ़ाता है और उस ज्ञान के अनुरूप अपने मन के संकल्पों के अनुसार कार्य करता व उनमें सफलता प्राप्त करता है। ऋषि दयानन्द को बाल्यकाल में ईश्वर विषयक ज्ञान नहीं था। उन्हें मूर्तिपूजा की निःसारता का विश्वास हो गया था। उन्होंने पुरुषार्थ कर ईश्वर का ज्ञान प्राप्त किया और साधना द्वारा उसका प्रत्यक्ष किया। इसके परिणाम से वह ईश्वर के साक्षात स्वरूप का दर्शन कर सके और अपने उपदेशों व स्वरचित ग्रन्थों के द्वारा उन्होंने ईश्वर का साक्षात स्वरूप संसार के सभी मानवों को बताने व समझाने का प्रयत्न किया जिसमें वह आंशिक रूप से सफल भी हुए। मत-मतान्तरों की अविद्या व उनके आचार्यो द्वारा सहयोग न करने से ईश्वर विषयक वेदों के यथार्थ ज्ञान से संसार के सभी मनुष्य लाभान्वित नहीं हो सके। आर्यसमाज का यह प्रयत्न जारी है और आशा की जा सकती है कि आने वाले समय में ईश्वर विषयक सत्य ज्ञान का अधिक प्रचार व प्रसार होगा जिससे अधिकाधिक लोग लाभान्वित हो सकेंगे।

ऋषि दयानन्द ने ईश्वर को जीवों वा चेतन आत्माओं के मनुष्य योनि में किये गये कर्मों का न्यायाधीश बताया है। ईश्वर वस्तुतः न्यायाधीश है। सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी होने से वह जीवों के प्रत्येक कर्म का साक्षी होता है। वेदों में ईश्वर के लिये अर्यमा शब्द का प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ न्यायाधीश है। ईश्वर ने हमारे पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार न्याय किया है तभी हमें मनुष्य जन्म और हमारे कर्मों के अनुरूप ही माता-पिता, देश, शरीर का रूप, रंग व इसमें कर्मों के अनुरूप क्षमता वाले मन, बुद्धि आदि अवयव मिले हैं। हम कुछ भी कर लें, ईश्वर के उपकारों से उऋण नहीं हो सकते। हमें दुःखों से बचने के लिए ईश्वर के न्यायाधीश स्वरूप को जानकर पापों से दूर रहना है। माता-पिता व विद्वानों की सेवा सत्कार सहित देश व समाज के प्रति समर्पित भाव रखकर इनकी उन्नति में सहयोग करना है। इससे हमें अनेक लाभ होते हैं। अच्छे कार्यों से मनुष्यों का यश बढ़ता है। हम अपने ऋषियों, विद्वानों, यशस्वी राजाओं एवं विश्व के वैज्ञानिकों को इसी लिये याद करते हैं कि उन्होंने सत्य पथ चलने हेतु अपने जीवन व व्यवहार से हमारा मार्गदर्शन किया है। दूसरी ओर मत-मतान्तरों की मिथ्या बातों को जो लोग जान कर उसे छोड़ नहीं रहे हैं वह अपने प्रति व अपने अनुयायियों के प्रति उत्तम आचरण नहीं कर रहे हैं। अविद्या का नाश होना चाहिये और विद्या की वृद्धि होनी चाहिये। यह वेद का आदेश है और ऋषि दयानन्द ने इस ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है। ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज की सहस्रों देनें हैं जिनके लिये हम इनके ऋणी हैं। कुछ अन्य कारणों पर हम अपने आगामी लेखों में प्रकाश डालेंगे। ईश्वर का सत्यस्वरूप, उसके गुण कर्म व स्वभाव तथा ईश्वर की उपासना की सच्ची व लक्ष्य प्राप्ति में सहायक विधि से परिचित कराने के लिये ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज को कोटिशः धन्यवाद। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य