कहानी

कहानी – बोलो न केशव

दस दिन हो गए थे केशव को घर आए। आया तो वो पिता की मृत्यु पर था, पर वापिस जाने से पहले वेरोनिका द्वारा दिए गए विवाह प्रस्ताव पर माँ से विचार विमर्श करना भी आवश्यक था।

“जो जी में आए करो केशव… मुझे कोई आपत्ति नहीं। पर वापिस जाने से पहले कलकत्ता जा कर, उत्तराधिकार सम्बन्धी कुछ ज़रूरी काम निबटा आओ बेटा। अब वहां की हवेली और ज़मीन की कोई ख़ास ज़रूरत नहीं हमें। और हाँ … जब जा ही रहे हो तो अपनी बुआ माँ और वृंदा का हाल चाल भी ज़रूर लेते आना… ” मंजरी ने हमेशा की तरह स्पष्ट शब्दों में दो टूक बात की थी बेटे से।

केशव के लिए, ये आदेश एक सुखद अनुभूति लिए था… न जाने क्यों ‘ज़रूर’ शब्द पर ज़ोर कुछ ज्यादा ही दिया था माँ ने । पिछले आठ बरसों में विदेश से फोन करते हुए भी उसने कई दफा प्रयास किया था, वृंदा का हाल चाल जानने का… परन्तु माँ हर बार टाल जाती थी। केशव के पास न इतना समय था और न ही हिम्मत कि एक ही प्रश्न,माँ से बार बार करे। पर आज …? खैर… विदेश वापिसी से पहले केशव की भी … कलकत्ता और वृंदा दोनों को ही एक बार देखने की तीव्र इच्छा थी।

कलकत्ता का सफर खासा लम्बा था, पर केशव को समय काटने की कोई समस्या न थी। उसके पास बचपन की यादों का जो पिटारा था वो किसी मधुमक्खी के छत्ते से कम न था … सिर्फ एक को छेड़ने की देर थी कि बाकी यादें खुदबखुद टूट पड़ने को तैयार ही थीं।

“केशव, मेहमानों को ज्यादा तंग न करना… ” बारह वर्षीय केशव के लिए पिता रायचन्द के सामान्य कथन भी तुगलकी फरमान हुआ करते थे। कलकत्ता के गिने चुने प्रतिष्ठित व्यवसायियों और समाजसेवकों में सेठ रायचन्द का नाम ससम्मान लिया जाता था।

केशव को वो दिन याद हो आया जब माँ ने ऊपर वाले कमरे की साफ सफाई का हुक्म नौकरों को दिया था। पिताजी की कोई मुंहबोली बहन गांव से आने वाली थीं। माँ की अपनी दोनों बड़ी बहनें, शादी के कुछ समय बाद ही विधवा हो गईं थी। इसी पीड़ा को मन मे लिए माँ वर्ष में कई बार पिताजी के साथ विधवा आश्रम जा कर यथासम्भव दान पुण्य किया करती थी। माँ का वश चलता तो वो विधवाओं के कल्याण और पुनर्स्थापन के लिए सभी हदें पार कर जाती। उनका दुःख, बड़ी करीब से महसूस किया था माँ ने, शायद इसीलिए पिताजी की मुँहबोली बहन को भी बड़ी सहजता से घर में और उनके जीवन में जगह मिलने जा रही थी।

“माँ, तुम तो कहती थी कि पिताजी की बहन आएंगी, पर उनके साथ तो एक नकचढ़ी सी लड़की भी आई है…”

“तुम्हे कैसे पता वो नकचढ़ी है?” मंजरी ने हँस कर प्रश्न किया

“उस बित्ते भर की छोकरी ने पहले मुझे देखते ही मुंह बिचकाया और फिर अपनी आगे पड़ी हुई चोटी को, इतने झटके से पीछे फेंका कि चोटी मेरे मुँह पे आ कर लगी … फिर उसने मुझे घूरा भी” केशव ने दोनों हाथ अपनी कमर पर रख कर घूरने का अभिनय करते हुए कहा

दिन में कितनी दफा केशव और वृंदा का झगड़ा होगा, झगड़े की पहल किसने की होगी और गलती किसकी रही होगी … ये हिसाब किताब रखना घर मे किसी के भी वश में नहीं था। चार बरस छोटे बड़े होने का अंतर दोनों में से किसी को कभी समझ न आया।

“केशव पढ़ाई में ध्यान दो… कुछ बरस बाद तुम्हे विदेश जाना है आगे की पढ़ाई के लिए।”माँ ने एक दिन पढ़ाते हुए कहा था

“माँ वृंदा क्यों नहीं पढ़ती? बस सारा दिन साज सिंगार करे यहाँ वहाँ डोलती रहती है…”

“बेटा, ब्याहता है वो किसी की… उसके पिता ने पिछले बरस ही उसका ब्याह कर दिया था।”

” ब्याह हो गया तो फिर वो ससुराल क्यों नही जाती?”

“ओह हो केशव … चली जाएगी ससुराल भी… छोटी है अभी… चौदह की होगी तो गौना हो जाएगा उसका”

“अरे बाबा रे, अभी उस लड़ाकी लड़की को छः बरस और झेलना होगा हमें ” केशव ने तुरन्त उंगलियों पर हिसाब लगाकर इस भोलेपन से कहा कि मंजरी भी अपनी हँसी नही रोक पाई।

समय के साथ न जाने कितने समीकरण बने और बिगड़े गए केशव और वृंदा के बीच… पर पहले सा झगड़ा अब न होता था।

“जब महाराज जी हैं तो तुम सारे दिन चौके में क्या करती हो वृंदा… देखो मैं दसवीं की परीक्षा के लिए कितनी मेहनत करता हूँ… तुम भी पिताजी से कह कर विद्यालय में नाम लिखवा लो और पांचवीं की परीक्षा दे डालो… तैयारी मैं करवा दूंगा।”

“नहीं रे केशव, माँ कहती है घर और चौके का कामकाज सीखना ही आगे काम आएगा। अगले बरस ससुराल जो जाना है मुझे” गौरवर्णी वृंदा का मुख जब तब ससुराल के नाम से लाल हो जाया करता था अब, जिस पर केशव को और ज्यादा कुढ़न हो जाया करती थी।

वृंदा घर के कामकाज सीखने की कोशिश करती थी। कभी कभी मंजरी उसे पारम्परिक तरीके से साड़ी भी पहना देती थी… उसके गोरे रंग पर तांत की हर साड़ी फबती थी। लम्बे बालों की मोटी सी चोटी अब भी बाएं कंधे से होती हुई, आगे की तरफ झूलती रहती थी। किसी पूजा या व्रत के अवसर पर गहरे लाल रंग के सिंदूर से भरी माँग और माथे पर लाल बिंदी ही पर्याप्त थी उसके रूप में चार चाँद लगाने को। तेरह बरस की उम्र में वो अबोध बालिका, गुड़ियाँ छोड़ कर ससुराल जाने को तैयार कर दी गयी थी। परन्तु अब भी जब बात करने को या झगड़ने को मुँह खोलती तो सारा बचपना सूर्य की धूप सा निर्विकार भाव से चेहरे पर बिखर जाया करता था।

“ये क्या कर रहे हो केशव…”

“चाँद पर जाने की तैयारी… पहले राकेट का चित्र बनाऊंगा… और फिर राकेट बनाऊंगा… वैज्ञानिक जो बनना है मुझे। और फिर राकेट में बैठ कर … ज़ूऊऊऊऊ चाँद पर कदम रखूँगा।” भोली भाली वृंदा को आसानी से कभी भी बहका देता था केशव

“चाँद ? वो तो बड़ी दूर है तुम कैसे जाओगे वहां… बोलो न केशव? अकेले डर न लगेगा तुम्हे? मुझे भी लिए चलना … तुम्हारा सारा काम कर दिया करूँगी। चुप क्यों हो … बोलो न केशव, बोलो न ? वृंदा एक बार शुरू होती तो जवाब मिलने का इंतज़ार किये बगैर प्रश्न पर प्रश्न करती चली जाती थी।

“ठीक है, ले चलूंगा चाँद पर… लेकिन उस से पहले तुम्हे वादा करना होगा कि अब कभी न लड़ोगी मुझसे…”

“वादा… वादा… पक्का वादा, अब कभी न लड़ूंगी… पर देखो चाँद पर ज़रूर ले चलना मुझे… मैं इंतज़ार करूँगी…”

और सच में वृंदा फिर कभी न लड़ पायी क्योंकि रायचन्द परिवार सहित पहले कलकत्ता छोड़ दिल्ली बस गए और फिर उन्होंने केशव को आगे की पढ़ाई के लिए अपने भाई के पास विदेश भेज दिया। और तबसे केशव गिनीचुनी बार ही दिल्ली आ पाया।

“बाबू हवेली आ गई…” ड्राइवर ने गाड़ी के साथ साथ केशव के दिमाग मे टहल रही पुरानी यादों को भी ब्रेक लगाते हुए कहा

एक बरस दिल्ली और आठ बरस विदेश … लगभग नौ बरस बाद केशव ने हवेली में कदम रखा था। एक लंबी सांस लेते हुए चारों ओर नज़र घुमाई, बैठक, आंगन, दुबारी, कोठा, दल्लान, बारजा, चौका, मन्दिर… उफ्फ सब का सब वैसा ही है… केशव अजीब सी खुशी महसूस कर रहा था यहाँ…. अचानक किसी की आहट से ठिठक कर पलटा

“बुआ माँ …? ”

“मन्दिर… ” चाय लाने वाली संक्षिप्त सा उत्तर दे कर जा चुकी थी

“भोजन कितनी देर में लगा दें बाबू … आज सब कुछ तुम्हारी ही पसन्द का बना है ” केशव के सामने चेहरे पर खुशी के भाव और भीगी आंखें लिए महाराज जी खड़े थे।

“उमा बुआ तो मन्दिर गयीं हैं न महाराज और वृंदा… वो तो अपने ससुराल में ही होगी … अभी भी वैसी ही लड़ाकी है या कुछ सुधार आया उसमे…. ? केशव ने खुशी से महाराज के जुड़े हुए हाथों को थामते हुए पूछा

“तुम अभी तक उस से मिले नहीं बाबू… पहचाना न होगा तुमने … अभी चाय देने वो ही तो आयी थी … ” महाराज जी कुछ आश्चर्य में थे

” वृंदा के हाथों एक चाय और भेजिए महाराज जी, भोजन बाद में… ” केशव ने चिढ़ कर कहा

“बेकार ही इतनी दूर आया… वृंदा को तो मैं याद तक नहीं… वरना दस न सही, दो-एक सवाल तो किये होते मुझसे, वो भी अपनी लम्बी चोटी मेरे मुँह पर मार कर पीछे फेंकते हुए। अब कि आए चाय देने, तो मैं खुद ही चोटी खींचते हुए पूछुंगा उससे कि…”

“आप चाय के साथ कुछ लेंगे क्या?” एक पतली दुबली काया की परछाईं देख कर केशव खुशी से उचक कर खड़ा हुआ पर…. ये क्या…

केशव स्तब्ध था वही रंग, वही रूप पर श्रृंगार…? माथे पर कुमकुम वाला स्थान रिक्त … कान, नाक, हाथ, पाँव जैसे बरसों से अपने हिस्से के श्रृंगार और गहनों के इंतज़ार में तरस रहे हों। सिर पर आधा माथा ढकता हुआ श्वेत रंग का पल्लू … और काले केशों को बांध कर बनाई गई लम्बी सी चोटी….?

“नहींईई ….” चीख पड़ा केशव … वृंदा के केश विहीन सिर पर तो अब नज़र पड़ी थी उसकी।

एक क्षण को ठिठकी वृंदा पर केशव की चीख का कारण समझते देर न लगी उसे… चेहरे पर हल्की सी व्यंगात्मक मुस्कान लिए वो हमेशा की तरह झटके से पलटी और केशव हर बार की तरह मुंह पर चोटी की मार से बचने के लिए कुर्सी पर बैठा बैठा ही ज़रा सा पीछे हुआ। पर आज काली नागिन सी चोटी की मार न थी बल्कि आज श्वेत पल्लू धारण किये हुए, वृंदा का केश विहीन सिर ही नागिन से भी ज्यादा फुंकार कर जहर उगल रहा था।

जीवन मे प्रथम बार वृंदा चुप थी परंतु उसकी फीकी मुस्कान, बरसों से स्वप्नों की प्रतीक्षा करती आंखें, सूनी कलाइयाँ, धीमी धीमी चाल सभी चीत्कार करती कह सुन रहीं थीं…

“केशव … ओ केशव… बड़ी देर कर दी आने में… ऐसी कितनी दूर थे तुम… की मेरी कोई पुकार कोई चीख तुम तक न पहुंची? देखो न केशव इस निर्मोही समाज ने मेरा क्या हाल किया…। ससुराल पहुंचते ही मुझ पर पति को खा जाने का आरोप सिद्ध कर दिया गया। जबरन मेरे केश काट दिए गए, मेरी रंगीन चूड़ियां भी तोड़ डालीं… मेरा सारा श्रृंगार नोंच डाला और मुझे हमेशा के लिए श्वेत रंग ओढ़ने का आदेश दे दिया गया। मैं उस समय कितना रोई थी केशव … कोई मेरी मदद को आगे न आया… तुम भी तो न आए थे … क्या तुम्हें किसी ने कोई खबर न दी। मेरी माँ और मंजरी माँ भी आंखों में आँसू लिए चुपचाप वापिस चली आईं मुझे अकेला छोड़ कर और फिर कुछ दिन बाद मुझे माँ के पास भेज दिया गया।”

“एक बात बताओ केशव… क्या तुम्हारे चाँद पर भी गुड़ियाँ खेलने की उम्र में गुड़ियाँ ब्याह दी जातीं है? क्या वहां भी रीति रिवाज के नाम पर हर त्याग, हर दर्द, हर पूजा-पाठ और व्रत का बीड़ा स्त्री ही उठाती है ? क्यों केशव … क्या वहां भी दो दो घरों की इज़्ज़त और मान सम्मान की रखवाली एक अकेली स्त्री के ही ज़िम्मे आती है ? बोलो न केशव… किसी स्त्री के पति की मृत्यु का शोक और उसे पल पल खत्म करता अकेलापन ही काफी नहीं है क्या … जो समाज द्वारा उससे खुश रहने के अधिकार, उसके वस्त्रों के रंग, उसके श्रृंगार, स्वप्न, तथा मुस्कान तक छीन लिए जाते हैं।”

वृंदा कमरे से बाहर जा चुकी थी पर केशव अभी भी जड़ अवस्था मे जहाँ का तहाँ खड़ा था। उसे अब समझ आ रहा था विधवा उद्धार को पूर्णतः समर्पित अपनी माँ की पहेली जैसी बातों का अर्थ…” जो जी मे आए करो … मुझे कोई आपत्ति नहीं पर पहले ज़रा कलकत्ता जा कर…. वृंदा का हालचाल ज़रूर … ”

खिड़की से बाहर पेड़ पौधे सांझ के अंधेरे और कुहासे की सफेद चादर में सिमटने को तैयार थे मगर केशव के मन मे वृंदा को इस सफेद रंग से बाहर खींच लाने की इच्छा जन्म ले चुकी थी।

— डॉ मीनाक्षी शर्मा

*डॉ. मीनाक्षी शर्मा

सहायक अध्यापिका जन्म तिथि- 11/07/1975 साहिबाबाद ग़ाज़ियाबाद फोन नं -9716006178 विधा- कविता,गीत, ग़ज़लें, बाल कथा, लघुकथा