लेख

संवेदनाओं में भी दोगलापन

पिछले दिनों ईस्टर के मौके पर श्रीलंका के गिरजाघरों और लग्जरी होटलों में हुए विस्फोटों को स्थानीय इस्लामी आतंकवादियों ने अंजाम दिया था। श्रीलंकाई जाँच एजेंसी ये विस्फोट न्यूजीलैंड की मस्जिदों में की गई गोलीबारी का बदला बता रही हैं। इन विस्फोटों में मरने वालों की संख्या बढ़कर 300 से ज्यादा हो गई जिनमें 38 विदेशी शामिल हैं।

इसे बिलकुल सरल उदहारण में ऐसे समझे जैसे दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद का विवादित ढांचा ढहा दिया गया था, जिसके बाद दाऊद इब्राहिम, टाइगर मेनन, मोहम्मद दोसा और मुस्तफा दोसा ने ‘बाबरी मस्जिद ढहाए जाने का बदला लेने के लिए  कुछ समय बाद ही 1993 में एक के बाद एक विस्फोट कर मुम्बई को दहला दिया था। जिसमें 257 मासूम लोग मारे गये और 713 अन्य घायल भी हुए थे।  बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचा गिराए जाने की आलोचना आज तक हो रही है लेकिन मुम्बई हमलों की आलोचना कभी सुनाई नहीं देती जबकि अयोध्या में मात्र कुछ पत्थर गिरे थे और मुंबई में लाशें। यही नही जब इन हमलों के हत्यारे को फांसी देने की बात आती है तब अनेकों लोग उसे बचाने भी सामने आते हैं।

ठीक इसी तरह पिछले महीने न्यूजीलैंड के क्राइस्टचर्च की दो मस्जिदों में हुए हमले का बदला लेते हुए इस्लामवादियों ने एक के बाद हमले कर श्रीलंका के गिरजाघरों और लग्जरी होटलों में सेंकडों लाशें बिछा दी लेकिन राजनितिक आलोचना के अलावा कहीं से कोई संवेदना का स्वर दिखाई नहीं दिया। जबकि क्राइस्टचर्च हमले के बाद न्यूजीलैंड प्रधानमंत्री अर्डर्न ने हमले में मारे गए लोगों के परिवारों से मुलाकात की मुस्लिम परिवारों के पास हिजाब में पहुंचीं, उन्हें गले लगाया और मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि दी। उनके चेहरे पर मायूसी थी, आंखें नम थी अनेकों लोग दुनिया के दक्षिणपंथी नेताओं को उनसे करुणा और प्रेम का पाठ सीखने की नसीहत दे रहे हैं।

इसके बाद वहां शुक्रवार की अजान का सीधा प्रसारण किया गया और मृतकों के लिए इस दौरान दो मिनट का मौन रखा गया। प्रधानमंत्री अर्डर्न ने कहा था कि पूरे देश में सरकारी टीवी और रेडियो पर जुमे की नमाज पर सीधा प्रसारण किया जाएगा, ताकि मुसलमानों को अपने अकेले होने का अहसास ना हो सके। उन्होंने कहा था कि हम सब उनके साथ हैं और मुसलमान हमारे हैं।

भारत में भी न्यूजीलैंड में मुसलमानों पर हुए हमले के विरोध में एएमयू के छात्रों ने कैंडिल मार्च निकाला। बाबे सैयद पर नमाज ए जनाजा पढ़कर शोक व्यक्त करते हुए इसे मानवता के खिलाफ बताते हुए कहा कि यह हमला अमेरिका में हुए 9/ 11 से ज्यादा घातक है। हमला कराने वाले यह न समझें कि हम डरकर बैठने वाले नहीं हैं। जबकि देखा जाये तो अमेरिका में हुए 9/11 हमले 3 हजार से ज्यादा लोग मारे गये थे।

पाकिस्तान समेत अनेकों मुस्लिम देशों के तरफ से इसे मानवता को शर्मशार करने वाला बताया किन्तु जब इसके जवाब में ईस्टर के मौके श्रीलंका के गिरजाघरों और लग्जरी होटलों को उड़ा दिया गया एक बार फिर सभी कथित मानवतावादी गायब मिले न किसी मुस्लिम देश में इसके लिए आंसू बहा और न ही श्रद्धाजलि सभा का आयोजन हुआ।

इससे पहले जब फ्रांस की एक पत्रिका चार्ली हेब्दों इस्लाम विरोधी कंटेंट छाप देती है तब उसकी आलोचना सभी जगह सुनाई देती है। लेकिन जब आंतकी मैगजीन में छपे कंटेंट का बदला लेते हुए पत्रिका से जुड़ें 9 पत्रकार और 2 सुरक्षाकर्मियों की हत्या कर घटनास्थल पर नारे लगाते है कि हमने पैगबंर का बदला ले लिया तब भी पत्रकारों के प्रति संवेदना गायब दिखती हैं।

आखिर कब हमारे विचारों में एकता आयेगी? कब तक एक पहलु को देखते रहेंगे क्या श्रीलंका में मरने वाले लोग इन्सान नहीं थे या न्यूजीलेंड में मरने वाले मुस्लिमों के मुकाबले उन्हें कम दर्द हुआ? आखिर क्यों एक कट्टर विचाधारा को राजनितिक और वैचारिक संरक्षण प्रदान किया जा रहा है! अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मुसलमानों पर हुए हमले के विरोध में छात्रों ने कैंडिल मार्च निकाला लेकिन अब इनकी मानवता कहाँ गयी जब श्रीलंका में इससे कई गुना ज्यादा लोग मार दिए गये?

हर एक हमले और इस्लामवाद के बदले के नाम पर हत्याओं से शिक्षा लेने की प्रक्रिया का आरम्भ पिछले सैंकड़ों वर्षों से जारी है। लोकतंत्र में जीवन व्यतीत करने वाले हमारे जैसे लोग इस्लामवाद के बारे में तब जान पाते हैं जब सडकों पर रक्त बहता है, घरों से चीखें निकलती है लेकिन एक बड़े धड़े के हलक से इसके बावजूद  भी संवेदना के दो शब्द नहीं निकल रहे है इसका कारण कौन बतायेगा और जवाब कौन देगा?

मुंबई बम विस्फोट, ताज हमला, अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर से लेकर बाली, मैड्रिड, बेसलान लंदन ऐसी घटनायें हैं जिन्होंने समूचे विश्व को हिला दिया। लेकिन कभी भी संवेदना की वह लहर दिखाई नहीं दी जो न्यूजीलेंड हमले के बाद देखने को मिली? यही नहीं बड़ी सावधानी से हर बार घटनाओं को मरोड़ दिया जाता है जब क्राइस्टचर्च की दो मस्जिदों पर हमला होता है उसे इस्लाम पर हमले से जोड़ दिया जाता है। लेकिन जब हमला श्रीलंका के चर्च या अफगानिस्तान में बुद्ध की प्रतिमा या मुम्बई में विस्फोट होते है तब इसे आतंकवादियों से जोड़ दिया जाता है।

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने इसे इस्लाम्फोबिया बताया लेकिन जिहाद की घटनाओं के रोग को रोकने के लिये भी कोई भी विशेष बयान उनका नहीं आया। इससे क्या ये प्रकट नहीं होता है इस्लाम के नाम पर जिहाद हमले कर हत्या को मौन समर्थन प्राप्त है? यदि ऐसा है तो  पूरे विश्व में अन्य मतों लोगों का इस्लाम के प्रति विचार कठोर होता चला जायेगा और आने वाले समय में इस्लामवाद के विरुद्ध यह अधिक शत्रुवत होता जायेगा। जिस तरह पश्चिम से लेकर एशिया में चीन और बर्मा अब श्रीलंका में बुर्के पर प्रतिबंध लगने जा रहा है यानि आज इस्लामवाद के मुकाबले इस्लामावाद का विरोध कहीं अधिक दिख रहा है?

राजीव चौधरी

स्वतन्त्र लेखन के साथ उपन्यास लिखना, दैनिक जागरण, नवभारत टाइम्स के लिए ब्लॉग लिखना