सामाजिक

कीमियागर कौन

अलकेमिस्ट यानी कीमियागर, कीमियागर उसे कहते हैं जो पत्थर को सोने में तब्दील करने की कला जानता हो।बार बार मन में ख्याल आता है कि सोने में ऐसा क्या है कि वो मूल्यवान है? न तो उससे किसी का भूखा पेट भर सकता है न वो किसी की प्यास बुझा सकता है।क्यों हम किसानों को कीमियागर नहीं मानते। कुआँ खोदकर पानी निकालने वालों को क्या कभी दुर्लभ शिल्पी कहा गया? हमेशा दुनिया में ऐसी ही चीजों की कीमत ज्यादा होती है जो कम मात्रा में पायी जाये भले ही उसकी उपयोगिता जीवन में कम से कम हो। ठीक ऐसा ही है सोने के साथ जिसके पास है वो अमीर और न हो तो गरीब। अगर किसी के पास एक टन सोना हो और वो रेगिस्तान में अकेला पड़ जाए और उसे प्यास लगी हो तो क्या सोना बुझा सकेगा उसे? बिन पानी के कितने दिन जी पायेगा उस रेगिस्तान में सोने के साथ, फिर उसे सोना ही पड़ जायेगा हमेशा के लिए सोने के साथ। मेरे हिसाब से तो असली कीमियागर उसे मानना चाहिए जो ऊसर जमीन में अन्न उपजा सके। सूखती नदियों को जीवनदान दे सके। हमें बदलनी चाहिए कीमियागिरी की परिभाषा। ताकि धरती की कोख को रत्नों का खजाना मानने की विचारधारा हतोत्साहित हो। और हम निरन्तर उसका शोषण न करें। फिर बात चाहे जलवायु परिवर्तन की हो या ग्लोबल वार्मिंग की। परिवर्तन हमें अपने जीवन मूल्यों में करना पड़ेगा। हर उस वस्तु को बेकार साबित करना होगा जो जीवन के लिए अनिवार्य नहीं है या जिसके न होने से जीवन की गुणवत्ता में फर्क नहीं पड़ता। मतलब दिखावे की संस्कृति को अपने जीवन मूल्यों से निकाल फेंक देना पड़ेगा।

लवी मिश्रा

कोषाधिकारी, लखनऊ,उत्तर प्रदेश गृह जनपद बाराबंकी उत्तर प्रदेश