लघुकथा

शांति

शांति के अस्तित्व को सभी महसूस करते हैं, उसे पाना भी चाहते हैं, लेकिन शांति को आज तक शायद ही कोई खोज पाया है. मैंने भी ध्यान में शांति के बारे में मंथन किया और उससे उसके निवास के बारे में पूछा-
”मैं तो तुम्हारी नाक के नीचे रहती हूं.” शांति ने कहा.
”मेरी नाक के नीचे! पर मुझे तो कभी दिखाई नहीं दीं!” मैंने विस्मित होकर कहा.
”भला अपनी नाक के नीचे मुझे कैसे देख सकते हो? सबको उजाला देने वाले दीपक तले भी तो अंधेरा ही होता है न!” शांति ने शांति से कहा.
”कभी ब्रह्मांड को देखा है? मैं तो तुम्हारी नाक के नीचे नहीं हूं और तुम मेरा अभिन्न हिस्सा हो. एक समय ईथर में वेदों की ऋचाओं, पुराणों के प्रसंगों, रामायण के दोहे-चौपाइयों और गीता के श्लोकों की मधुर-मनभावन गूंज से मेरा ईथर महकता-चहकता रहता था, उसे तुम्हारे राम-रावण युद्ध, महाभारत, प्रथम विश्वयुद्ध, द्वितीय विश्वयुद्ध और अभी-अभी लोकसभा चुनाव के चुभते तीरों जैसे विवादास्पद बोलों ने मेरी शांति भी भंग कर दी है.” ध्यान में ध्वनि-प्रदूषण से अशांत ब्रह्मांड भी आ गया था.
”और मुझे? मेरा अस्तित्व तो तुम मानवों और प्राणियों के कारण ही है.” सृष्टि भला ध्यान भंग करने में पीछे क्यों रहती?
”चलो ब्रह्मांड और सृष्टि को नहीं, मुझे तो तुमने अवश्य ही देखा होगा.” ध्यान भंग करने को सभी आतुर रहते हैं, धरा क्यों मौन रहती, ”मैं धरा हूं, मुझ पर थूकते, कूड़ा-कचरा फैलाते, पॉलीथिन फेंकते तो आप लोग कभी हिचकते भी नहीं हैं. जानते भी सब कुछ हैं, ”पर उपदेश कुशल बहुतेरे, खुद जो करें ते नर न घनेरे.” धरा मौन थी पर उसकी व्यथा मुखर थी.
”धरा जी, जरा आप मेरी व्यथा भी सुनिए. ये सब मानव इस तपती लू में मेरे और मेरे साथियों की छांव तले चलते-चलते लू से से भी निजात पाते हैं और ई.रिक्शा के 30 रुपये भी बचाते हैं, फिर भी हमारे ढेरों उपकारों को भुलाकर अपने उपयोग के लिए बेदर्दी से मुझे काट देते हैं.” वृक्ष ने कहा.
तभी दरवाजे की कॉल बेल बजी, अब तो ध्यान को छोड़ना ही था. दरवाजे तक जाते-जाते मेरे मन ने सोचा-
”उफ़्फ़, ये कैसा ध्यान है भला! मैं तो शांति की खोज में थी और शांति का अस्तित्व तो कहीं दिखाई ही नहीं देता.”

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “शांति

  • लीला तिवानी

    हम सब शांति को पाना चाहते हैं, लेकिन स्वयं ही अशांत हैं, तो शांति को महसूस कैसे कर सकते हैं. शांति को पाने के लिए सबसे पहले हमें अपने पर्यावरण को हर प्रकार के प्रदूषण से मुक्त करना होगा. यों भी आजकल ध्वनि प्रदूषण अपनी उच्चतम सीमा हो पार कर चुका है, ऊपर से विवादित बोलों ने माहौल को और अधिक प्रदूषित और संतप्त कर दिया है. इसका हल हमें ही ढूंढना होगा, तभी हम शांति को प्राप्त कर सकते हैं.

Comments are closed.