कविता

सपनों का बीज

बोया था मैंने एक बीज
अपने आंगन के कोने में,
लगे कई वर्ष अंकुरित होकर
उसे बड़ा होने में।
धीरे धीरे फैले पत्ते
और फैली शाखाएं,
लिया एक बड़ा पेड़ का आकार
देने लगी शीतल हवाएं।
उसके घनी छांव तले
बैठकर सुस्ताने लगे पथिक,
मिटाकर अपने शरीर की थकान
आनंदित होते बहुत अधिक।
कहा एक दिन एक पथिक ने..
किया तुमने बड़ा नेक काम,
हम थके हारे राहगीरों को
बैठकर छांव तले
मिलती बड़ी शांति और आराम।
इसकी शीतल बयार में
सूख जाता तन का पसीना,
चल देते हम कुछ देर ठहर कर
जहां है अपना ठिकाना।
ऐसे ही सब लोग अगर
मिलकर बीज बोएंगे,
वह दिन फिर दूर नहीं
सब मिलजुलकर मीठे फल खाएंगे,
और ठंडी छांव में बैठकर
शुद्ध हवा का आनंद उठाएंगे।

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- paul.jyotsna@gmail.com

One thought on “सपनों का बीज

  • लीला तिवानी

    प्रिय सखी ज्योत्स्ना जी, हमेशा की तरह बहुत सरल व सुंदर गीत के लिए शुक्रिया.

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