धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

विश्व के सभी मत-मतान्तरों के लिये ग्राह्य ऋषि दयानन्द प्रदत्त आर्यसमाज के प्रथम तीन नियम

ओ३म्

महर्षि दयानन्द सृष्टि की आदि में परमात्मा से उत्पन्न चार वेदों के उच्च कोटि के विद्वान थे। ऋषि दयानन्द योगी, बाल ब्रह्मचारी, अद्भुत ईश्वर विश्वासी, महान तार्किक, सत्य के पालक वा आग्रही, असत्य का त्याग करने में तत्पर, महान देशभक्त एवं ईश्वर-वेद-सद्धर्म-आर्यसंस्कृति के सच्चे निष्ठावान उपासक थे। उनके जैसा व्यक्ति हमें समस्त वैदिक वांग्मय एवं विश्व के इतिहास में दृष्टिगोचर नहीं होता। वह वसुधैव कुटुम्बकम्’ एवं मनुर्भव’ के भी आदर्श पालक एवं प्रचारक थे। सभी मत-मतान्तरों के मनुष्यों के प्रति उनके हृदय में उनकी उन्नति कल्याण की भावना थी। वह स्वार्थ एवं द्वेष से बहुत ऊपर उठे हुए थे। उनका स्वप्न था कि लोग सत्य को जाने, समझे, अनुभव करें और उसका ही अनुसरण करें। वह संसार से असत्य, अज्ञान, अन्याय तथा अभाव आदि को पूर्णतः दूर करना चाहते थे। यह सब सम्भव है यदि संसार के सभी लोग इस कार्य में सहयोग करें परन्तु मत-मतान्तरों की परस्पर विरोधी बातें, मान्यतायें सिद्धान्त तथा उनके अपने-अपने स्वार्थ दूसरों के प्रति द्वेष एवं उनके मतान्तरण करने की भावना ने संसार में दुःख, भय, चिन्ता, अन्याय, अभाव, अत्याचार, हिंसा, घृणा आदि नाना प्रकार की बुराईयों को जन्म दिया है। इन्हीं से लड़ने में महर्षि दयानन्द जी का समय व्यतीत हुआ। मत-मतान्तरों के लोगों ने उन्हें समझने की कोशिश ही नहीं की और अपने मत के पक्षपातपूर्ण चश्में से उन्हें देखकर उनकी सत्य मान्यताओं व भावनाओं से भय खाकर व अपने स्वार्थों की हानि अनुभव कर उनका विरोध किया। यही बातें उनके बलिदान का कारण बनीं। इस पर भी वह मनुष्यों के कल्याण के लिये सभी आवश्यक ज्ञान, मान्यतायें व सिद्धान्त दे गये हैं। यदि वह कुछ वर्ष और जीवित रहते तो मानवता की भलाई के साथ अज्ञान व अविद्या का नाश होता और संसार से परस्पर के द्वेष व हिंसा आदि की भावना समाप्त करने में सफलता प्राप्त होती।

मनुष्यों की अल्पज्ञता, अविद्या व स्वार्थ आदि की भावनाओं के कारण मानवता का जो उपकार हो सकता था, उससे सारा वैश्विक मनुष्य समुदाय वंचित हो गया। उनके बाद उन जैसा ब्रह्मचारी, विद्वान, ऋषि, योगी, मानवता का हितैषी एवं दूसरों के कल्याण के लिये अपना सर्वस्व समर्पित कर देने वाला आदर्श मनुष्य उत्पन्न नहीं हुआ। भविष्य में उत्पन्न होगा भी या नहीं?, कहा नहीं जा सकता। यह संसार ईश्वर का बनाया हुआ है, वही इसे चला रहा है। मनुष्य वा जीव कर्म करने में स्वतन्त्र हैं तथा उन कर्मों के फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र है। ईश्वर का न्याय आदर्श न्याय है। ईश्वर सभी मनुष्यों के सभी छोटे व बड़े शुभ व अशुभ कर्मों का साक्षी होता है। सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, न्यायकारी व सर्वज्ञ होने से वह प्रत्येक जीव के प्रत्येक कर्म को जानता व उनके कर्मों का त्रुटिरहित, युक्तियुक्त, न कम न अधिक तथा पाप-पुण्य के परिमाण के अनुरूप फल देता है। कोई मनुष्य किसी भी प्रकार से अपने अशुभ कर्मों के ईश्वरीय दण्ड से बच नहीं सकता है। मत-मतान्तरों के आचार्य व उनकी पुस्तकें पापों को क्षमा कराने की बात कहती व प्रचारित करती हैं। ऐसा कहना व मानना मिथ्या एवं घोर अविद्या की बात हैं। कर्म फल में यह सिद्धान्त कार्य करता है अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं’। मनुष्य को अपने किये हुये शुभ व अशुभ कर्मों के फल अवश्य ही भोगने पड़ेंगे। यदि इसमें न्यूनाधिक स्वीकार किया जाये तो फिर ईश्वर न्यायकारी नहीं रहेगा। ईश्वर वस्तुतः न्यायकारी है। वह अशुभ व पाप कर्म के परिमाण से अधिक दण्ड नहीं देता, यह उसकी दया है। मत-मतान्तरों के भोले भाले लोग अपने आचार्यों एवं पुस्तकों की बातों में फंस का अपना अमृत व दुर्लभ जीवन व्यर्थ नष्ट कर जन्म-जन्मान्तरों में दुःख पाते हैं। इसी कारण ऋषि दयानन्द ने सत्य व असत्य के स्वरूप को हमारे सामने रखा है परन्तु अज्ञानियों व मतवादियों की अपने प्रयोजन की सिद्धि, अविद्या, हठ व दुराग्रह आदि के कारण विश्व सत्य को स्वीकार नहीं कर सका व कर पा रहा है जिस कारण विश्व में मत, वर्ग व वैचारिक संघर्ष देखने को मिलता है।

महर्षि दयानन्द ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए ईश्वर प्रदत्त वेद विद्या से युक्त आदर्श येगी, ऋषि व विद्वान थे। उन्होंने आर्यसमाज को संसार का कल्याण करने में समर्थ दस नियम दिये हैं। प्रथम तीन नियम ऐसे हैं कि जिन्हें जानकर व उसका पालन कर मनुष्य का कल्याण हो सकता है। मत-मतान्तरों में यह ज्ञान व सत्य नियम कहीं दिखाई नहीं देते। यदि मत-मतान्तरों के आचार्य सत्य पर आरूढ़ हो सकें, तो इन नियमों को अपना कर वह अपना व मानवता का बहुत बड़ा हित कर सकते हैं। आर्यसमाज के प्रथम तीन नियम निम्नानुसार हैंः

  • सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उनका आदि मूल परमेश्वर है।
  • ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।
  • वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों (प्रत्येक मनुष्य) का परम धर्म है।

हम समझते हैं कि संसार के सभी मत-मतान्तरों के आचार्यों को इन नियमों का न तो ज्ञान है न ही उनके मत की पुस्तकों में इनका स्पष्ट व प्रकारान्तर से ही वर्णन है। इसी कारण संसार अविद्या से ग्रस्त होकर दुःखी है। यदि इन नियमों को समझ लिया जाये और उसे आचरण में लाया जाये तो इससे संसार की अनेक समस्याओं का समाधान हो सकता है। पहले नियम को लेते हैं। इसमें कहा गया है कि जिस संसार में हम हैं, जिसे हम देख रहे हैं व जिससे हमारी रक्षा व पालन हो रहा है, उसके सब पदार्थ सूर्य, चन्द्र, भूमि, अग्नि, वायु, जल, आकाश आदि सभी पदार्थ ईश्वर के बनाये हुए हैं। वह ईश्वर ही इन सब पदार्थों का आदि मूल है। वही इनका स्वामी है। इन पदार्थों को ईश्वर ने जिस विद्या से उत्पन्न किया है वह समस्त विद्या का आदि मूल भी संसार में व्यापक सत्ता ईश्वर ही है। इस सत्य रहस्य व ज्ञान को न जानने से संसार के सभी मनुष्य प्रायः नास्तिक हैं। ईश्वर को मानना ही पर्याप्त नहीं होता अपितु उसके सत्यस्वरूप को जानकर उसे उसके अनुरूप मानना आवश्यक है। मत-मतान्तरों में ईश्वर का सत्यस्वरूप उपलब्ध न होने से हम उन्हें आस्तिक नहीं कह सकते। इसके लिये उन्हें वेद, ईश्वर व ऋषि दयानन्द सहित भारतीय प्राचीन ऋषियों की शरण में आना होगा अन्यथा वह अपना व अपने अनुयायियों का जीवन सत्य ज्ञान से युक्त न कर पाने से उनके प्रति न्याय नहीं कर सकेंगे जिसकी हानि उन्हीं को ईश्वर की व्यवस्था से जन्म जन्मान्तरों में उठानी है। इस सिद्धान्त को जानने के बाद ईश्वर का सत्य स्वरूप जानने की इच्छा उत्पन्न होती है। ऋषि दयानन्द ने उसे दूसरे नियम में प्रस्तुत किया है।

दूसरे नियम में ईश्वर के सत्य व यथार्थस्वरुप का चित्रण हैं। ईश्वर सत्य-चित्त-आनन्द अर्थात् सच्चिदानन्द स्वरूप है। हमारा अध्ययन बताता है कि संसार के किसी मत के ग्रन्थ में ईश्वर को सत्य-चित्त-आनन्द स्वरूप नहीं बताया गया है। इसका अर्थ है कि उन्हें इसका ज्ञान नहीं था। ईश्वर का यही गुण उसके अन्य गुणों का आधार कह सकते हैं। दूसरे नियम में ईश्वर के जो विशेषण बताये गये हैं, वही ईश्वर का सत्य स्वरूप हैं। इसको जानने व मानने से मनुष्य को अपनी अल्पज्ञता व अल्प सामर्थ्य का ज्ञान होता है। मनुष्य में कम अधिक, जिसमें जितना ज्ञान, पुरुषार्थ एवं अन्य सामर्थ्य हैं, वह सब ईश्वर प्रदत्त ही है। यदि ईश्वर हमें अर्थात् हमारी जीवात्मा को जन्म दे, तो हमारी जीवात्मा अस्तित्व रखते हुए भी, कुछ नही कर सकती। ईश्वर का सभी जीवों पर यह ऐसा उपकार है, जिसके लिये सभी को उसका धन्यवाद एवं आभार व्यक्त करना चाहिये। इसी का नाम स्तुति व प्रार्थना है। ऐसा करने से मनुष्य के अहंकार का नाश होता है। अन्य अनेक गुणों का आधान भी मनुष्यों मे ईश्वर के सत्यस्वरूप के ज्ञान एवं उपासना से होता है। यदि सभी मत-मतानतर इस नियम को स्वीकार कर लें तो सभी मत-मतान्तर समाप्त होकर एक मनुष्य धर्म ‘‘सत्य सनातन वैदिक धर्म” संसार में अस्तित्व में आ सकता है जिससे सभी मनुष्य परस्पर सत्य व सौहार्द का व्यवहार कर सुखी हो सकते हैं व एक दूसरे के अज्ञान, अन्याय, अभाव आदि दुःखों को दूर कर सकते हैं। स्थानाभाव से हम इस विषय में अधिक चर्चा न कर पाठकों को ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों सहित उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, वेद आदि ग्रन्थों के अध्ययन की सलाह देंगे।

तीसरे नियम में वेदों को सब सत्य विद्याओं का पुस्तक कहा गया है। इसका अर्थ है कि सब सत्य विद्याओं का मूल कारण परमात्मा होने से वेद उसकी विद्या है अर्थात् वेद ईश्वरीय ज्ञान है और ईश्वर की सृष्टि विषयक सभी विद्याओं का वेद में प्रकाश है व उन्हें वेदाध्ययन कर जाना व प्राप्त किया जा सकता है और आवश्यकतानुसार उसका विस्तार किया जा सकता है। वेदों में ईश्वर का सत्य स्वरूप विस्तार से वर्णित है। इससे नास्तिकता, स्वार्थपूर्ण विचारों व आचरणों से मोह दूर होता है। यदि हम वेदों का अध्ययन वा स्वाध्याय करेंगे तो हम असत्य व अज्ञान को प्राप्त नहीं होंगे। इससे कोई नया मत-मतान्तर भी उत्पन्न नहीं होगा और प्रचलित मतों के लोग भी वेदाध्ययन कर अविद्यायुक्त अपने मत-मतान्तरों का त्याग कर ईश्वर प्रदत्त वेद मत को स्वीकार कर अपना व समस्त विश्व समुदाय का हित व कल्याण करने में सहायक होंगे। जिस प्रकार से ईश्वर की यह सृष्टि हमारा हित करती व हमें सुख देती है उसी प्रकार उसका वेद ज्ञान भी हमें ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति-सृष्टि का ज्ञान देकर सुखी करता है व मोक्ष का सबसे बड़ा सुख प्राप्त कराता है। इसी कारण ऋषि दयानन्द जी ने कहा है कि वेद का पढ़ना व पढ़ाना तथा वेद का सुनना व सुनाना सब मनुष्यों, आबाल-वृद्ध-स्त्री व पुरुषों का परम धर्म है। तर्क की दृष्टि से भी ऋषि दयानन्द का यह सिद्धान्त सत्य सिद्ध होता है। अतः सभी मनुष्यों को इसे अपनाना चाहिये व दूसरों से भी इसे ग्रहण व धारण कराना चाहिये।

हमने आर्यसमाज के नियमों को विश्व समुदाय के लिये ग्राह्य बताया है। हम समझते हैं कि पाठक हमारी बात से सहमत होंगे। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य