गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

बादल का अंदाज जुदा सा लगता है ।
सावन सारा सूखा सूखा लगता है ।।

जाने क्यूँ मरते हैं उस पर दीवाने ।
इश्क़ उसे जब खेल तमाशा लगता है ।।

काहकशाँ से टूटा जो इक तारा तो ।
चाँद का चेहरा उतरा उतरा लगता है ।।

तेरी अना से टूट रहा है वह रिश्ता ।
जिसकी ख़ातिर एक ज़माना लगता है ।।

आग से मत खेला करिए चुपके चुपके ।
घर जलने में एक शरारा लगता है ।।

दर्द विसाले यार ने ख़त में है लिक्खा ।
उस पर सुबहो शाम का पहरा लगता है ।।

छुप छुप कर सबने देखा रोते जिसको ।।
उसके दिल का ज़ख़्म पुराना लगता है ।

शम्अ जलेगा परवाना इक दिन तुुुझ से ।
हुस्न का तेरे ये दीवाना लगता है ।।

मांग रहा है वफ़ा के बदले जान कोई ।
कैसे कह दूं नेक इरादा लगता है।।

तुझको सारी रात निहारा करते हम ।
चाँद बता तू कौन हमारा लगता है ।।

लिख डाला है तुमने जो कुछ पन्नों में ।
यह तो मेरा एक फ़साना लगता है ।।

 — डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
शब्दार्थ – काहकशाँ शुद्ध फ़ारसी शब्द उर्दू में कहकशाँ हिंदी में तारामंडल, शरारा -चिंगारी

*नवीन मणि त्रिपाठी

नवीन मणि त्रिपाठी जी वन / 28 अर्मापुर इस्टेट कानपुर पिन 208009 दूरभाष 9839626686 8858111788 फेस बुक naveentripathi35@gmail.com