लघुकथा

एक बिदेशी की दास्ताँ

बृद्धाश्रम में पढ़ा पड़ा देव राज अपने उन दिनों को याद कर रहा था, जब वोह गाँव से इंगलैंड के लिए रवाना हुआ था। चार एकड़ ज़मीन पर खेती करके घर चलाना कितना मुश्किल था। उस की पत्नी माया ने भी कितना पसीना वहाया था, पती के कंधे से कन्धा मिला कर खेतों में काम करते करते ! छोटे छोटे दो बच्चे और उन को खेतों में ही बिठा कर पति के साथ काम करना, कितने कठिन दिन थे वोह ! यह तो भला हो उस ट्रैवल एजेंट का जिस ने उस की मदद कर के, जाहली तरीके से उसे इंगलैंड पहुंचा दिया था। भले ही देव् राज को अपने दो खेत बेचने पढ़े थे। यह भी किस्मत की बात ही थी कि उसे कितने देशों में धक्के खाने पढ़े थे लेकिन आखर अपनी मंज़िल पर पहुँच ही गया था जबकि उस के कुछ साथी अरबों में धक्के खाते खाते फिर वापस अपने गाँव मुड़ आये थे। वोह बिदेस भी जा नहीं सके थे और ज़मीन भी विक गई थी। यह वोह समय था जब इंडियन पाकिस्तानी लोग इंगलैंड में इतने नहीं होते थे। एक ही कमरे में बहुत बहुत लोग रहते थे लेकिन मुहब्त इतनी थी कि सभी साथी मिल जुल कर इंडिया पाकिस्तान से आये नए शख्स की मदद कर देते थे। जब देव राज ने साथिओं को अपनी समस्य बताई तो सभी ने पैसे इकठे करके देव राज की आर्थिक मदद कर दी थी। देव् राज ने भी धीरे धीरे साथिओं को पैसे वापस कर दिए थे।

                         कई साल बीत गए। देव् राज ने सख्त काम करके कुछ पैसे जमा कर लिए थे। काम अच्छा था और देव् राज ने छोटा सा एक घर खरीद लिया। कुछ पैसे बैंक से उधार ले लिए जिन की किश्त इतनी थी की वोह आसानी से किश्त दे सकता था। एक कमरा अपने पास रखके दो कमरे कराये पर उठा दिए और साथ ही बीवी बच्चों के लिए स्पॉन्सरशिप भेज दी। जब उस का परिवार इंडिया से आ गया तो वोह सभी एक कमरे में ही गुज़ारा करने लगे। उन के लिए यह कोई मुश्किल नहीं था क्योंकि वोह गाँव में बहुत मुसीबतों भरे वातावरण में रहते आये थे। बच्चों को स्कूल में भर्ती करा दिया लेकिन बच्चों के लिए बहुत मुश्किल पेश आ रही थी क्योंकि उन को इंग्लिश आती नहीं थी लेकिन धीरे धीरे बच्चे सीखने लगे। जब बच्चे घर आ कर अंग्रेज़ी में बात करने लगे तो दोनों पति पत्नी बहुत खुश होते। देव् राज का काम पहले से भी अच्छा हो गया था और जब दो कमरों के किरायेदार चले गए तो उन्होंने बच्चों को अलाहिदा कमरा दे दिया। उन दिनों कहीं कहीं इंडियन लोग कपड़े का काम करने लग गए थे। देव् राज की पत्नी माया को सिलाई का काम आता था। इस लिए वोह भी किसी के लिए काम करके कुछ पैसे कमाने लगी। दोनों पति पत्नी खूब काम करते और बच्चे बड़े होते होते पता ही नहीं चला। उन दिनों यूनिवर्सटी शिक्षा हकूमत की ओर से फ्री होती थी क्योंकि इंगलैंड को पढ़े लिखे लोगों की बहुत जरूरत होती थी। बच्चों ने पढ़ लिख कर, काम पर जाते ही एक ऐसा काम कर दिया जिस के बारे में  देव राज और माया ने कभी सोचा ही नहीं था, उन्होंने अँगरेज़ लड़किओं से शादीआं रचा लीं थी। इस बात को माया सहन नहीं कर पाई थी और कुछ ही सालों बाद देव राज को अकेले छोड़ कर भगवान् के घर चले गई थी।
                     देव राज भी अब बूड़ा होने लगा था, वैसे भी वोह जिंदगी से लड़ लड़ कर बहुत थक हार चुक्का था।  बच्चे कभी कभी उस को मिलने आ जाते लेकिन धीरे धीरे वोह भी अपनी अपनी जिंदगी में मसरूफ होने लगे। देव राज बीमार रहने लगा था और अपनी ही देख भाल करना उस के लिए मुश्किल हो रहा था। एक दिन तंग आ कर उस ने हकूमत की ओर से बने ब्रिधाश्र्म में रहने का मन बना लिया। कनून के मुताबक देव राज को अपनी तमाम सेविंग और घर के बारे में बताना था। सो उस ने सभ कुछ बता दिया। “अब यह कमाया पैसा मेरे किस काम का जब बच्चे ही खो दिए ” देव् राज सोचता। ब्रिधाश्र्म में उस की बहुत अछि देख भाल होनी शुरू हो गई थी लेकिन इस के लिए उस ने अपनी सारी जमा पूँजी हकूमत के हवाले कर दी। जिस पैसे की खातर उस ने गाँव छोड़ कर इतनी मुसीबतें मोल थीं वोह आज उस के हाथ से मुठी में बंद रेत की तरह धीरे धीरे नीचे गिरता जा रहा था। आज उस के मन में बहुत विचार आ रहे थे की उस ने इंगलैंड में आ कर किया हासल किया और किया किया खोह दिया।

3 thoughts on “एक बिदेशी की दास्ताँ

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, आपने बहुत ही मार्मिक दास्तां बयां कर दी है. सच में ऐसा ही होता है. अब तो भारत में भी ऐसा होने लग गया है. अंत समय में समझ ही नहीं आता, कि क्या खोया और क्या पाया! बहुत सुंदर, सटीक व सार्थक रचना के लिए बधाई.

  • डाॅ विजय कुमार सिंघल

    यह कहानी नहीं वास्तविकता लगती है। विदेशों के मायाजाल में फँसकर लोग अपने देश और समाज से दूर हो जाते हैं और फिर अन्त समय में पछताते हैं।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      विजय भाई , ऐसी बहुत कहानीआँ हैं . पंजाबी में एक कहावत है ” रिन्नी थी खीर, हो गिया दलिया, वाह मेरे वलीया ” जाने सोचा कुछ था और हो गिया कुछ और . आर्थिक तौर पर लाख सुखी हो गए हों लेकिन अपने समाज से बहुत इल्ग्ग हो गए . बच्चे हमारी सुनते नहीं और हम भी अब वोह ही करने लग्ग गए हैं जो यहाँ के गोरे करते थे जानी बुढापे में ब्रिधाश्रम में रहना . कई तो ऐसे भी हैं जो ब्रिधाश्र्म में रह रहे माँ बाप से भी मिलने नहीं आते .

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