धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

गो अवध्य प्राणी है

ओ३म्

हमारा यह संसार मनुष्यों सहित अन्यान्य प्राणियों से युक्त है। हमारा जीवन मुख्यतः वायु, जल, अन्न सहित गो दुग्ध पर निर्भर है। वायु परमात्मा की कृपा से सर्वत्र उपलब्ध होती है। जल भी नदियों, जलाशयों व भूमि में नलकूप से अथवा सरकारी जल-प्रबन्धन व्यवस्था से सुलभ हो जाता है। अन्न हमें किसानों से प्राप्त होता है। वह कृषि कार्य कर अन्न उत्पन्न करते हैं। कृषि कार्य में खेत की भूमि की जुताई का विशेष महत्व है जिसके लिये गाय से उत्पन्न बछड़ा जो बड़ा होकर बैल कहलाता है, उपयोगी होता है। हम जो अन्न प्राप्त करते हैं उसके लिये हम भूमि माता सहित किसान बैल आदि प्राणियों के ऋणी होते हैं। आज के अंग्रेजी भाषा से शिक्षित कुछ अन्य मतावलम्बी हमारी इस बात से हो सकता है सहमत हो, परन्तु हमें यह बात उचित प्रतीत होती है कि जो भी मनुष्य अन्न का उपयोग वा सेवन करता है वह भूमि, किसान, किसान परिवार एवं गाय सहित बैलों का ऋणी होता है। मान लीजिये कि किसी कारण से इन में से किसी एक वस्तु व प्राणी की उपलब्धि न हो, तो क्या हमें अन्न प्राप्त हो सकता है? इसका उत्तर न में ही मिलेगा। अतः गाय उसके बछड़े का ऋणी होने के कारण हमें इन पशुओं के प्रति कृतज्ञता का भाव रखना चाहिये। जो मनुष्य ऐसा नहीं सोचता व गों-जाति के प्रति कृतज्ञता का भाव नहीं रखता वह आकृति से मनुष्य के समान होने पर भी वस्तुतः मनुष्य नहीं होता। यही कारण है कि वेदों में मनुष्य की आकृति रखने वाले प्राणियों को मनुष्य अर्थात् मननशील बनने का उपदेश किया गया है।

मनुष्य उसे कहते हैं कि जो मननशील हो और मनन के द्वारा सत्य व असत्य का निर्णय कर सके। इसके लिये उसे वेदादि ग्रन्थों के स्वाध्याय सहित विद्वानों की संगति करनी आवश्यक है। ऐसा करने से हमारा ज्ञान बढ़ता है और सत्यासत्य को जानने में भी हम समर्थ होते हैं। जो मनुष्य स्वाध्यायशील नहीं है और विद्वानों की संगति से दूर है, वह साक्षर और पुस्तकीय ज्ञान तो रख सकते हैं परन्तु अपनी बुद्धि से गम्भीर विषयों में निर्णय नहीं ले सकता। इसके लिये उसे वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों का ज्ञान होना आवश्यक है। ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में ज्ञानार्जन करने सहित अध्ययन-अध्यापन, स्वाध्याय तथा विद्वानों व ज्ञानियों की संगति की थी। उन्हें जहां जो ग्रन्थ मिलता था उसका वह बुद्धि से तर्क-वितर्क पूर्वक अध्ययन करते थे जिससे उनका ज्ञान बढ़ता गया और वह वेद विषयक अनेक गम्भीर रहस्यों को जानने में समर्थ हो सके। इसी कारण से वह एक प्रभावशाली वक्ता एवं क्रान्तदर्शी लेखक व ग्रन्थकार भी बने। उनके जीवन में ब्रह्मचर्य का पालन एवं ईश्वरोपासना का विशेष स्थान था, इससे भी उन्हें ज्ञान प्राप्ति एवं अनेकानेक गम्भीर विषयों का ज्ञान प्राप्त हुआ था जो पुस्तकों व विद्वानों के पास नहीं था। हमारा सौभाग्य है कि हमें उनके प्रायः सभी ग्रन्थों को देखने व पढ़ने का अवसर मिला है। हमें महात्मा अमर स्वामी सरस्वती, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती, डॉ0 सत्यप्रकाश सरस्वती, स्वामी विद्यानन्द विदेह, डॉ0 भवानीलाल भारतीय, पं0 विश्वनाथ विद्यालंकार, डा0 रामनाथ वेदालंकार, पं0 ओम् प्रकाश शास्त्री, खतौली, महात्मा आनन्द स्वामी, पं0 युधिष्ठिर मीमांसक, स्वामी ओमानन्द सरस्वती, स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती, पं0 प्रकाशवीर शास्त्री, पं0 वेदप्रकाश श्रोत्रिय, डॉ0 सोमदेव शास्त्री, मुम्बई, डॉ0 ज्वलन्त कुमार शास्त्री, डॉ0 धर्मवीर, प्रा0 राजेन्द्र जिज्ञासु जी आदि विद्वानों को देखने व उनके विचार सुनने का भी अवसर मिला है। इनकी पुस्तकों एवं विचारों से हमें अनेक प्रकार से लाभ पहुंचा है। अतः मनुष्य बनने के लिये हमें स्वाध्याय एवं विद्वानों की संगति करनी चाहिये जिससे हम इनसे होने लाभों को प्राप्त कर सके।

गो परमात्मा का बनाया हुआ ऐसा प्राणी है जिससे मनुष्य को आरोग्य, स्वास्थ्य, बल, बुद्धि, आयु, परोपकार की शिक्षा, अपने रक्षक की सभी प्रकार से सेवा आदि की प्रेरणा एवं लाभ प्राप्त होते हैं। गाय हमसे केवल घास व पानी की अपेक्षा रखती है और इसके बदले में हमें अमृत के समान स्वादु, बलवर्धक व आरोग्यकारक दुग्ध प्रदान करती है जिसका उपयोग हम मक्खन, घृत, दही, छाछ, पनीर, मावा, पंचगव्य आदि बनाने में कर सकते हैं। गाय से हमें जिन पदार्थों की प्राप्ति होती है उसका मूल्य हम धन खर्च करके नहीं दे सकते। इसका प्रत्युपकार तो केवल हम उसकी सेवा करके ही दे सकते हैं। हमारे पूर्वज व ऋषियों ने गोपालन की प्रेरणा की है। योगेश्वर श्री कृष्ण गोपालन करते थे और दुग्ध व मक्खन का प्रचुर मात्रा में सेवन करते थे। गाय के प्रति उनके हृदय में अजस्र प्रेम व पूजा का भाव था। गाय अपने जीवनकाल में तो अपने रक्षक व पालक की दुग्धादि पदार्थ देकर सेवा करती ही है, मरने पर भी अपनी त्वचा से हमारे पैरों की रक्षा करती है। ऐसे उपयोगी प्राणी के लिये हमारा कर्तव्य है कि हम उसकी सेवा व रक्षा करें और उसे किसी प्रकार की पीड़ा व कष्ट न होने दें।

गाय के बछड़े भी अत्यन्त उपयोगी होते हैं जिसका कुछ वर्णन हम पूर्व पंक्तियों में कर चुके हैं। गाय की रक्षा व पालन से हमारा यह जीवन तो सुधरता ही है परलोक भी सुधरता है। हमारे पर्यावरण की रक्षा भी गाय की सेवा से होती है। इसे हम इस प्रकार से समझ सकते हैं कि गाय के दुग्ध से घृत बनाकर हम अग्निहोत्र यज्ञ कर सकते हैं जिससे वायुमण्डल व पर्यावरण को अनेक प्रकार से लाभ होता है। गीता में श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को समझाया है कि यज्ञ घृत से किया जाता है। घृत गाय से प्राप्त होता है। घृत की अग्निहोत्र में आहुतियां देने से बादल बनते हैं। बादलों से वर्षा होती है। वर्षा से अन्न उत्पन्न होता और अन्न से मनुष्य के शरीर में सबसे मूल्यवान पदार्थ वीर्य व बल-शक्ति उत्पन्न होती है। इससे सन्तान का जन्म होता है। इस प्रकार सन्तानोत्पत्ति का संबंध भी गो व उसके घृत से है। हमारे जन्म व पालन में गाय का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। अतः गोरक्षा व गोपालन हमारा सौभाग्य एवं कर्तव्य है। हमारा यह भी कर्तव्य है कि हम कसाईयों व गोमांस भक्षकों से गो माता को बचायें और गोरक्षा के लिये प्रभावशाली आन्दोलन करें। गोरक्षा पर पूर्ण प्रतिबन्ध होना चाहिये। गोभक्षकों से हमें सम्बन्ध नहीं रखने चाहिये। हमें उनका सुधार करने का प्रयत्न करना चाहिये और यदि वह न सुधरे तो उनसे हमें यथायोग्य व्यवहार करना ही उत्तम है। इसी क्रम में हम यह भी बता दें कि गोमांस का सेवन महापाप है और इससे इस जन्म व परजन्म में दुःख ही दुःख प्राप्त होता है।

महर्षि दयानन्द जी ने किसी स्थान पर लिखा है कि मनुष्य को किसी भी वस्तु को देखकर विचार करना चाहिये कि परमात्मा ने उस वस्तु को किस किस प्रयोजन व उपयोग के लिये बनाया है। उससे वही उपयोग लेना मनुष्य का कर्तव्य व धर्म है। यह सुविदित है कि परमात्मा ने गाय को मनुष्य को दुग्ध आदि से लाभ पहुंचाने के लिये बनाया है। गो एक प्राणी योनि है जिसका आधार उसके पूर्वजन्म में मनुष्य जीवन में किये गये शुभाशुभ कर्म हैं। वह गो के रूप में जन्म लेकर अपना कर्मफल भोग रही होती है। उसकी आयु उन कर्म फलों का भोग करने के लिये ही परमात्मा द्वारा निर्धारित की गई होती है। जो लोग अपने जीभ के स्वाद एवं भोजन के लिये स्वयं व दूसरों से गो की हत्या करने में भागीदार होते हैं वह गो के तो अपराधी होते ही हैं इसके साथ ही परमात्मा के भी अपराधी होते हैं। परमात्मा ने जिस प्रयोजन के लिये गाय को जन्म दिया होता है उसको वह गोभक्षक लोग न समझकर व उसकी अवहेलना कर अपने स्वार्थ के लिये उसे मारते हैं और परमात्मा के प्रयोजन में बाधा उत्पन्न करते हैं। इससे अनुमान किया जा सकता है कि परमात्मा इन लोगों को परजन्म में क्या फल देगा। अतः गोरक्षा उचित कार्य है। हिन्दुओं की शिथिलता से ही देश में गोहत्या हो रही है। महर्षि दयानन्द ने गोहत्या बन्द कराने के लिये एक बहुत बड़ा आन्दोलन चलाया था। यदि विधर्मियों व उनके गुप्त शत्रुओं द्वारा उनकी हत्या का षडयन्त्र न किया जाता तो वह गोहत्या को बन्द कराके ही रहते। महर्षि दयानन्द का गोहत्या बन्द कराने का काम अधूरा है। उनके अनुयायियों को उसे पूरा करने का प्रयत्न करना चाहिये। तभी वह महर्षि दयानन्द के अनुयायी कहला सकते हैं।

महर्षि दयानन्द जी ने गोकरुणानिधि” पुस्तक लिखी है। यह पुस्तक गागर में सागर है। महर्षि के अनुयायी पं0 प्रकाशवीर शास्त्री ने गोहत्याराष्ट्रहत्या’ पुस्तक लिखी है। स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी ने गो की गुहार’ पुस्तक लिखी है। डा0 ज्वलन्त कुमार शास्त्री जी और मेहता जैमिनी जी ने भी गोरक्षा पर महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी हैं। ऐसी अनेक पुस्तकें और भी उपलब्ध हैं। यह सभी पुस्तकें गोरक्षकों के लिये पठनीय हैं। इससे हम अपना ज्ञानवर्धन कर सकते हैं।

लेख को और विस्तार न देकर हम कहना चाहते हैं कि मानवीय दृष्टि एवं ईश्वर की वेदाज्ञा के अनुसार भी गो अवध्य है। यदि हम गोरक्षा नहीं करके तो हम ईश्वर के अपराधी होकर दण्डनीय होंगे। कर्म का फल अवश्य मिलता है। ईश्वर भी बिना कर्म का फल भोगे किसी पापी व अपराधी को क्षमा नहीं कर सकता। इसलिये मनुष्य को मननशील बनकर ईश्वर के आशय व प्रयोजन को जानकर सभी अनुचित व वेदविरुद्ध कामों को बन्द कर देना चाहिये। इसी में हमारी व सबकी भलाई है। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य