धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

सत्यार्थप्रकाश अविद्या दूर कर मनुष्य को सच्चा विद्वान बनता है

ओ३म्

सत्यार्थप्रकाश आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती जी का लिखा हुआ ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ पहली बार सन् 1874 में लिखा गया था। इसका संशोधित संस्करण सन् 1883 में तैयार हुआ था जो ऋषि दयानन्द की 30-10-1883 को मृत्यु के बाद सन् 1884 में प्रकाशित हुआ था। सत्यार्थप्रकाश इस लिये लिखा गया कि ऋषि दयानन्द देश के विभिन्न स्थानों पर जाकर सद्धर्म, ईश्वर, जीवात्मा, उपासना, पुनर्जन्म, इतिहास, यज्ञ एवं संस्कार आदि अनेकानेक विषयों पर उपदेश देते थे। उनके उपदेश अपूर्व, गवेषणापूर्ण, वेदज्ञान पर आधारित, सत्य व तर्क से युक्त होते थे। लोगों को ऋषि दयानन्द के उपदेश सुनकर मृतसंजीवनी की भांति आनन्द व सुख का अनुभव होता था। अतः काशी में प्रवचन के दौरान उच्चपदस्थ सरकारी अधिकारी व मुरादाबाद निवासी राजा जयकृष्ण दास ने उन्हें अपने उपदेशों की समस्त सामग्री से युक्त एक ग्रन्थ लिखने की प्रेरणा की थी जिससे वह लोग जो प्रवचन सुनने नहीं आ पाते, घर में बैठे लाभ उठा सकें। इस पुस्तक का लाभ ऋषि के जीवन काल व बाद में ही समान रूप होना था। ऋषि वक्ता के इस महत्वपूर्ण प्रस्ताव को समझ गये और उन्होंने तत्काल इसकी स्वीकृति दे दी। लगभग तीन महीनों की अल्प अवधि में ही विश्व का यह महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा गया था। राजा जयकृष्ण दास जी ने ही इस ग्रन्थ का प्रकाशन किया। चौदह समुल्लासों वाले इस ग्रन्थ के केवल 12 समुल्लास ही प्रथम संस्करण के रूप में प्रकाशित किये गये थे। प्रकाशित ग्रन्थ में कुछ स्थानों पर ग्रन्थ के लिपिकर्ता तथा प्रेस के लोगों ने ऋषि की मान्यताओं के विरुद्ध परिवर्तन कर दिया था। यह त्रुटियां ही बाद में इस ग्रन्थ के संशोधित एवं परिवर्धित संस्करण का कारण बनीं। संशोधित संस्करण सन् 1884 में प्रकाशित हुआ जिसमें पूर्व संस्करण की तुलना में अनेक विशेषतायें थी। यही संस्करण वर्तमान में प्रयोग में लाया जा रहा है।

सत्यार्थप्रकाश अन्य सभी मतों के ग्रन्थों से महत्वपूर्ण है और आर्यों का धर्म ग्रन्थ है। वेद सम्पूर्ण मानव जाति का धर्मग्रन्थ है। सत्यार्थप्रकाश में भी वेद की मान्यताओं का ही संकलन कहा जा सकता है जिसे लोगों की सुविधा के लिये लोगों के ही निवेदन पर ऋषि दयानन्द ने तैयार किया था। सत्यार्थप्रकाश वेदों का पूरक ग्रन्थ है। इसके प्रथम दस समुल्लासों में वैदिक मान्यताओं का विधान है और बाद के चार समुल्लास मत-मतान्तरों की अविद्या की समीक्षा व लोगों को सत्यासत्य का निर्णय करने में सहायता के लिये लिखे गये हैं। सत्यार्थप्रकाश से ईश्वर के सत्यस्वरूप का ज्ञान होता है। ईश्वर ने सृष्टि कब, क्यों, कैसे व किसके लिये बनाई, इन सभी प्रश्नों का उत्तर मिलता है। उपासना क्यों करते हैं व उससे क्या लाभ होता है, इसका भी सुसंगत, तर्क एवं युक्तिपूर्ण उत्तर सत्यार्थप्रकाश में मिलता है। भक्ष्याभक्ष्य पदार्थों का उल्लेख व विवेचना भी सत्यार्थप्रकाश में प्राप्त होती है। माता-पिता व आचार्यों के कर्तव्य व शिष्य के कर्तव्यों का वर्णन भी सत्यार्थप्रकाश में है। एक-दो नहीं अपितु सैकड़ों धर्म व समाज हित विषयक मान्यताओं का विवेचन सत्यार्थप्रकाश में प्राप्त होता है जिससे मनुष्य को असत्य का त्याग व सत्य का ग्रहण करने में सहायता मिलती है।

महाभारत युद्ध के बाद देश व विश्व में अविद्या फैल गई थी जिससे समाज में अन्धविश्वास एवं कुरीतियां उत्पन्न हुई। इस कारण सभी मनुष्यों का जीवन दुःखमय हो गया तथा मनुष्य सत्यविधि से ईश्वरोपासना तथा अग्निहोत्र यज्ञ से भी दूर हो गये थे। माता-पिता व आचार्यों का महत्व व उनकी सेवा करना सन्तान व शिष्य का धर्म होता है, इसका युक्तिपूर्वक प्रतिपादन भी इस ग्रन्थ में है जो ग्रन्थ को पढ़ने से पाठक को सुलभ होता है। सत्यार्थप्रकाश को पढ़ने से मनुष्य की अविद्या दूर होती है। वह अन्धविश्वासों, सामाजिक कुरीतियां व वेदविरुद्ध कार्यां व आचरणों को छोड़ देता है तथा ईश्वर, आत्मा, समाज, देश व मानवता के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह करता है।

सत्यार्थप्रकाश की एक विशेषता यह भी है कि यह लोक भाषा हिन्दी में है और इसके देश व विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद भी उपलब्ध है। सत्यार्थप्रकाश के सभी अनुवाद सीडी आदि में भी उपलब्ध हैं जिससे सत्यार्थप्रकाश के अनुवाद की भाषा को जानने वाले लोग लाभान्वित होते हैं। हमने देखा है कि साक्षर व्यक्तियों ने भी सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर धर्म प्रचारक होने की योग्यता प्राप्त की है जिसके सामने मत-मतान्तरों के पढ़े लिखे विद्वानों की दाल भी नहीं गलती थी। हम स्वयं को भी सत्यार्थप्रकाश का ऋणी अनुभव करते हैं। यदि हम आर्यसमाज से न जुड़े होते तथा सत्यार्थप्रकाश व ऋषि दयानन्द के अन्य ग्रन्थों को न पढ़ा होता तो आज हम जो ज्ञान रखते व कार्य करते है, हमारी वह स्थिति कदापि न होती। हमारे जैसे सहस्रों लोग देश व विश्व में हैं जिन्हें सत्यार्थप्रकाश व आर्यसमाज के सम्पर्क में आने से लाभ मिला है और उनकी शारीरिक, आत्मिक तथा सामाजिक उन्नति हुई है। उन्होंने सत्य को ग्रहण किया और असत्य का त्याग किया है। उनकी अविद्या नष्ट हुई है तथा विद्या की वृद्धि हई। ऐसे अनेक लाभ अनेक मनुष्यों को हुए हैं।

सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर मनुष्य सच्चा धार्मिक बनता है। धर्म उन मानवीय गुणों को कहा जाता जिन्हें धारण करने से मनुष्य का अभ्युदय होता है और उसका परलोक सुधरता है वा मरने पर जन्म व मरण के बन्धन से छूटकर मोक्ष की प्राप्ति होती है। सत्यार्थप्रकाश व आर्यसमाज में जाने से मनुष्य की सभी बुरी आदते छूट जाती हैं। आर्यसमाजी शराब नहीं पीते, मांसाहार नहीं करते, अंडों का सेवन भी नहीं करते और न तम्बाकू का ही धूम्रपान आदि किसी रूप में प्रयोग करते हैं। सत्यार्थप्रकाश मनुष्य में अपरिग्रह की भावना को उत्पन्न करता है। वह प्रतिदिन प्रातः व सायं वैदिक रीति से सन्ध्या वा ईश्वरोपासना तथा अग्निहोत्र आदि यज्ञों का अनुष्ठान भी करता है। सन्ध्या से आत्मा की उन्नति होकर ईश्वर का सहाय प्राप्त होने से सामाजिक उन्नति भी होती है। अग्निहोत्र से घर की वायु शुद्ध होने से बाहर का वातावरण भी शुद्ध होता है जिससे अनेक साध्य व असाध्य रोगों से रक्षा व बचाव होता है। मनुष्य बुरे लोगों की संगति छोड़कर भी लाभ में रहता है तथा सज्जनों व आर्यपुरुषों की संगति करके भी अनेकानेक लाभों को प्राप्त होता है। अतः सत्यार्थप्रकाश पढ़ने से अनेक लाभ होते हैं।

सत्यार्थप्रकाश पढ़ने का एक लाभ यह भी है कि इससे मनुष्य विद्वान बनता है व धर्म प्रचारक भी बनता है। वह अनायास ही एक अच्छा वक्ता व उपदेशक भी बन जाता है। वह भारतीयता व भारतीय वेशभूषा तथा वैदिक परम्पराओं से प्रेम करता व उन्हें अपनाता है। यदि एक वाक्य में कहना हो तो हम यही कहेंगे कि सत्यार्थप्रकाश पढ़ने व आर्यसमाज में जाने से मनुष्य की शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति होती है। उसकी अविद्या नष्ट हो जाती है। वह विद्या स्नान कर ज्ञानी बन जाता है। मनुष्य के लिये यही आवश्यक है। आर्यसमाज के अनुयायियों का यश भी अन्यों की अपेक्षा अधिक बढ़ता है। इसका एक उदाहरण देकर हम इस लेख को समाप्त करेंगे।

एक बार आचार्य पं0 चमूपति जी अपनी धर्मपत्नी और पुत्र के साथ रेलयात्रा कर रहे थे। पुत्र छोटा थां। पण्डित चमूपति जी ने पुत्र का निकट नहीं लिया था। टीटी आया और उसने टिकट मांगे। पण्डित जी ने दो टिकट उन्हें दिखाये। पण्डित जी से टीटी ने पुत्र की आयु पूछी? पण्डित जी ने उसकी जन्म तिथि से गणना की तो उसी दिन वह पांच वर्ष का हुआ था। पांच वर्ष के बच्चे का आधा टिकट लगता था। पण्डित जी ने अपनी गलती स्वीकार की और टीटी से क्षमा मांगी और कहा कि अनजाने में यह भूल हो गई। बताईये कि मुझे कितना किराया व दण्ड देना है? टीटी ने कहा कि कोई बात नहीं। यदि दूसरा टीटी आये तो आप उसे इसकी आयु पांच वर्ष से कम की बता देना। पण्डित जी नहीं माने और कहा कि नहीं, नियमानुसार टिकट व दण्ड-पेनेलटी लें। पण्डित जी के व्यवहार का टीटी पर बहुत प्रभाव पड़ा और वह उनके इस व्यवहार के कारण सदा के लिये उनका भक्त बन गया। ऐसे एक नहीं अनेकों उदाहरण है। सत्यार्थप्रकाश पढ़कर मनुष्य वेदानुयायी वा आर्यसमाजी बनता है और सत्कर्मों व सदाचरण के कारण उसका यश बढ़ता है। यह ऐसी कमाई है जिसके सम्मुख कागज के नोटों का महत्व कम है। कागज के नोटों से इस प्रकार प्राप्त यश को नहीं खरीदा जा सकता। सत्यार्थप्रकाश वस्तुतः मनुष्य की अविद्या को दूर कर उसे सच्चा धार्मिक जीवन व्यतीत करने का अवसर देता है जिससे उसकी सर्वांगीण उन्नति होती है। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य