ब्लॉग/परिचर्चा

तनेजा साहब का संकल्प

‘मि. तनेजा, आप जानते हैं कि स्कूल का नया सैशन शुरू होने जा रहा है, विद्यार्थी अगली क्लासेज़ में जायेंगे। हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी आप विद्यार्थियों के लिए समय पर पुस्तकों और स्टेशनरी की व्यवस्था करेंगे। पिछले लगभग 45 वर्षों से आप यह ज़िम्मेदारी बखूबी संभाल रहे हैं। विद्यालय की प्रबन्ध समिति आपके द्वारा की जाने वाली व्यवस्था से संतुष्ट रहती है। तो वर्ष 2019-20 के सत्र के लिए आप समय से सभी व्यवस्था कर लीजिए। यूं तो आप स्वयं ही सब व्यवस्था समय से कर लेते हैं। आज की मीटिंग तो मात्र औपचारिकता भर है’ प्रिंसिपल महोदय ने प्रबन्ध समिति के सदस्यों की मीटिंग में मि. तनेजा को सम्बोधित करते हुए कहा था।

समिति के चेयरमैन महोदय ने कहा, ‘मि. तनेजा, आपको 45 वर्ष हो गये इस स्कूल में और आपने यह अभूतपूर्व रिकार्ड बनाया है कि इन 45 वर्षों में आपने कभी भी किसी विद्यार्थी के प्रवेश के लिए किसी भी प्रकार की अनुशंसा नहीं की। मैं आज यह रहस्योद्घाटन करने के साथ क्षमा भी चाहता हूं कि हमने समय-समय पर परीक्षा के तौर पर आपको अप्रत्यक्ष रूप से किसी मां-बाप के जरिए यह प्रलोभन दिलवाने का प्रयास भी किया कि यदि आप इस स्कूल में किसी का एडमिशन करा दें तो आपको अमुक राशि भेंट में दे दी जायेगी। पर अनगिनत प्रलोभनों के बाद भी आप टस से मस न हुए और आपने बहुत विनम्रता से मना किया। मैं आज सभी सदस्यों के सामने आपके सिद्धान्तों की प्रशंसा करता हूं। आपने एक उदाहरण स्थापित किया है। हालांकि आप स्कूल के प्रांगण में बुक-स्टाल चलाते हैं पर आपने जिस विश्वसनीयता का परिचय दिया है वह बहुत ही सम्मान देने योग्य है और इसलिए हमारी समिति ने निश्चय किया है कि आपको इस मीटिंग में एक ट्राफी भेंट की जाये। मि. तनेजा, यह ट्राफी देने में आपसे ज्यादा हमें गौरव का अनुभव हो रहा है। आइए और यह ट्राफी ग्रहण कीजिए’ कहते हुए चेयरमैन साहब ने तनेजा साहब को ससम्मान वह ट्राफी भेंट की।

‘मि. तनेजा, आप कुछ कहना चाहेंगे!’ प्रिंसिपल साहब ने पूछा। ‘आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद’ कह कर मि. तनेजा वापिस अपनी सीट पर बैठ गए। ‘मि. तनेजा, मैं आपकी भावनाओं की कद्र करता हूं और मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि आपको कभी भी स्कूल से कोई सहयोग चाहिए तो निःसंकोच कहिएगा। आप हमारे आधिकारिक सदस्य तो नहीं पर भावनात्मक सदस्य अवश्य ही हैं’ चेयरमैन महोदय ने कहा।

तनेजा साहब हाथ जोड़े बैठे रहे और फिर पिछली स्मृतियों में खो गए। ‘सुनिए जी, अब हमारे बेटा समीर स्कूल जाने योग्य हो गया है, आपका तो स्कूल में ही बुक-स्टाल है और हर कक्षा के विद्यार्थी, स्कूल के प्रिंसिपल, सभी आपको जानते हैं, आप क्यों नहीं प्रिंसिपल महोदय से कह कर समीर का एडमिशन करा लेते, ऐसे ही दूसरे स्कूलों में भटक रहे हैं’ मिसेज तनेजा ने सुझाव दिया।

‘हम समीर का इस स्कूल में भी प्रवेश-पत्र भरेंगे साथ ही साथ अन्य स्कूलों में भी भरेंगे। समीर के लिए मैं किसी से अनुनय-विनय नहीं करूंगा। चाहे उसका एडमिशन इसी स्कूल में हो या न हो। उसकी तरह सैंकड़ों दूसरे विद्यार्थी हैं जिनके माता-पिता उनके प्रवेश के लिए चिंतित होंगे। हम भी उन्हीं में से एक है’ तनेजा साहब ने जवाब दिया।

‘मैंने कौन सी बड़ी बात कह दी, छोटी-सी बात ही तो है, आपको तो सिर्फ इतना कहना है कि समीर मेरा बेटा है और इस स्कूल में पढ़ना चाहता है, फिर देखिए समीर को प्रवेश देने से कौन मना करेगा? अगर आप अपने बच्चे के लिए इतना भी नहीं करेंगे तो फिर क्या करेंगे? आपको तो मालूम ही है कि कितनी सिफारिशें लेकर लोग स्कूल में अपने बच्चों के एडमिशन के लिए आते हैं या फिर अपने धनवान होने का लाभ उठाते हैं। सभी करते हैं, आप कोई नई बात तो नहीं करोगे। आप कोई गलत काम तो नहीं करेंगे। किसी को रिश्वत देने के लिए मैं नहीं कह रही। आप क्यों नहीं समझ रहे?’ मिसेज तनेजा ने फिर कहा।

‘यह मुझसे न होगा, मेरे सिद्धान्तों के खिलाफ़ है। मैं यह न कर सकूंगा। हां, समीर का प्रवेश पत्र भर देने के बाद हम उस पर मेहनत करेंगे ताकि वह इन्टरव्यू में पास हो जाये। इसमें तुम्हें मेरी पूरी मदद करनी होगी। समीर एक बच्चा है उसे मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार करना होगा। बच्चे के कोमल मस्तिष्क पर कोई भी बात जल्दी से असर कर जाती है। हमें उसकी स्थिति को देखते हुए तैयार करना होगा ताकि इन्टरव्यू में वह बिल्कुल न घबराए और पास हो जाए। फिर इसी योग्यता के आधार पर उसे इसी स्कूल में एडमिशन मिल जाये तो सबसे अधिक खुशी मुझे होगी।’ तनेजा साहब ने स्पष्ट किया।

‘आपसे कोई बात करना तो ऐसे है जैसे भैंस के आगे बीन बजाना’ मिसेज तनेजा बौखला गई थीं। ‘तुम जो मर्जी समझो’ तनेजा साहब अपने फैसले पर अडिग थे। ‘मैं भी देखती हूं आप अपने सिद्धान्तों का कब तक पालन करते हो, जीवन में कोई न कोई ऐसा अवसर अवश्य आयेगा जब आपको अपने सिद्धान्तों को त्यागना पड़ेगा’ लगभग चुनौती सी देती हुई मिसेज तनेजा पैर पटक कर चली गईं।

‘मैं क्या करूं, तेरे जीजा जी तो टस से मस नहीं होते, सब कुछ कह लिया, पर कोई असर नहीं हो रहा, यदि समीर को इस स्कूल में एडमिशन न मिला तो समझेंगे कि छोटी-सी बात मना करने का कितना बड़ा परिणाम भुगतना पड़ सकता है’ मिसेज तनेजा ने अपनी बहन से फोन पर कहा जो संभवतः समीर के एडमिशन के लिए जीजा जी से स्कूल में सिफारिश करवाने के लिए सुझाव दे रही थीं। प्रवेश-पत्र भरने के बाद तनेजा साहब समीर के साथ साये की भांति लग गये थे। इन्टरव्यू में बचे समय का वह पूर्ण उपयोग करना चाहते थे। उन्होंने अपने अनुभव से समीर को तैयार करना शुरू किया और उनकी मेहनत रंग लाने लगी। मिसेज तनेजा भी समीर में यह परिवर्तन देखकर अवाक रह जाती थीं और एक दिन समीर इसी स्कूल में पढ़ने लगा था। ‘नाहक मैंने इन पर गुस्सा जताया’ मिसेज तनेजा खुद से कह बैठी थीं।

‘तनेजा साहब, मीटिंग समाप्त हो गयी है, आपका ध्यान किधर है?‘ एक सदस्य ने तनेजा साहब की तंद्रा भंग करते हुए कहा। ‘ओह’ कहते हुए मि. तनेजा अपने स्थान से उठ गए। ‘नमस्कार चन्दू, याद है न आज तुमने अपने बेटे कौशल को मेरे बुक-स्टाल पर मदद के लिए भेजना है’ तनेजा साहब ने चन्दू से कहा जो स्कूल के बाहर खोमचा लगाता था और अपनी क्वालिटी के कारण पूरे स्कूल में प्रसिद्ध था और कौशल उसका 6 वर्षीय पुत्र। ‘जी, तनेजा साहब, मुझे याद है। हर बार की तरह मैं नाश्ता भी भेज दूंगा। हिसाब बाद में हो जायेगा’ चन्दू ने जवाब दिया। ‘बहुत बढ़िया’ कहते हुए मि. तनेजा अपने दोपहिए पर सामान लादे हुए स्कूल के प्रांगण में स्थित अपने बुक-स्टाल पर जा पहुंचे।

तनेजा साहब की व्यवस्था इतनी जबर्दस्त थी कि सभी दंग रह जाते। इतनी कुशलता से अपने कार्य को अंजाम देते कि किसी को शिकायत करने का मौका ही नहीं मिलता। वाणी मधुर और व्यवहार विनम्र। ‘अंकल, नमस्ते’ कौशल ने तनेजा साहब के स्टाल पर पहुंच कर मुस्कुराते हुए कहा। ‘आओ, आओ, कौशल, आओ’ तनेजा साहब ने उसे स्नेह से अपने पास बुलाया। कौशल अभी स्कूल नहीं जाता था पर उसकी कुशलता देखकर यह कोई भी नहीं कह सकता था। तनेजा साहब के स्टाल पर जब किताबों और स्टेशनरी बिकने का सिलसिला शुरू होता तो वह इतनी फुर्ती से मदद करता कि सब हैरान हो जाते। जिस किताब या स्टेशनरी पर तनेजा साहब इशारा करते वह आनन फानन में ले आता। तनेजा साहब भी हैरान होते थे।

लगभग सभी पेरेन्ट्स नये सत्र की किताबें खरीद चुके थे। एक पेरेन्ट आया ‘तनेजा साहब, देखिए यह किताब, इसमें 30 पृष्ठ कम हैं, कृपया बदल दीजिए।’ तनेजा साहब ने देखा तो सत्य पाया। उन्होंने उसके बदले में दूसरी किताब दे दी। ‘अंकल, यह किताब खराब है क्या?’ कौशल ने पूछा। ‘हां बेटे, इसमें काफी सारे पेज कम हैं, अब यह किसी काम की नहीं’ तनेजा साहब स्टाल संभालते संभालते बोले। ‘अंकल यह किताब मुझे दे दो, मैं पढ़ूंगा’ कौशल ने कहा। स्थिति की गंभीरता को समझे बिना उन्होंने कह दिया ‘हां, तुम रख लो।’ कौशल यह सुनकर बहुत खुश हो गया और भागा-भागा अपने पिता के पास गया और सारी बात कह सुनाई।

‘अरे, यह तो तूने बहुत अच्छा किया, किताब अधूरी है, ला मुझे दे, इसकी जिल्द खोलकर इसके पन्नों में खाने पीने की चीजें रख कर देंगे। सारे पन्ने इसी काम आ जायेंगे’ कहते हुए चन्दू ने किताब लेने की कोशिश की। ‘नहीं, मैं इस काम के लिए यह नहीं दूंगा, मैं पढ़ूंगा, मुझे भी स्कूल जाना है, तुम मुझे स्कूल नहीं भेजते, कितना बड़ा हो गया हूं मैं, पर अब मैं इसे पढ़ कर बड़ा आदमी बनूंगा’ कौशल एक सांस में कह गया। ‘अबे तू पागल हो गया है, तनेजा साहब के बुकस्टाल में क्या गया, तुझ पर पढ़ाई का नशा चढ़ गया, बेवकूफी वाली बातें मत कर। ला, किताब इधर दे, कबाड़ी वाले से लेने जाऊंगा तो तीस रुपये ले लेगा। इतने सारे पैसे बच जायेंगे’ कहता हुआ चन्दू कौशल के पीछे दौड़ा और अचानक तनेजा साहब से टकरा गया।

‘अरे चन्दू भई, जरा देख कर चलो, क्या बात है, ऐसे क्यों भाग रहे हो?’ तनेजा साहब ने पूछा। इससे पहले चन्दू कुछ बोलता, कौशल बोल पड़ा ‘अंकल आपने मुझे यह किताब पढ़ने के लिए दी है और पिता जी कहते हैं कि इसके पन्ने अलग-अलग करके इसमें खाने पीने का सामान देंगे। मैं इसे पढ़ना चाहता हूं और पढ़कर बड़ा होना चाहता हूं। मैं भी स्कूल जाना चाहता हूं। इस स्कूल में पढ़ना चाहता हूं। अंकल आपको पता है पिताजी कभी कभी जिन कागजों पर खाने-पीने का सामान देते हैं उनमें से कुछ तो किताबों के और कुछ अखबारों के पन्ने होते हैं। मैं उनमें से कुछ पन्ने लेकर रात को अपने पास रहने वाले एक अंकल के पास जाता हूं और वह मुझे पढ़ना सिखाते हैं। आज आपसे यह किताब मिली है तो यह भी उनके पास लेकर जाऊँगा और पढ़ना सीखूंगा और आपको भी पढ़कर सुनाऊंगा। आप तो इतनी सारी किताबें बेचते हैं आप तो बता ही देंगे न कि मैं ठीक पढ़ रहा हूं या गलत।’

तनेजा साहब को बहुत बड़ा झटका लगा था ‘आज इस लड़के ने मेरी आंखें खोल दी हैं, मैं तो सिर्फ किताबें बेचता आया, अपने सिद्धान्तों पर अडिग रहने का दम्भ भरता रहा, पर मैंने यह कभी न सोचा कि मेरी समाज के लिए भी कुछ जिम्मेदारी है। देर से ही सही, पर कौशल ने मेरी आंखें खोल दी हैं। कौशल के लिए मैं अपना सिद्धान्त तोड़ दूंगा और इसे इसी स्कूल में प्रिंसिपल साहब से कहकर एडमिशन दिलाऊँगा और जरूरत पड़ी तो इसकी फीस भी मैं ही भर दिया करूंगा।’

‘अंकल, बोलो न कुछ’ कौशल खड़ा था। ‘कौशल बेटे, तुम इस स्कूल में पढ़ोगे, कल मैं तुम्हारे लिए प्रिंसिपल साहब से बात करूंगा। चन्दू, तुम्हारा बेटा बहुत आगे जायेगा। तुम भाग्यशाली हो। अब तुम्हारा बेटा तुम्हारी तरह खोमचा नहीं लगायेगा, बड़ा आदमी बनेगा’ कहते हुए मि. तनेजा अपने दोपहिए पर निकल गए। अगले दिन प्रिंसिपल साहब के कमरे में मि. तनेजा बैठे थे।

‘मि. तनेजा, आप तो सिद्धान्त के पक्के हैं पर आज यह सिद्धान्त क्यों तोड़ रहे हैं, आपके जीवन भर की तपस्या एक ही पल में समाप्त हो जायेगी’ प्रिंसिपल साहब ने कहा। ‘पिं्रसिपल साहब, अगर किसी को पढ़ाने में मेरा सिद्धान्त टूटता है और तपस्या समाप्त हो जाती है तो मैं इसके लिए तैयार हूं। ऐसे सिद्धान्त और तपस्या किस काम के यदि वह किसी को विद्या का प्रकाश न दे सकें। जीवन में मैंने आपसे कोई सिफारिश नहीं की है, पर कौशल के लिए मैं मजबूत स्वर में सिफारिश करता हूं। यह आपके स्कूल का नाम भी रोशन करेगा, ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है’ तनेजा साहब दृढ़ता से बोले।

‘वाह, मि. तनेजा, वाह, आज आपने इस बालक को ज्ञान का प्रकाश देने का संकल्प करके वह कार्य किया है जिसकी जितनी प्रशंसा की जाए कम है, आज मेरे हृदय में आपके प्रति सम्मान और बढ़ गया है। आपके सिद्धान्त आज हारे नहीं जीते हैं और आपकी तपस्या और भी सुदृढ़ हुई है। मैं समिति से अनुशंसा करके कौशल की फीस माफ करवा दूंगा और इसे विद्यालय से यूनीफार्म भी दे दी जायेगी’ प्रिंसिपल साहब मुस्कुरा रहे थे और तनेजा साहब कौशल की आंखों में एक अद्भुत चमक देख रहे थे। सारी बात पता लगने पर मिसेज तनेजा क्या कहेंगी इसकी उन्हें लेशमात्र भी चिंता नहीं थी। वह अपने सिद्धान्तों से और ऊपर उठ गये थे।

सुदर्शन खन्ना

वर्ष 1956 के जून माह में इन्दौर; मध्य प्रदेश में मेरा जन्म हुआ । पाकिस्तान से विस्थापित मेरे स्वर्गवासी पिता श्री कृष्ण कुमार जी खन्ना सरकारी सेवा में कार्यरत थे । मेरी माँ श्रीमती राज रानी खन्ना आज लगभग 82 वर्ष की हैं । मेरे जन्म के बाद पिताजी ने सेवा निवृत्ति लेकर अपने अनुभव पर आधरित निर्णय लेकर ‘मुद्र कला मन्दिर’ संस्थान की स्थापना की जहाँ विद्यार्थियों को हिन्दी-अंग्रेज़ी में टंकण व शाॅर्टहॅण्ड की कला सिखाई जाने लगी । 1962 में दिल्ली स्थानांतरित होने पर मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से वाणिज्य स्नातक की उपाधि प्राप्त की तथा पिताजी के साथ कार्य में जुड़ गया । कार्य की प्रकृति के कारण अनगिनत विद्वतजनों के सान्निध्य में बहुत कुछ सीखने को मिला । पिताजी ने कार्य में पारंगत होने के लिए कड़ाई से सिखाया जिसके लिए मैं आज भी नत-मस्तक हूँ । विद्वानों की पिताजी के साथ चर्चा होने से वैसी ही विचारधारा बनी । नवभारत टाइम्स में अनेक प्रबुद्धजनों के ब्लाॅग्स पढ़ता हूँ जिनसे प्रेरित होकर मैंने भी ‘सुदर्शन नवयुग’ नामक ब्लाॅग आरंभ कर कुछ लिखने का विचार बनाया है । आशा करता हूँ मेरे सीमित शैक्षिक ज्ञान से अभिप्रेरित रचनाएँ 'जय विजय 'के सम्माननीय लेखकों व पाठकों को पसन्द आयेंगी । Mobile No.9811332632 (Delhi) Email: mudrakala@gmail.com

2 thoughts on “तनेजा साहब का संकल्प

  • सुदर्शन खन्ना

    आदरणीय दीदी, सादर प्रणाम. सादगी से पूर्ण एक शिक्षिका होने के नाते आपका आकलन करने का अंदाज़ भी निराला है. सादगी से रहना भी एक सिद्धांत है और इसे तोड़ने की संभवतः कभी ज़रुरत न पड़े. आपकी विद्वता सभी को प्रभावित करने की अपूर्व क्षमता रखती है. ‘ सिद्धांतों पर अडिग रहना, सिद्धांतों पर अडिग रहने वाले का यथोचित सम्मान करना, किसी के उपकार के लिए अपना सिद्धांत तोड़ना, समाज के लिए जिम्मेदारी समझना और शिक्षा का महत्त्व’ ये उदगार अत्यंत महत्वपूर्ण हैं. ऐसे व्यक्तियों को टेढ़े व्यक्तियों की संज्ञा दे दी जाती है. पर अंत में ये ही सम्मान पाते हैं. उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए सादर नमन.

  • लीला तिवानी

    प्रिय ब्लॉगर सुदर्शन भाई जी, आपके लेखन-जगत में एक और मील का पत्थर जुड़ गया. एक कथा जो बहुत कुछ सिखा गई, सिद्धांतों पर अडिग रहना, सिद्धांतों पर अडिग रहने वाले का यथोचित सम्मान करना, किसी के उपकार के लिए अपना सिद्धांत तोड़ना, समाज के लिए जिम्मेदारी समझना और सिक्षा का महत्त्व. प्रिंसिपल साहब ने भी तनेजा साहब के सिद्धांत तोड़ने की खूब परीक्षा ली और पारितोषिक के रूप में कौश को एडमीशन देने, उसकी फीस माफ करवाने तथा विद्यालय से यूनीफार्म दिलवाने का वादा किया. वास्तव में संकल्प के और मजबूत हो जाने का संकेत था. बहुत सुंदर व संदेशप्रद रचना के लिए आभार व बधाई.

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