गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

किसी की मोहब्बत में खुद को मिटाकर कभी हम भी देखेंगे
अपना आशियां अपने हाथों से जलाकर कभी हम भी देखेंगे
ना रांझा ना मजनूं ना महिवाल बनेंगे इश्क में किसी के
महबूब बिन होती है ज़िंदगी कैसी कभी हम भी देखेंगे
मधुशाला में करेंगे इबादत ज़ाम पियेंगे मस्ज़िद में
क्या सच में हो जायेगा ख़ुदा नाराज़ कभी हम भी देखेंगे
प्रेम तो पर्याय होता है अनिश्चितकालीन प्रतीक्षा का
बनकर अपनी उर्मिला का लक्ष्मण कभी हम भी देखेंगे
कहते हो ख़ुदा की कोई जाति नहीं होती अच्छा मज़ाक है
ऐसा ही एक मज़ाक तेरे साथ करके कभी हम भी देखेंगे
— आलोक कौशिक

आलोक कौशिक

नाम- आलोक कौशिक, शिक्षा- स्नातकोत्तर (अंग्रेजी साहित्य), पेशा- पत्रकारिता एवं स्वतंत्र लेखन, साहित्यिक कृतियां- प्रमुख राष्ट्रीय समाचारपत्रों एवं साहित्यिक पत्रिकाओं में सैकड़ों रचनाएं प्रकाशित, पता:- मनीषा मैन्शन, जिला- बेगूसराय, राज्य- बिहार, 851101, अणुडाक- devraajkaushik1989@gmail.com