कविता

परशुराम का संताप

# परशुराम का संताप

यह संताप प्रबलतम् हृदय विशद का
अमिट कलंक यह मुझ पर मातृ वध का

सत्य है पितराज्ञा पाकर
पातक व्यवहार किया था
मैंने ममतामयी मात पर
शस्त्र प्रहार किया था

किन्तु सच यह भी ; तत्क्षण
कुछ और विकल्प नहीं था
माता को दण्डित करना
ऋषि का संकल्प वही था

यदि न करता मैं प्रहार
वे उग्र रुप धर लेते
क्रोधारुढ़ श्रीपिता स्वयं
माता के प्राण हर लेते

तब उस विकट अवस्था मे
मैं कुछ भी ना कर पाता
माता के करुणा वत्सल से
मैं चिर वंचित हो जाता

यही रहा कारण मैंने तब
निर्णय लिया गरल था
अपने पिता के तपबल पर
मुझको विश्वास प्रबल था

भान यही था जब प्रभु का
आवेग उतर जावेगा
ग्रीष्म रोष के बाद स्वतः
मधु मेघ घहर आवेगा

तब भार्गव निश्चित मुझ पर
इतना उपकार करेंगे
मेरी जननी और बंधु का
पुनरूपचार करेंगे

दैव कृपा से वही हुआ
जैसा अनुमान किया था
तुष्ट हूँ मैंने कठिन समय
समुचित संज्ञान लिया था

मेरा इस वैवश्य कर्म में
कोई भी पाप नहीं है
किन्तु जग यह समझ न पाया
केवल संताप यही है

हा !! कैसा दुर्भाग्य यह मेरे तपोविरद का ।।
अमिट कलंक यह मुझ पर मातृ वध का ।।

( वैवश्य कर्म = विवशता वश किया गया कार्य )

समर नाथ मिश्र